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ब्रिटिश शासन का प्रभाव आदिवासियों के जीवन और संस्कृति पर - एक नजर

छोटानागपुर पठार (वर्तमान झारखंड और आस-पास के क्षेत्रों) में ब्रिटिश शासन का प्रभाव आदिवासियों के जीवन और संस्कृति पर गहरा और दीर्घकालिक रहा। इसने उनके आर्थिक जीवन, भूमि-संबंध, सामाजिक ढाँचे और सांस्कृतिक पहचान को गहराई से प्रभावित किया।

इसके कुछ प्रमुख पहलुओं पर प्रभाव:

1. पारंपरिक भूमि व्यवस्था का विघटन
    •    ब्रिटिश शासन से पहले, मुंडा, उरांव, संथाल, हो और खड़िया जैसे आदिवासी समुदाय सामुदायिक भूमि स्वामित्व की व्यवस्था अपनाते थे — भूमि पूरे समुदाय की होती थी और खेती के अधिकार साझा किए जाते थे।
    •    ब्रिटिशों ने जमींदारी और रैयतवाड़ी प्रणालियाँ लागू कीं, जिनसे पारंपरिक सामूहिक स्वामित्व की जगह निजी संपत्ति ने ले ली।
    •    गैर-आदिवासी जमींदारों (जिन्हें ‘दिकु’ कहा जाता था) और महाजनों ने आदिवासियों की जमीनों पर नियंत्रण कर लिया।
    •    परिणाम: आदिवासियों का बड़े पैमाने पर अपनी पैतृक भूमि से विस्थापन और कर्ज़दारी में वृद्धि हुई।

2. शोषण और प्रवासन
    •    ब्रिटिशों ने छोटानागपुर क्षेत्र में व्यावसायिक वनों और खनन कार्यों को बढ़ावा दिया।
    •    वन कानूनों (जैसे 1865 और 1878 के भारतीय वन अधिनियम) ने आदिवासियों की वन उपज, शिकार और झूम खेती पर रोक लगा दी।
    •    अनेक आदिवासियों को मजबूर होकर चाय बागानों (असम), खानों और उद्योगों में मजदूरी करनी पड़ी।
    •    इससे उनकी आत्मनिर्भरता समाप्त हुई और जीविका के लिए पलायन बढ़ा।

3. विद्रोह और प्रतिरोध
    •    अत्याचार और शोषण के परिणामस्वरूप आदिवासियों ने ब्रिटिशों और दिकुओं के खिलाफ कई विद्रोह किए:
    •    चुआर विद्रोह (1767–1800)
    •    कोल विद्रोह (1831–32)
    •    संथाल विद्रोह (1855–56)
    •    मुंडा उलगुलान (बिरसा मुंडा आंदोलन) (1899–1900)
    •    ये सभी आंदोलन आदिवासियों की अपनी भूमि, गरिमा और पारंपरिक जीवनशैली को पुनः प्राप्त करने की आकांक्षा को दर्शाते हैं।

4. सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर प्रभाव
    •    ब्रिटिशों के साथ ईसाई मिशनरी भी आए, जिन्होंने विद्यालय और चर्च स्थापित किए; अनेक आदिवासी ईसाई धर्म अपनाने लगे।
    •    पाश्चात्य शिक्षा ने कुछ नए अवसर दिए, परंतु इसने सांस्कृतिक विघटन भी उत्पन्न किया — पारंपरिक विश्वास, उत्सव और जनजातीय शासन व्यवस्था कमजोर पड़ गई।
    •    ब्रिटिश प्रशासन ने जनजातीय प्रथागत कानूनों की जगह लिखित कानूनों को लागू किया, जिससे पारंपरिक पंचायतों (परहा और मानकी) की भूमिका घट गई।

5. आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभाव
    •    छोटानागपुर में कोयला, लौह अयस्क और वन उत्पादों के व्यावसायिक दोहन से वनों की कटाई और प्राकृतिक संसाधनों की क्षति हुई।
    •    शिकार, संग्रहण और झूम खेती जैसी पारंपरिक आजीविकाएँ लुप्त होने लगीं।
    •    नकद अर्थव्यवस्था ने विनिमय प्रणाली की जगह ले ली, जिससे बाजार और महाजनों पर निर्भरता बढ़ी।

6. दीर्घकालिक परिणाम
    •    ब्रिटिश शासन की विरासत ने भूमिहीन आदिवासी मजदूरों का एक वर्ग उत्पन्न किया।
    •    जो जनजातीय समाज पहले समानतावादी और प्रकृति-आधारित था, वह अब विभाजित और निर्धन बन गया।
    •    फिर भी, इसी दौर में राजनीतिक चेतना भी विकसित हुई, जिसने आगे चलकर झारखंड राज्य की मांग को जन्म दिया।

संक्षेप में, ब्रिटिश शासन ने छोटानागपुर के आदिवासियों को स्वावलंबी वनवासी से हाशिये पर धकेले गए मजदूरों में बदल दिया। इससे उनकी भूमि अधिकार, संस्कृति और पारंपरिक शासन प्रणाली कमजोर हुई, परंतु इसने प्रतिरोध और अस्मिता की चेतना को भी जन्म दिया, जो आज तक उनके संघर्षों को दिशा देती है।

✝ ईसाई मिशनरियों का प्रभाव

ब्रिटिश शासन के दौरान आए ईसाई मिशनरियों का छोटानागपुर जैसे क्षेत्रों में आदिवासी समुदायों के पारंपरिक मूल्यों, भाषाओं और संस्कृति पर गहरा और जटिल प्रभाव पड़ा।

इसका संछिप्त विश्लेषण:

🌿 1. परिचय

19वीं सदी में जब ब्रिटिश शासन छोटानागपुर तक फैला, तब ईसाई मिशनरी भी औपनिवेशिक अधिकारियों के साथ आए। उन्होंने विद्यालय, अस्पताल और चर्च स्थापित किए, विशेष रूप से मुंडा, उरांव और हो जनजातियों के बीच।
उनके प्रयासों से शिक्षा और सामाजिक सुधार तो आया, परंतु उन्होंने आदिवासी समाज के धर्म, संस्कृति और पहचान को भी नया रूप दिया।

📚 2. पारंपरिक मूल्यों पर प्रभाव
    •    धार्मिक आस्थाओं में परिवर्तन:
    •    अनेक आदिवासियों ने ईसाई धर्म अपनाया, और वे अपनी प्रकृति-पूजक (एनिमिस्टिक) आस्थाओं (जैसे बोंगा, सिंगबोंगा आदि) से दूर हो गए।
    •    पूर्वज और प्रकृति पूजा से जुड़ी अनुष्ठान, बलिदान और पर्व मिशनरियों द्वारा “अवैज्ञानिक” या “पापपूर्ण” बताकर हतोत्साहित किए गए।
    •    सामाजिक नैतिकता में बदलाव:
    •    ईसाई धर्म के नए नैतिक आदर्श — जैसे शराब या पशुबलि से परहेज़ — पारंपरिक रीति-रिवाजों से भिन्न थे।
    •    इससे समुदायों के भीतर सांस्कृतिक विभाजन उत्पन्न हुआ — एक ओर ईसाई आदिवासी, दूसरी ओर पारंपरिक आदिवासी।
    •    सामुदायिक एकता का ह्रास:
    •    पारंपरिक ग्राम परिषदें (परहा, मानकी-मुंडा प्रणाली) कमजोर पड़ीं, क्योंकि चर्च एक नया सामाजिक केंद्र बन गया।
    •    परिणामस्वरूप, साझे अनुष्ठानों और पर्वों पर आधारित एकता घटने लगी।

🗣 3. भाषाओं पर प्रभाव
    •    मिशनरियों की भूमिका दोहरी रही —
    •    एक ओर, उन्होंने आदिवासी भाषाओं का लिप्यंतरण किया (जैसे मुंडारी, कुरुख, संथाली के लिए) और व्याकरण, शब्दकोश, बाइबिल अनुवाद आदि तैयार किए।
    •    दूसरी ओर, उनके स्कूलों में अंग्रेज़ी और क्षेत्रीय भाषाओं (जैसे हिन्दी या बंगला) को महत्व मिला, जिससे स्थानीय भाषाओं का प्रयोग धीरे-धीरे घटा।
    •    समय के साथ द्विभाषिकता विकसित हुई — औपचारिक जीवन में लोग अंग्रेज़ी या हिन्दी का प्रयोग करने लगे, जबकि जनजातीय भाषाएँ मुख्यतः मौखिक परंपराओं में सीमित रह गईं।

🎭 4. संस्कृति और जीवनशैली पर प्रभाव
    •    शिक्षा और आधुनिकता:
    •    मिशनरी विद्यालयों ने साक्षरता और आधुनिक शिक्षा फैलायी, जिससे आदिवासियों को प्रशासन, सेना आदि में रोजगार के अवसर मिले।
    •    परंतु पश्चिमी शिक्षा ने व्यक्तिवाद को बढ़ावा दिया, जो आदिवासी समाज की सामूहिकता से भिन्न था।
    •    त्योहारों और कला में परिवर्तन:
    •    पारंपरिक नृत्य, गीत और पर्व (जैसे सरहुल, करम, मागे परब) को कई बार हतोत्साहित कर ईसाई पर्वों (जैसे क्रिसमस, ईस्टर) को प्राथमिकता दी गई।
    •    इससे संस्कृतिक विविधता और पारंपरिक अभिव्यक्तियों में कमी आई।
    •    स्वास्थ्य और सामाजिक सुधार:
    •    मिशनरियों ने अस्पताल और स्वच्छता प्रथाओं की शुरुआत की, जिससे स्वास्थ्य में सुधार हुआ।
    •    उन्होंने अंधविश्वास, शराबखोरी जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ कार्य किया, पर कई बार उन्होंने स्थानीय धार्मिक आस्थाओं का अनादर भी किया।

🌾 5. निष्कर्ष

संक्षेप में, ब्रिटिश शासन काल में आए ईसाई मिशनरियों ने आदिवासी जीवन को गहराई से परिवर्तित किया।
उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक चेतना को तो बढ़ाया, पर साथ ही धार्मिक और सांस्कृतिक निरंतरता को भी बाधित किया।

आज के आदिवासी इस द्वैध विरासत के साथ आगे बढ़ रहे हैं — एक ओर मिशनरी प्रभाव से मिली आधुनिकता और शिक्षा को अपना रहे हैं, और दूसरी ओर अपनी परंपरागत भाषाओं, त्योहारों और मूल्यों को पुनर्जीवित कर अपनी विशिष्ट पहचान को सशक्त बना रहे हैं।

भुवनेश्‍वर बाखला

आलेख: भुवनेश्‍वर बाखला 
 

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