महात्मा गांधी ने 20 अक्टूबर, 1917 को गुजरात के भड़ौच में एक शिक्षा सम्मेलन में कहा था - "विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा पाने में दिमाग पर जो बोझ पड़ता है, वह असह्य है। यह बोझ हमारे बच्चे उठा तो सकते हैं, लेकिन उसकी कीमत हमें चुकानी पड़ती है, वे दूसरा बोझ उठाने लायक नहीं रह जाते हैं। इससे हमारे स्नातक अधिकतर निकम्मे, कमजोर, निरुत्साही, रोगी और कोरे नकलची बन जाते हैं। इससे हम नयी योजनाएं नहीं बना सकते हैं और यदि बनाते हैं, तो उन्हें पूरा नहीं कर पाते हैं।" आजादी के बाद तैयार की गयी तीनों शिक्षा नीतियों में इस बात को ध्यान में रखते हुए मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करने की नीतियां बनायी गयी हैं। प्रथम दो शिक्षा नीतियों में मातृभाषा का महत्त्व तो रेखांकित किया गया है लेकिन इसे अध्ययन के सभी स्तरों पर लागू करने की सुपष्ट नीति का अभाव रहा है। इसकी कमी को हाल ही लागू तृतीय शिक्षा नीति में दूर किया गया है।
मातृभाषा पर नीति निर्माता समिति की गंभीरता इसी बात से पता चल जाती है कि 24 अध्याय में विभाजित इस नीति में 2 अध्याय मातृभाषा और शिक्षण माध्यम की भाषा व अनुवाद को समर्पित है। इसके साथ ही लुप्तप्राय भाषाओं को बचाने की चिंता भी पहली बार राष्ट्रीय शिक्षा नीति में देखने को मिली है। इसके अध्याय-4 और अध्याय-22 दोनों में ही शिक्षा के माध्यम के रूप में भाषा, भाषा का संरक्षण व संवर्द्धन और अनुवाद के लिए नीति निर्धारित की गयी है। अध्याय-4 में मातृभाषा और/या स्थानीय भाषा को प्राथमिक शिक्षा का माध्यम और आगे के लिए यथासंभव भारतीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया जाना निर्धारित किया गया है। अध्याय-22 में समस्त भारतीय भाषाओं, कला और संस्कृति का संवर्धन करने की बात कहते हुए शिक्षा प्रणाली में बहुभाषिकता को समय की आवश्यकता बतायी गयी है।
अध्याय 4 में मातृभाषा या स्थानीय भाषाओं में शिक्षण के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा गया है कि छोटे बच्चे अपने घर की भाषा/मातृभाषा में सार्थक अवधारणाओं को अधिक तेजी से सीखते हैं। ग्रेड-5 तक अनिवार्य रूप से शिक्षा का माध्यम घर की भाषा/मातृभाषा/स्थानीय भाषा/क्षेत्रीय भाषा होनी चाहिए। आगे यह भी कहा गया है कि यह बेहतर होगा कि ग्रेड-8 और उससे आगे तक भी शिक्षा का माध्यम घर की भाषा/मातृभाषा/स्थानीय भाषा/क्षेत्रीय भाषा हो। सार्वजनिक और निजी दोनों तरह के स्कूल इसकी अनुपालना करेंगे। यदि निजी स्कूल इस नीति को मानेंगे तभी इसके अपेक्षित परिणाम सामने आयेंगे। इसमें इस बात को स्पष्ट तौर पर रेखांकित किया गया है कि किसी भाषा को सीखने के लिए इसे शिक्षा का माध्यम होने की आवश्यकता नहीं है।
भारत में केवल अच्छी अंग्रेजी सिखाने के उद्देश्य से पूरी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था को अंग्रेजी माध्यम से अपनाये जाने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। भले ही छात्र अवधारणाओं को समझने के बजाए रटने पर मजबूर हों। यूनेस्को द्वारा जारी ग्लोबल रिपोर्ट 2005 के एक तथ्य के अनुसार एक बार विषय की मूल अवधारणा अपनी भाषा में समझ में आ जाए तो उच्चतर शिक्षा में किसी भी भाषा में अध्ययन सहज हो सकता है। दुनिया भर के भाषाविद और शिक्षाविद इस बात पर निर्विवाद रूप से एकमत हैं कि मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा प्रदान करने से बालक की मौलिक रचनात्मक प्रतिभा को विकसित करने में निश्चय ही मदद मिलती है। मातृभाषा में शिक्षा से बच्चों की कल्पनाशीलता और सृजनशीलता को बचाया जा सकता है।
भाषाविदों का मानना है कि जो बच्चे अपनी मातृभाषा में जितनी ज्यादा पकड़ रखते हैं, वे उतने ही रचनात्मक और तार्किक होते हैं। इससे मस्तिष्क पर अनावश्यक बोझ नहीं पड़ता है। हमारे देश में शिक्षा पर समय-समय पर गठित सभी समितियों, सभी शैक्षिक आयोगों, राष्ट्रीय शिक्षा नीति आदि में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा को ही बनाए जाने की बात कही गयी है। वर्तमान में भारत में मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा प्रदान करने वाले स्कूलों की स्थिति और उनकी संख्या लगातार दयनीय होती जा रही है। वहीं अंग्रेजी माध्यम के स्कूल स्थानीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा प्रदान करने वाले स्कूलों को निगलते जा रहे हैं। भारतीय भाषाओं के बहुत से स्कूल अंग्रेजी माध्यम में बदलते जा रहे हैं। इस दिशा में तमाम राज्य सरकारों द्वारा भी कार्य हो रहे हैं।
उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र के तमाम सरकारी स्कूलों को चरणबद्ध तरीके से अंग्रेजी माध्यम में बदला जा रहा है। इससे संबंधित तमाम खबरें पिछले वर्षों में समाचार-पत्रों की सुर्खियाँ बनीं। ऐसी स्थितियां भारतीय भाषाओं विशेषकर मातृभाषाओं के लिए बहुत घातक हैं। आज विडंबना है कि डॉलर में वेतन दिलवाने वाले रोजगार के अवसर अंग्रेजी में ही उपलब्ध हैं। इसके चलते बाजार की मांग अंग्रेजी के पक्ष में ही अधिक है। हालांकि यह स्थिति विश्व में अमेरिका के ताकतवर रहने और विश्व व्यापार की मुद्रा डॉलर के रहने तक ही रहेगी। देश में शैक्षिक परिदृश्य कुछ इस प्रकार का बन गया है कि चारों ओर अंग्रेजी माध्यम के ही स्कूल दिखते हैं। इसी अंग्रेजी की अनिवार्यता से देश की मौलिकता को बहुत बड़ा आघात पहुंचा है। यहाँ पर अंग्रेजी से बैर नहीं है लेकिन उसकी अनिवार्यता देश के लिए घातक बन गयी है। हालांकि एक विदेशी भाषा के रूप में अंग्रेजी सीखना बहुत आवश्यक है।
यूनेस्को की ग्लोबल रिपोर्ट 2005 में भी सिफारिश की गयी है कि जातीय रूप से विविधतापूर्ण समुदाय में न्यूनतम 6 वर्षों तक मातृभाषा में शिक्षा देना अनिवार्य है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि शिक्षा के माध्यम से इतर दूसरी भाषा बोलने वाले मुख्य धारा से पीछे न छूट जाएं। भाषा और संस्कृति का आपस में गहरा रिश्ता है। हमारी संस्कृति हमारी भाषाओं में निहित है। इस नीति के अध्याय-22 में स्पष्ट है कि संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन और प्रसार के लिए हमें उस संस्कृति की भाषाओं का संरक्षण और संवर्धन करना होगा। इसके लिए पहली बार शिक्षा नीति में लुप्त हो चुकी और लुप्त प्राय भाषाओं पर चिंता व्यक्त की गयी है। इसमें उल्लेख किया गया है कि देश ने विगत 50 वर्षों में 220 भाषाओं को खो दिया है। युनेस्को ने 197 भारतीय भाषाओं को लुप्त प्राय घोषित किया है। विभिन्न भाषाएं विलुप्त होने के कगार पर हैं। यदि शिक्षा प्रणाली बहुभाषी होगी और भारतीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया जाएगा, तो काफी हद तक इस समस्या का निपटान किया जा सकता है। भाषा के लुप्त होने से पूरे समाज को क्षति होती है और हजारों वर्षों में सहेजी गयी विरासत और धरोहर नष्ट हो जाती है। उदाहरण के लिए आदिवासी समाज की भाषाएं आज सर्वाधिक हाशिए पर हैं, और इन भाषाओं में व्यक्त प्रकृति विषयक या अन्य प्रकार के ज्ञान का यदि संरक्षण नही किया जाएगा तो भाषा लुप्त होने के साथ ही ज्ञान भी नष्ट हो जाएगा और अंत में आदिवासी संस्कृति का अस्तित्त्व भी खतरे में पड़ जाएगा।
इसी अध्याय में भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज तमाम भाषाओं के समक्ष आसन्न संकट की भी बात उठायी गयी है और कहा गया है कि ये भाषाएं भी कई प्रकार के संकटों का सामना कर रही हैं। भाषाओं को चुनौतीपूर्ण स्थितियों से बचाने के लिए और उनको प्रासंगिक व जीवंत बनाए रखने के लिए उच्चतर गुणवत्तापूर्ण अधिगम एवं प्रिंट सामग्री का सतत प्रवाह बनाए रखने की अपेक्षा भी इस नीति में की गयी है। समसामयिक मुद्दों और अवधारणाओं को इसमें व्यक्त करने की क्षमता बनाने के लिए इन सभी भाषाओं के शब्दकोश और शब्द भंडार को आधिकारिक रूप से लगातार अद्यतन करने की आवश्यकता जतायी गयी है। ऐसा कार्य दुनिया के तमाम देशों द्वारा अपनी भाषाओं की प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए किया जाता है। भारतीय भाषाओं में इस दिशा में बहुत कम काम हुआ है। इसीलिए नई संकल्पनाओं और अवधारणाओं को भारतीय भाषाओं में व्यक्त करने में समस्यायें होती हैं।
मातृभाषाओं के संरक्षण से ही भाषाओं और संबंधित संस्कृति को बचाया जा सकता है। ज्ञानवान और सहिष्णु समाज के लिए समाज के बहुभाषिक स्वरूप को बनाए रखना बहुत आवश्यक है। इसलिए नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में मातृभाषा में शिक्षण को प्रमुख स्थान दिया गया है। हाल ही में नयी शिक्षा नीति को लेकर आयोजित किये गए एक सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि ये नए भारत की, नई उम्मीदों की, नई आवश्यकताओं की पूर्ति का माध्यम है। पूरे भारत को नयी शिक्षा नीति से बहुत सारी अपेक्षाएं हैं। वर्ष 2022 से इसके अनुसार पढ़ाई शुरू करने की योजना बनायी जा रही है। उम्मीद है कि जिन उद्देश्यों को लेकर नयी शिक्षा नीति बनायी गयी है, उसे प्राप्त करने में सफल होगी।
आलेख –
दिलीप कुमार सिंह
प्रबंधक (राजभाषा)
भारत कोकिंग कोल लिमिटेड, धनबाद।