साधरणतया, लोग कहा करते हैं - आदिवासियों का कोर्इ धर्म नहीं है। इनका कोर्इ आध्यात्मिक चिंतन नहीं है। इनका विश्वास एवं धर्म अपरिभाशित है। ये पेड़-पोधों की पूजा करते हैं .... आदि, आदि। इस तरह के प्रश्नों एवं शंकाओं को प्रोत्साहित करने वालों से अगर पूछा जाय - क्या, वे अपने विश्वास, धर्म आदि के बारे में जानते और समझते हैं ? यदि इस तरह के प्रश्न करने वाले सचमुच अपने विश्वास, धर्म के बारे में जानते हैं, तो उनके द्वारा आदिवासियों के बारे में इस तरह के लांछण लगाये जाने का औचित्य नहीं है और यदि उन्हें अपने बारे में पूरी जानकारी नहीं रखते है तो उन्हें समझाया जाना भी आसान नहीं है।
वैसे अध्यात्म एक गूढ़ विशय है जिसकी गहरार्इ तक कुछ ही लोग पहुँच पाते हैं। मुझे अध्यात्म जैसे गूढ़ विशय पर तनिक भी जानकारी नहीं है फिर भी प्रस्तुत शीर्शक के माध्यम से आदिवासियों पर हो रहे वौद्धिक और वैचारिक अवमूल्यन के प्रति लोगों का ध्यान आकृश्ट करने का मेरा छोटा सा प्रयास है। ध्यातव्य हो कि आदिवासी परम्परा में भी अध्यात्म की सारी बातें थीं और हैं, किन्तु सरसरी नजर से देखने पर पेड़-पौधे नजर आयेगें। अध्यात्मिक अवधरना में सबसे अधिक जरूरी है र्इश्वर की परिकल्पना एवं मान्यता। दूसरा महत्वपूर्ण अवयव है आत्मा या अन्तर्रात्मा। विद्वत्तजनों का कहना है कि आत्मा का परमात्मा के साथ आत्मिक संबंध जोड़ना ही अध्यात्मिकता का सार है। इस परिपेक्ष्य में प्रश्न उठता है - क्या, आदिवासी विश्वास, धर्म में र्इश्वर की परिकल्पना है अथवा नहीं ? उसी तरह आत्मा के संबंध में आदिवासियों की मान्यता किस प्रकार है ? इन तथ्यों को समझने के लिए परम्परागत उराँव (कुँड़ुख़) आदिवासी समाज में प्रचलित अनुश्ठानों एवं अवधारनाओं पर गौर किया जाना चाहिए तथा कुँड़ुख़ (उराँव) भाशा की निम्नांकित शब्दावली पर मनन-चिंतन किया जाना चाहिए :-
1. धरमे :- एका सवंग सँवसेन धर’र्इ आ:दिम धरमे अरा एका सवंग धरना जो:गे रअ़र्इ आ:दिम धरमे अर्थात वह षक्ति जो समस्त सृश्टि को संचालित करती है तथा वह शक्ति जो अनुकरण करने योग्य है, कुँड़ुख़ में धरमे (र्इश्वर) का यही अर्थ है। धरमे बी’र्इ।
2. धरती अयंग :- धरती अयंग। धरती माता। धरती अयंग बी’र्इ।
3. धरमी सवंग :- धरमे सवंग तरती चाजरका नेम्हा सवंग। धरमी सवंग बी’र्इ।
4. धरमे, धरती अयंग अरा धरमी सवंग :- आह्वान करते समय इन तीन प्रकार की शक्तियों (र्इश्वर, धरती माता एवं र्इश्वरीय शक्तियाँ/दृश्य-अदृश्य शक्तियाँ) को आह्वान किया जाता है।
5. सिरजरनी (प्रकृति) :- सिरजऱनी। सिरजन ननना अरा मनना सवंग अड्डा। नीन ख़ज्ज अरा ख़े:ख़ेल (मूल श्रोत सृजन का अर्थात सृजन करने वाली धरतीें एवं उसके अवयव) नु सिरजरना मंज्जा। ख़ज्ज-ख़े:ख़ेल ती परबस्ती मंज्जका (र्इश्वरीय कृपा से जन्में एवं बढ़े रूप में ही)। वह जो मानव द्वारा निर्मित न हो। प्राकृतिक, nature, natural.
5. मय्हदेव :- मया ननु (मया-दया करने वाला) देव, मय्याँ ता देव (उपर वाला देवशक्ति) मय्हा (दयालु) देव। मय्हदेव्स बेअ़दस।
6. परबर्इत :- परबस्ती ननु (पालन-पोशन करने वाली) मया (माया)। परबर्इत बी’र्इ।
7. चन्नदो-बी:ड़ी :- प्रकृति (सिरजरनी) में सूर्य, उर्जा एवं प्रकाश का शाश्वत श्रोत है।
8. करम देव :- करम पूजा में, करम के देव स्वरूप की पूजा होती है। कहीं भी हे करम पेड़ कहकर पूजा नहीं होती है। करम देव या करम राजा कहकर पूजा होती है।
9. चा:ला अयंग - चाल चिअ़उ अयंग। सरहुल के दिन पेड़ की छाया में तथा पेड़ की ओर रूख कर पूजा होती है किन्तु आह्वान् एवं मंत्रोचारण में किसी पेड़ के नाम से पूजा नहीं होती है। वहाँ पर धरमे एवं धरमी सवंग अर्थात र्इश्वर एवं र्इश्वरीय शक्तियों की पूजा होती है।
10. देबी अयंग :- दव ननु मे:द मलका मुक्का छाव नु संगरा चिअ़उ सवंग (अशरीरी, महिला रूपधारी अच्छार्इ करने वाली शक्ति स्वरूपा)। देव बी’र्इ। देव़बी’र्इ त्र देबी। देबी मड़ा।
11. पुरखा-पचबल :- पांच पीढ़ी तक के पूर्वज। कुँड़ुख़ परम्परा में मृत्यु के पश्चात् षरीर को दफना/जला दिया जाता है तथा मृतक की आत्मा को ए:ख़ मंक्खना (छाया भितराना) अनुश्ठान कर घर में स्थान दिया जाता है तथा उस आत्मा को पूर्वजों की आत्माा के साथ सम्मिलित होने या उस मृतक की आत्मा के लिए पूर्वजों के नाम पर अनुश्ठान किया जाता है। साथ ही विभिन्न अवसरों पर उनके नाम से तर्पन एवं भोग दिया जाता है। उराँव लोगों की मान्यता है कि र्इष्वर एवं उनके पूर्वज हमेशा उनकी मदद एवं देखभाल करते हैं।
12. जिया (हाँस) :- आत्मा, अन्तर्रात्मा। जिया दिम उंग्गी अरा जिया दिम पुल्ली। कुँड़ुख़ परम्परा में धरमें सवंग (सर्वशक्तिमान र्इश्वर) एवं जिया सवंग (अन्तर्रात्मा) सिर्फ इन्ही दो तत्वों को उंग्गु सवंग अथवा सामर्थ्यवान कहा गया है।
13. देव :- दव ननु मे:द मलका आल मलता आ:लो छाव नु संगरा चिअ़उ सवंग (बिना षरीर के पुरूश अथवा महिला रूप में अच्छार्इ करने वाली षक्ति)।
14. नाद :- नंद’उ मलता नंदना ननु सवंग (विनाश करने वाला या कश्ट देने वाला)। कुँड़ुख़ जीवन में कुछ लोग अपने हिस्से की सम्पत्ति से अधिक सम्पत्ति और ताकत अर्जित करने के लिए जीवात्मा/भटकती आत्मा की साधना कर अपने अपने वश में करते हैं तथा दूसरे को दुख पहुँचाने में उस नाद की मदद लेते हैं।
15. पद्दा :- गाँव। एकअम आ:लर ही पा:दा अड्डा दिम पद्दा तली। पद्दापँचा :- ग्रामसभा। एकअम आ:लर ही पा:दा अड्डा दिम पद्दा तली।
16. एड़पा :- घर। एकदद तंगहय उला एड़’र्इ अरा ओहारी ननी। लूरएड़पा :- लूर गे र्इड़’उ एड़पा।
17. अखड़ा :- अख़ना + खटना + अड्डा (खटअर अख़ना अड्डा/शारीरिक श्रम कर ज्ञान सीखने का स्थल तथा निर्णय करने का स्थल)।
18. धुमकुड़िया :- धुम-धुम कुड़िया। धुम-धुम नलना बे:चना अख़ना अड्डा (अनुशासित तरीके से जीवन जीने के लिए आवश्यक ज्ञान सीखने का स्थान), कुड़िया का अर्थ छोटा सा घर या केन्द्र अथवा सेन्टर होता है। दूसरी ओर गांव के बुजुर्ग धम्म-धुम नाचना-गाना को अनुशासनहीन तरीके से कार्य करना एवं सीखना समझते हैं और वर्जना एवं भर्त्सना करते हैं।)
19. पड़हा :- पड़ा (गाँव का समूह क्षेत्र) नु पा:ड़ा अरा पड़ा नुम पड़गरआ। इसका कार्य खून एवं वंश की शुद्धता एवं सुरक्षा।
20. बिसु सेन्दरा - बसा नना गे सेन्दरा। कर्इ पडहा मिलकर बिसु सेन्दरा का आयोजित किया करते हैं।
21. कुड़ुख़ :- कुड़ना + अख़ना ती कुड़ुख़ मंज्जा। (ओ:रे नु कुड़ना-मो:खना अख़’उर कुड़ख़र बा:तारर अरा आ:रिम नन्नारिन हूँ सिखाबा:चर। कुड़ना-मो:ख़ना अख़कत ख़ने कुँड़ख़त, कुड़ना-मो:ख़ना अक्खर ख़ने कुँड़ख़र, कुड़ना-मो:ख़ना अख़कन ख़ने कुँड़ख़न, कुड़ना-मो:ख़ना अख़कम ख़ने कुँड़ख़म, कुड़ना-मो:ख़ना अख़कय ख़ने कुँड़ख़य। (आदिकाल में किसी जंगल में सूखे बाँस के आपसी घर्शण से चीं ..... चीं .... - चीं .... चीं ... की आवाज निकलते-निकलते जो अद्भ्ाूद दृश्य (दावानल) नजर आया वह कु़ड़ुख़ भाशा में चीं .. चीं .. से चिच्च (अग्नि) कहलाया और जो अवशेश बचा वह चिन्द (राख) कहलाया। वह चिच्च से पूरा जंगल जलने लगा और पशु-पक्षी मरने लगे। चीं .. चीं .. से चिच्च कहने वाले लोग उन अधजले मांस को खाये और बाद में जानवरों के कच्चे मांस को आग में सेंककर खाने की विधि की खोज की तथा दूसरे समूह को भी सिखलाया। इस समूह द्वारा आग एवं आग में सेंककर खाने की विधि की खोज ने पूरे मानव समाज के जीने का तरीका बदल दिया और उनकी भाशा में वे कुड़ा अख़’उ यथा कुड़ा मो:ख़ा अख़’उ से कुड़ुख़ कहलाये। आशय है, कुड़ुख़ पुरखे, आग एवं आग में कच्चे मांस को सेंक कर खाने की विधि की खोज किये और उन्हीं के द्वारा दूसरे लोगों तक पहूँचा। इस तथ्य को व्यवहार में रखने हेतु कुँड़ख़ पुरखों ने डण्डा कट्टना अनुश्ठान में र्इश्वर के नाम से समर्पित चढ़ावे यानि अण्डा को आग में तपाकर (अतख़ा नु कुड़अर) उपस्थित पुरूशों के लिए प्रसाद स्वरूप वितरण किया जाता है, तत्पश्चात ही पूजा संपन्न होता है।)
22. उराँव :- उयुर + गण - उरागण - उरागण ठकुर (उराँव राजघराना)/उयुर + आँव - उराँव (हल चलाने वाले तथा जंगल में आग जलाकर खेत तैयार करने वाले), उर + आँव - उराँव/उरबस गही आँवा ती बछरका आ:लर (र्इश्वर की अग्नि वर्शा से बचे हुए लोग)।
23. ओल्लगी :- ओंग्गनन लग्गना, उलता अरा ओलता सवंगन लग्गना। कुँड़ुख़ संस्कृति में अभिवादन करते समय दोनों हाथ जोड़कर सिर नवाते हुए ओ’लगी कहा जाता है या बाँया हाथ से दाहिना हाथ को केहुनि से थोड़ा नीचे स्पर्श करते हुए दाहिना हाथ को उठाकर शीश नवाते हुए ओ’लगी कहा जाता है। ओल्लगी का शाब्दिक अर्थ ओंग्गनन लग्गना अर्थात सामने वाले व्यक्ति के अन्दर के सामर्थ्यवान को नमन करना। कुँड़ुख़ अध्यात्म एवं विश्वास में उंग्गु सवंग दो शक्ति को माना गया है - 1. सर्वशक्तिमान र्इश्वर 2. अन्तर्रात्मा। अभिवादन करते समय सामने वाले व्यक्ति के अन्तर्रात्मा को नमन किया जाता है।
24. सा:रना :- एम्मबा सा:रना, की:ड़ा सा:रना, उम्हें सा:रना - महसूश करना, आत्मसात करना, to feel & realise.
25. सरना :- स़़+र+न+आ - सिरजनन रम्फ ननु आ:लोन सा:रना दिम सरना/सरनन सा:रना दिम सरना। सर त्र गतिमान, प्राकृतिक। नलख सरना। सरना समाज। सरना स्थल। सरना माँ। ... आदि। सरना :- ’सिरजनन रम्फ ननु आ:लोन सा:रना दिम सरना। ’सरनन सा:रना दिम सरना। सा:रना त्र महशूस करना, अनुभ्ाूति, to feel & realise.
सरना त्र सर ़ ना। सरना गही सर बक्कमूली ही माने हिन्दी नु गतिमान अरा अंगरेजी नु mobility मनी। कुँड़ुख़ नु नलख सरना गही माने एकअम छेका-छछंद (विग्घ्न-बाधा) मझी नु हूँ आ नलख ही बेड़ा सिरे मुंज्ाुरना अख़तार’र्इ। र्इ लेखा र्इ सिरजरनी (प्रकृति) नु सिरजारका उरमी दिम तंगआ बेड़ा ताँड़का बेसे तंगआ बेड़ा अरा उल्ला खेप’र्इ। इस तरह जहाँ गति है वहाँ जीवन है और जहाँ जीवन है वहाँ गति है। ख़द्दी उल्ला चा:ला टोंका नु पुजा-धजा ननना अरा मनना नु पद्दा सियाँ ता उरमी आल-आ:लो ही दव कुना उज्जा-बिज्जा अरा उल्ला खेपआ गे ओहरा-बिनती ननतार’र्इ। इदी गे धरमे अरा धरमी सवंग ती गोहरारना मनी का तंगआ पद्दा सियाँ ता सँवसे सिरजन-बिरजन दव कुना उल्ला खेपअन नेकआ अरा मलदव आ:लो पददा सियाँ तरा अम्मबन कोरअन नेकआ। र्इ सिरजरनी नु ख़ेख़ेल, मेरख़ा, ता:का, चिच्च, चें:प (धरती, आकाश, हवा, अग्नि, पानी) उरमी दिम सवंग बि’र्इ। अर्थात सरना मात्र पूजा स्थल भर नहीं, बल्कि सरना एक परम्परागत आदिवासी जीवन पद्धति का सारांश है। पेड़-पौधा, जंगल-पहाड़ आदिवासी जीवन में एक गुरू एवं आराध्य का प्रतीक है। सरना आदिवासी धरम का यही कुँड़ुख़ मूलमंत्र है।
26. सँवसर :- सँवसे ़ सर त्र सँवसर। सँवसे त्र समस्त, सर त्र गतिमान, प्राकृतिक। किसी भी स्थापित धार्मिक आस्था का प्रतिनिधित्व नहीं करने वालों के लिए यह शब्द का प्रयोग हुआ है। आदिवासी समाज में खाशकर कुँड़ुख़ समाज में सर त्र गतिमान अथवा प्रकृति के अर्थ में सर से सरना या सर से सरहुल शब्द का प्रचलन, व्यापक हुआ है। माँ के कोख से जन्म लेने के बाद बप्तिस्मा लेकर र्इसार्इ हुआ जाता है। इसी तरह र्इस्लाम मानने के लिए अल्लाह, कुरआन शरीफ और पैगम्बर मोहम्मद को कबूल किया जाता है। इसी तरह हिन्दु कहलाने के लिए ब्राह्मणवादी व्यवस्था को स्वीकार करना पड़ता है। पर सँवसर कहलाने वाले वैसे लोगों का समूह है जो जन्म से ही अपनी प्राकृतिक दशा में हैं।
27. सरना आदिवासी धरम - दिनांक 11.11.2020 को झारखण्ड विधान सभा द्वारा झारखण्ड के आदिवासियों की परम्परागत आस्था एवं धार्मिक विश्वास को नाम दिये जाने तथा जनगणना सूची में धार्मिक आस्था कॉलम में शामिल किये जाने की वर्शों से लंबित मांग को पर सरना आदिवासी धरम नाम को सर्वसहमति से पारित किया और केन्द्र सरकार को जनगणना 2021 में धर्म कॉलम में षामिल करने हेतु भेजा गया।
इस तरह यह तथ्य है कि आदिवासियों की अपनी सभ्यता, संस्कृति, रीति-रिवाज, परम्परा, धर्म, अनुश्ठान इत्यादि सभी चीजें हैं। जरूरत है इसे समझने और आत्मसात करने की। र्इश्वर एवं र्इश्वरीय षक्तियाँ सबके लिए एक समान है। आवश्यकता है एक अच्छा पात्र बनकर अपनी अन्तर्रात्मा को परमात्मा के साथ संबंध स्थापित करने की। एक सच्चा आदिवासी इस संबंध को स्थापित करने के लिए अपने कार्य को र्इश्वर का कार्य समझकर र्इमानदारी एवं निश्ठा पूर्वक करने का प्रयास करता है। अध्यात्म का दरवाजा भी यहीं से खुलता है। अध्यात्म व्यक्ति को र्इमानदार, नीतिवान, नैतिकवान और चरित्रवान बनाता है जिसकी आवश्यकता समाज को है।
(शोध एवं संकलन : डॉ0 नारायण उराँव, सैन्दा, सिसर्इ गुमला, झारखण्ड)