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धुमकुड़िया में फिर दीया जला रहे हैं

जंगल में तीर, धुनष, टंगिया
अखड़ा में मांदर, नगाड़ा, ढोल,ढांक, बांसुरी, ठेसका, भेंर
धुमकुड़िया के आंगन में बसुला, दउली, कुल्हाड़ी से
बनाते हल,तीर धनुष,बलुवा, कुदाल का बेंट,
बुनते कभी मछली के जाल, कभी बनाते गुलेल, कभी ढेलवाँस,
दिमाग के टोकरी में,दउरी में इससे अधिक सजा लेते थे –
बहुत कुछ हमारे आजा आजी, नाना नानी, परदादा आदि
और आज ?
आदिवासी युवा, इन सबका 
अनजाना पाठ खोज रहे हैं, राह खोज रहे हैं
पहाड़ पर कोई लालटेन या ढिबरी, चमक रही हो जैसे
आधुनिक भवन के बीच, पक्के घरों में
वह अपने पुरखों का लूर-दरवाजा खटखटा रहे हैं
कुछ लोग यहाँ
कलम, कूँची, कैमरा, किताब, कॉपी ले आए हैं – उनके सामने.
वह देख रहा है- अखड़ा की एकजुट, एकतान लयबद्ध अनुशासन- 
पड़हा की पारंपरिक सुव्यवस्था की बिखर गई है कड़ी 
थिरकते कदम बचे हैं, लचकती झूमती बांस सी काया भी है शेष
मगर गायब हैं गले से मीठी कोयल, महूकल की गूंजती आवाज 
गूँगे गीतों के धुनों पर आखिर कब तक झूमते, नाचते युवा ?
कुछ-कुछ अपनी चीजें, आवाजें, गीत गायब होते देख रहे हैं 
यह सब कुछ खोने का एहसास उन्हें कचोट रहा है,
दिल्ली, मुंबई, बंगलोर, कोलकाता, गुवाहाटी, शिलाँग, चेन्नई, पुणे 
त्रिवेन्द्रम, भुवनेश्वर, भोपाल, इन्दौर, जयपुर आदि शहरों में अध्ययनरत युवा 
लौट आया है अपने गाँव, वह समाज के हर संकट देख, महसूस रहा है
संकट समाधान के लिए, अपने अस्तित्व रक्षा के लिए, बेचैन है
वह पुरानी विरासत चाहता है बचाना, नया भी रखना चाहता है
अजीब दृश्य है इसलिए - धुमकुड़िया में,  आज का युवा -
माँदर, केंदरा, बाँसुरी के साथ गिटार बजाकर, उलगुलान गीत गा रहा है,
किताब, कलम, कूँची, कैमरा, कंप्यूटर, मोबाईल से
वह कुछ नया पढ़ रहा है, नया गढ़ रहा है
वह रच रहा है – अपने भविष्य की नई दुनिया
लगता है वह पुरखों के कुछ लूर, बुद्धि, परंपरा,विरासत, रीति-रिवाज
आधुनिक जरुरतों के साथ
तन, मन, बुकू, जिया और एख में सुलगा रहा है.
मगर कुछ भटक गए हैं रास्ता – पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक के तर्क पर
कुछ संवेदनशील, दूरदर्शी बुजुर्ग नाराज हैं इसीलिए –
वे आयातित, उधार लिए शब्दों के आसन्न खतरे और समस्या समझा रहे हैं
तो कुछ खुश हैं कि आज का आदिवासी-युवा –
धुमकुड़िया, अखड़ा, मांझी-थान, जाहेर, चाला-टोंका, कुंडी में
सुतियाम्बे, लुगु बुरू, डोम्बारी बुरू, सईल रकब, रोगोद,
भोगनाडीह, टिको, सिलागाँई, सेरेंगसिया की घाटी में
अपने पुरखों की ऊर्जा, संघर्ष, नीति, सिद्धान्त, शक्ति,
दर्शन, अध्यात्म की दशा और दिशा खोज रहा है,
धूल भरे इतिहास के पुस्तकें झाड़ रहा है
पड़हा, जतरा, सेन्दरा, पंचा, मदाइत की सामूहिकता समझ रहा है,
मांझी-परगना, मांकी-मुण्डा, ढ़ोकलो-सोहोर, पड़हा व्यवस्था की -
सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, भाषिक,दार्शनिक,आध्यात्मिक,
एकजुट-सहयोगिता की अहमियत व जरुरत समझ रहा है
इन सारी व्यवस्थाओं में पुरखों की टीम-प्रबंधन, संप्रेषण-कला,
मौसम-विज्ञान, औषधि-ज्ञान का खजाना सम्हाल रहा है 
घर से बाहर पड़ोसी पशु-पक्षियों के व्यवहार-ज्ञान, 
और घर के अंदर पालतू पशु-पक्षियों का करता वह सम्मान
अलग मौसम में नाचने, बजाने, गाने के
राग, लय, ताल की गहराई और बारीकी समझ रहा है
भूली-बिसरी परंपराओं के महत्व, अनुभव कर रहा है,
उनके पदचाप में जीवन की व्यापकता देख रहा है
आदिम कहे जाते अपने रीति-रिवाज,परंपरा, विरासत में
आधुनिक संकटों, समस्याओं, जटिलताओं का संभावित समाधान देख रहा है
भूले गीतों को वह माँदर, ढोल, बाँसुरी संग गा रहा है
सरल उन गीतों के सूक्ष्म अर्थ, ध्यान से समझ रहा है
पुऱखा खान-पान के तरीके, पहचान और स्वाद चख रहा है
फूल,पत्ते,जड़ें,खुखड़ी-रूगड़ा, संधना मड़ुवा,फुटकल,ठेपा,
जिरहुल,सनई, बेंग,चिमटी,मुनगा,कटई,चकोंड़, आदि साग की
पौष्टिकता और औषधीय-गुण वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों से होने के बाद सिद्ध,
गर्व से – यह सब लेकर स्वाद, आदर से खा रहा है 
पुऱखों द्वारा गाए, अलग मौसम के गीतों के
असली मतलब समझ रहा है- लय, ताल, राग पहचान रहा है
रागों का उतार-चढ़ाव, फैलाव
बिना वाद्य के गाए नृत्य-गीतों का कर रहा स्वयं अभ्यास है
पहनने, ओढ़ने, सजने, संवरने के तरीके जान रहा है
परब-त्यौहार के पुरखा नेग-चार की बारीकी समझता
वह पुरखा जीवन-दर्शन, अध्यात्म की
गहराई, विस्तार व सूक्ष्मता समझ रहा है
शहर के चकाचौंध से दूर
जाहेर, चाला टोंका, देशाउली या सरना के अलावा भी
हर सजीव, निर्जीव में जीवन, धड़कता महसूस रहा है-
मिट्टी, चट्टान, पेड़-पौधे, नदी-झरने,
छोटे बड़े, जीव-जंतु में सगा-बंधु होने की छवि देख रहा है
धरमेस, बड़ादेव, सिङबोंगा आदि से 
जुड़ा हर सृजन-संदर्भ समझ रहा है
पुरखों के अनुभव व ज्ञान को
आज के संदर्भ में ज्यादा उपयोगी पा रहा है
पुरखा जीवन-परंपरा को वैश्विक पहचान दिला रहा है
लोकगीतों में पुरखों के संघर्ष का गौरवपूर्ण इतिहास देख रहा है
धुमकुड़िया में वह करंज-तेल की तीखी खुशबू में, 
कुछ नया सबेरा सा महसूस रहा है
इसकी रोशनी में सामूहिकता,एकजुटता, परस्पर-सहयोग
एक दूसरे को आदर से, सम्मान से, स्नेह से देखने की
आदिवासी-सबक की व्याख्या, पुनर्सृजन और पुनर्पाठ कर रहा है
उसे पुरखों की शिक्षा, परंपरा, विरासत, संघर्ष, जिजीविषा पर गर्व हो रहा है
दुनिया के लोग क्योंकि --
उन्हीं नीतियों, सिद्धान्तों का कर रहे अब अनुसरण हैं
यह सब नेशनल ज्योग्राफी, डिस्कवरी, हिस्ट्री-चैनल,यूट्यूब आदि में देख रहा है
गूगल से जानकारियाँ, विवरण, डाटा डाउनलोड कर रहा है
फिर भी खुलकर कोई नहीं स्वीकारता -
जंगल का, जीवन-दर्शन सिद्धान्त बेहतर है,
महानगरों की जीवन-दृष्टि से, सभ्यता से
आज के बदले संदर्भ में, बदले परिवेश में,
संकटग्रस्त  कोरोना महामारी-काल में --
प्रकृति का सम्मानजनक स्वरूप बचाना है
आदमी को आदमी, पानी को पानी, हवा को हवा, पेड-पौधों को,
जीव जंतुओं को, मनुष्य का सहजीवी, सहयात्री समझना है,
न उनमें देखना है नया बाजार, न मुनाफा, न धन की रंगीन चमक
धरती का स्पंदन और रक्त-प्रवाह बचाए रखना है
प्रकृति का अंग-प्रत्यंग स्वस्थ, निरोग व स्वच्छ रखना है
ये सारी बातें आदिवासी-युवा, पुऱखा-अनुभव से सीख रहा है-
वह पुरखों की बनायी लॉक-डाउन परंपरा पहचान रहा है
मानव-विज्ञानियों, इतिहासकारों, विद्वानों ने -
धुमकुड़िया, गितिओड़ाः, जोंख-एड़पा, घोटुल को किया बदनाम.
अब युवा हमारे, कर रहे उनकी आलोचना हैं  -
अपनी मातृभाषा के शब्दों के महत्व 
और उसके गूढ़ अर्थ, प्रयोग की महत्ता समझ रहे हैं, समझा रहे हैं
किसने क्या कहा, किया क्या, देखा क्या, क्या नहीं देखा
वह कर रहा इन सब पर शोध, देश-विदेश के पुस्तकालयों में.
विविध शिक्षण-संस्थाऩों के सभा सेमिनारों में रख रहा अपने तर्क व विवरण
याद रहे, मात्र मनोरंजन का केन्द्र था नहीं – धुमकुड़िया या घोटुल
जीवन जीने के हर जरुरी काम, गतिविधियों, तरीके और विधियों से
परिचय कराता हमारा जीवन-विकास-केन्द्र था धुमकुड़िया या कि घोटुल
अपनी क्षमता, दुनिया, पड़ोसी परिवेश को समझने का था शिक्षण-केन्द्र
ऐसे में कैसे कह देता है कोई कि- आदिवासी है असभ्य,गंवार या कि शैतान !
दोष उसका यही हर बार दुनिया के, हर कोने में  –
वह किसी को नाहक दुश्मन नहीं समझा, न समझता है
गलती शायद उसकी एक यही -
हर जगह आदिवासी प्रकृति की सुरक्षा में अड़ जाता है, भिड़ जाता है,
आमेजन, दामोदर, कांगो, व्हांगानुई, स्वर्णरेखा, कोयल-कारो, नियमगिरि
गोदावरी आदि नदी की घाटियों में, जंगल में, मैदानों में कहीं भी
स्वचालित मशीन गनों के आगे, बुलडोजरों, टैंकों के सामने -
तीर-धनुष,टांगी, लाठी, बलुवा, भाला, दउली, हंसिया, गुलेल लेकर तन जाता है
आमेजन की नदी-घाटी हो, अंडमान का टापू,
नर्मदा का चट्टानी, कंटीला किनारा,
कोयल-कारो का संघर्ष हो, नेतरहाट या नियमगिरि के पहाड़ों की रक्षा
अगले किसी लालची कोलंबस का वह नहीं चाहता इलाके में अपने प्रवेश
लूटे गए हैं कई आदिवासी-इलाके कुछ इसी तरह धन की अंधभक्ति में
कोलंबस की तरह, नई दुनिया खोजते लोग, दुनिया में हर जगह -
आदिवासी, ब्लैक, इंडीजीनियस, नैटिव या एबोर्जिनल का करते रहे संहार हैं
आदिवासी युवा यह खूनी इतिहास पढ़ रहा है, गुन रहा है, जान रहा है
ब्लैक, नैटिव, एबॉर्जिनल, ट्राइब्ल, आदिवासी, शिड्यूल्ड ट्राइब
इंडीजीनियस, फर्स्ट नेशन, रेड इंडियन  आदि सब एक हैं-
शारीरिक, सामाजिक, आत्मिक, आर्थिक,सांस्कृतिक,भाषिक,
राजनीतिक-उत्पीड़न, आतंक, लूट-खसोट,शोषण अत्याचार,
बेठ-बेगार, भेद-भाव, गुलाम, विरोध, विद्रोह, संघर्ष,  खूनी-इतिहास,
पूरी दुनिया में धर्म, ज्ञान, विज्ञान, तकनीक का खेल, सभ्यता की प्रगति
और विकास का अनुशासनहीन धंधा और उद्यम समझ गया है
पुरखा-जीवन के खून की कीमत और बलिदान
पुरखों के तलवों, घुटनों से बहे रक्त के जीन्स पहचान रहा है
पुरखों के अनुभव,परंपरा, विरासत को इक्कीसवीं सदी में समझ रहा है
गीत, संगीत और नृत्य के ताल, लय की एकरूपता
जेम्बे, बूंगो, ड्रम, मांदर, ढोल, नगाड़ों की थाप पर एकजुट तान सुन रहा है,
कदम मिला रहा है, वाद्य और गीतों की स्वर-लहरी और तान एक है,
जंगल बीच पहाड़ की चोटी के गाँव पर आज जो इंजोत दिख रहा है
इस उजाले में आदिवासी, उम्मीद की रोशनी और रास्ता देख रहा है
आज के बदले हालात में सखुआ पेड़ के नीचे, ईमली पेड़ के नीचे
बह धुमकड़िया को लाइब्रेरी बना रहा है, लूर-अड्डा बना रहा है,
प्रतिभा और कौशल विकास केन्द्र बना रहा है
बिखरे, भटके युवाओं को एक जुट कर रहा है
आधुनिक तकनीक को, विकास व सभ्यता के 
नित नये उभरते अवधारणाओं, विचारों को 
अपनी जरूरत के परिप्रेक्ष्य में परख रहा है,जाँच रहा है
और उधर बुजुर्गों का मन बेचैन है
ये बच्चे क्या कर रहे हैं, उनके मन में सवाल खलबला रहे हैं
युवा समझा रहे हैं –
हम कर रहे हैं, जो बहुत पहले करना था
जंगल, पहाड़, खेत के साथ तन,मन को उर्वर और मजबूत बना रहे हैं
सूने अखरा में खोये गीतों को
फिर गा रहे हैं, नये गीत रच रहे हैं – हम युवा माँदर बजा रहे हैं
पुराने और नये गीत भी गा रहे हैं
हम सब माँदर बजा रहे हैं, हम ढोल बजा रहे हैं
बाँसुरी बजा रहे हैं, तिरियो, केन्दरा भी बजा रहे है
हम खोये पुरखों को अपने साथ बुला रहे हैं, जिन्दा कर रहे हैं
धनुष बना रहे हैं, तीर पजा रहे हैं, जीवन से जुड़े हर बीहन बचा रहे हैं
इन्हें अपने साथ रख रहे हैं
जाहेर में, चाला टोंका में गाँवा-वैराखी गाड़ रहे हैं
हम धुमकुड़िया, अखरा, सेन्दरा, जाहेर, पड़हा, जतरा, पंचा-मदाइत को
फिर जगा रहे हैं, एकजुट हो रहे हैं
इसका महत्व हम विश्व-व्यापार-जगत के संदर्भ में समझ गए हैं
दुनिया में हम कहीं भी प्रकृति के संरक्षक हैं, सगा हैं, मित्र हैं, हमदर्द हैं
पूरी दुनिया में एकजुट हो हम,
बुधु भगत के पूरे परिवार की तरह शहीद होने, तैयार हैं
अखड़ा में हम सब बिरसा के उलगुलान-गीत गा रहे हैं
सिद्धो, कान्हू, चाँद, भैरव, फूलो, झानो, गुंडाधुर, तांत्या, तेलंगा,
सिनगी दई आदि का साहस और जुझारुपन याद कर, हो गए हैं एकजुट
हमने संविधान के साथ, आलमारी में कई किताबें सजा ली हैं
कुछ झोले में, बैग में डाल ली है
किताब, कॉपी तैयार है, प्रत्यंचा पर तीर नहीं, कलम चढ़ा लिया है
नगाड़ा बजाकर, कर दिया ऐलान है-
सभी युवाओं को फिर से पढ़ा रहे, बता रहे, सिखा रहे -
अस्तित्व-रक्षा के भूले-बिसरे हर छोटे बड़े दस्तूर
आधुनिक विज्ञान से लैस सोच, विचार, तकनीक के अलावा
हम पुरखों के नेग-चार दुहराते, पचबाआलर से, पुरखों से गोहरा रहे हैं
बची रहे - हरी-भरी धरती हमारी, बचे रहे सब लोग,
हवा पानी उर्वर खेत-खलिहान, देखे अनदेखे जीव, हर बुरी नजर से.
धुमकुड़िया में नैग के साथ डंडा-कट्टा करते, भेलवा फाड़ कर, 
अनिष्ट से, विपत्तियों से बचने, सबकी सुरक्षा हेतु, भख  काट रहे हैं,
आज हम धुमकुड़िया में फिर दीया जला रहे हैं.

महादेव टोप्‍पो

रचना: महादेव टोप्पो

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