KurukhTimes.com

धुमकुड़िया (एक मुक्त सामाजिक विद्यालय) Dhumkuriya (An Open Social School)

धुमकुड़िया: (एक पारम्‍परिक सामाजिक पाठशाला) : Dhumkuriya (A Traditional Social School) : परिचय :- धुमकुड़िया, उराँव आदिवासी समाज की एक पारम्परिक सामाजिक पाठशाला है। प्राचीन काल से ही यह, गाँव में एक शिक्षण-शाला के रूप में हुआ करता था, जो गाँव के लोगों द्वारा ही चलाया जाता था। समय के साथ यह पारम्परिक ग्रामीण पाठशाला विलुप्त होने की स्थिति में है। कुछ दशक पूर्व तक यह संस्था किसी-किसी गाँव में दिखलाई पड़ता था किन्तु वर्तमान शिक्षा पद्धति के प्रचार-प्रसार के बाद यह इतिहास के पन्ने में सिमट चुका है। कुछ लेखकों ने इसे युवागृह कहकर यौन-शोषन स्थल के रूप में पेश किया, तो कई मानवशास्त्री इसे असामयिक बतलाये हैं, किन्तु अधिकतर चिंतकों ने इसे समाज की जरूरत कहते हुए सराहना की है। आदिवासी परम्परा में मान्यता है कि - यह लयवद्ध तरीके से समाज के लोगों के लिए सामाजिक जीवन जीने की कला सीखने एवं कौशल विकास करने का केन्‍द्र है। (It is a traditional social rhythmic learning system and skill development centre for Children and Young among Oraon tribe.)

कुँड़ुख़ (उराँव) आदिवासी समाज में धुमकुड़िया एक ऐसी शाश्‍वत व्यवस्था थी जो किसी गांव या टोला के सभी लड़के-लड़की बच्चों के लिए (लिंग भेद रहित) होता था। ऐसा उदाहरण किसी भी देश या समुदाय में सामान्य रूप से प्रचलित नहीं दिखता है। वैसे भारतीय इतिहास में पुराने राजा-महाराजाओं के राजपाट में गुरूकुल नामक संस्था हुआ करता था, जिसमें सिर्फ शासक वर्गों के पुरूष बच्चों ही प्रवेश पाते थे। जन-साधारण के लिए वहाँ प्रवेश नहीं था अथवा वर्जित था।

 

पौराणिक व्यवस्था :- कई बुजूर्ग बतलाते हैं कि उनका बचपन गांव में बीता और मैट्रिक तक की पढ़ाई गांव में रहकर पूरा किये। उन दिनों गांव में लड़कों का समूह किसी एक जगह बैठा करता था और वहाँ पर एक बुजूर्ग द्वारा बच्चों एवं किशोर-किशोरियों को अपनी भाषा में कहानी एवं बुझवल बतलाया करते थे। इसी तरह जाड़ा के दिनों में कटे हुए फसल की रखवाली के लिए बना कुम्मबा में सोने जाते थे और वहाँ शादी गाना (जाड़ा मौसम का राग) गाने के लिए सीखते थे। अपने से बड़े उम्र वाले से मांदर बजाना सीखते थे। हल बनाना, छप्पर छारना लकड़ी का औजार बनाना आदि कार्य गांव में रहकर गांव के बड़-बुजूर्गों से सीखा जाता था। ऐसा शिक्षण-प्रशिक्षण गांव में अभी भी प्रचलित है। उन्होंने भी उसी समूह में रहकर गाना, बजाना एवं ग्रामीण नुत्य सीखा। परन्तु अब आधुनिक शिक्षा के प्रसार से ये तमाम ग्रामीण शिक्षा की चीजें विलुप्ति की ओर जा रही हैं। इसके स्थान पर मोबाइल में गाना और गूंगा डांस ने जगह ले रखा है, जो आदिवासी परम्परा एवं इतिहास के लिए एक चुनौती है।

एक महिला, अपने बचपन के समय की बातें याद करते हुए कहती हैं कि गर्मी के दिनों में सभी तरह के कार्य सिखलाये जाते थे। हमलोग सभी लड़कियाँ चटाई बनाने के लिए घेतला बीनती थीं। उसके बाद उससे चटाई बनाती थीं। कभी-कभी नेठो बनातीं, कोई-कोई झाड़ू बनाने हेतु कताई करती थीं। ये सब बड़े बुजूर्ग की देखरेख में किया जाता था।

(धुमकुड़िया नू हुरमी रकम घी उज्जना-बिज्जना गही प्रशिक्षण मना लगिया। ओरोत आःली तंगहय कुकोय परिया ता बेड़न ईयाइद ननर बई - एम जामों कुकेर, अयंग बगय, अज्जी बगय (सभी महिलाएँ) नेखअय एड़पन्ता ढाबा कोंहा रआ लगिया, अन्नू जेठे उल्ला बेड़ा घेतला एस्सा लइक्कम। ओंघोंन-ओंघोंन पिटरी सटना, बिंडो कामना, चलकी कामना गुट्ठी सिखिरआ दरा कमआ लइक्कम। एन्नेम बबा गर 5-6 झनर मन्न एख़ नू ओक्कर सनई मेःरन एःप ढेरआ लगियर अरा उगता-पगसीन छोलआा-कमआ लगियार। एकअम पुना उगता पगसी कमआ सिखिरउर पचगिर गने लग्गर की सिखिरआ कमआ लगियर। फग्गु-ख़द्दी गे पेल्लर एड़पन एःगर चेम-चेम ले उईय्या लगियर। इबड़ा गुट्ठीन एन इन्नेला घोखदन ख़ने आद ओन रकम ती धुमकुड़िया ता नलय बेसेम लग्गी।)

धुमकुड़िया का पतन क्‍यों और कैसे हुआ -    

वैसे धुमकुड़िया के पतन का सही-सही कारण तो अज्ञात है। पर गाँव समाज के लोगों से बातचीत करने पर कुछ ऐतिहासिक घटना क्रम प्रकाश में आता है। छोटानागपुर के महाराजा का पुराना किला झारखण्ड में राँची जिला के रातू थाना क्षेत्र में अवस्थित है। रातू महाराजा के समय काल में अंगरेजी हुकुमत तथा राजा-जंमीदार के अन्याय के खिलाफ कई आदिवासी आंदोलन हुए। वर्ष 1830-31 में कोलहान क्षेत्र में कोल विद्रोह हुआ तथा वर्ष 1830-31 का लरका आंदोलन हुआ। भारतीय इतिहास में लरका आंदोलन के इस वीर क्रांतिकारी नेता एवं उनके परिवार-कुटुम्ब के 150 से अधिक सदस्य एक ही दिन तथा एक ही जगह शहीद हुए। जिसे भारतीय इतिहास में नजर अंदाज कर दिया गया। 1832 का लरका आन्‍दोलन एक असहयोग आन्‍दोलन के साथ गुरिला आंदोलन भी था। लोग छोटानागपुर के महाराजा को लगान देना बंद की दिये थे स्थिति इतनी भयावाह थी। सिसई (गुमला) के जंमीदार परिवार के लोगों का कहना है कि उनके पूर्वजों को रातू महाराजा (छोटानागपुर के महाराजा) के लव-लश्‍कर (घोड़ा-हाथी) को एक महीना तक खिलाना पड़ा था। इसके बदले में महाराजा ने जंमीदारी के लिए 10 गांव दिये थे। अंगरेजी शासन के लिए पूरे यूरोप-अमेरिका में चुनौति का दौर था। इसी दौरान अंगरेजों ने एक नई युक्ति से काम किया वे सामानों का व्‍यापार के साथ बुद्धि का व्‍यापार भी आरंभ कर दिया। वे पूरे यूरोप-अमेरिका में चर्च की मदद से अंगरेजी स्‍कूल खोलने लगे और बच्‍चों को अंगरेजी पढ़ाने लगे तथा अंगरेजी पे लोगों को बाबू बनाने लगे। इसी क्रम में अंगरेजों द्वारा वर्ष 1834 में पहला स्कूल स्थापित किया गया। धीरे-धीरे अंगरेजों द्वारा कई स्कूल खोले गये। उसके बाद वर्ष 1900 में अमर शहीद बिरसा मुण्डा का आंदोलन हुआ। लोग अंगरेज सरकार और राजशाही-जंमीदारी व्यवस्था से लड़ रहे थे। इन सबके बीच अंगरेजी समय में आदिवासी जनमानस के बीच चर्च भी आया और प्राथमिक स्कूल एवं अस्पताल भी खोला गया। इसी क्रम में पुराना सिसई थाना क्षेत्र में 1936 में 05 प्राथमिक स्कूल चर्च के द्वारा खोला गया और अभी भी चल रहीं है। इन नई व्यवस्था की बातें एवं चीजें पौराणिक व्यवस्था से विकसित एवं नेत्रग्राह्य थीं। आदिवासियों के बीच जो दिखता है वही चलता है और जो नहीं दिखता है, वह विलुप्त हो जाता है। पौराणिक धुमकुड़िया में लेखन कला का आभाव था, जो वर्तमान स्कूल के आने के बाद विलुप्त होने का कारण बना।

इन नई व्यवस्था वाले शिक्षा संसाधन के सामने पारम्परिक पाठशाला धुमकुड़िया, नहीं टिक पायी, क्योंकि आधुनिक स्कूल में नेत्र ग्राह्य शिक्षा सामग्री अर्थात लिखने-पढ़ने का तरीका था और यह स्कूल रोजगार से जोड़ता था। ऐसी स्थिति में लोग नई व्यवस्था की ओर मुड़ने लगे। इस नई व्यवस्था ने लोगों को शिक्षा और रोजगार से जोड़ा पर अपनी मिट्टी की पहचान से दूर करने लगा। इस तरह समय काल के अंतराल में आदिवासी आंदोलन होते रहे और झारखण्ड राज्य का भी गठन हो गया। इधर भारत सरकार एवं झारखण्ड सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत मातृभाषा शिक्षा लगाने जा रहा है।

अब समय हैं गाँव स्तर पर स्कूल के साथ धुमकुड़िया भी स्थापित हो तथा धुमकुड़िया में श्रुति साहित्य के साथ लिखित साहित्य को भी शामिल किया जाय और आदिवासी समाज तथा गांव में Pre-school education में राजकीय स्तर पर उरांव (कुड़ुख़) भाषी क्षेत्र में धुमकुड़िया को भी शामिल किया जाए। ऐसा होने पर समाज की भाषा और संस्कृति दोनों संरक्षित तथा सवंर्द्धित हो पाएगी।

समाज में धुमकु्ड़िया का पतन के कारण पर एक लोककथा इस प्रकार है –

किसी समय धुमकुड़िया से घर लौटने के क्रम में दो बच्‍चों (एक ही परिवार के भाई-बहन) को दो बाघ द्वारा उठा कर ले जाया गया तथा गांव वालें के खोजबीन के बाद भी वे बच्‍चे नहीं मिले। तब से लोग ग्राम देवता की इच्‍छा का संकेत मानकर अपने बच्‍चों को धुमकुड़िया भेजना छोड़ दिये। पर वर्तमान में धुमकुड़िया की आवश्‍यकता को देखते हुए इसे भविष्‍य में आने वाले खतरे से बचने के साथ पुनर्गठन करना ही होगा। अर्थात बच्‍चों की शिक्षा एवं उन्‍नति के लिए अभिभावक की जागरूकता तथा जिम्‍मेदारी को आवश्‍यक बनाना होगा। (यह उद्धरण टीआरआईके पुस्‍तकालय की एक पुस्‍तक के धुमकुड़िया शीर्षक से है।)

धुमकुड़िया का पुनर्गठन एवं सशक्तिकरण क्यों ?

            वर्तमान में, गाँव-घर में रह रहे लोग अपने को कमजोर और दिशाहीन समझने लगे हैं। क्या, हमारे पूर्वज कमजोर और दिशाहीन थे ? क्या, हम सभी कमजोर और दिशाहीन हैं ? इन प्रश्‍नों का उत्तर ढूँढ़ने के लिए हमें स्वयं से प्रश्न करना होगा - ‘‘क्या, जिस समय हमारे पूर्वजों के पास स्कूल-कालेज, थाना-पुलिस, कोर्ट-कचहरी, मंदिर, मस्जिद, गिरजा आदि नहीं पहूँचा था, उस समय हमारे पूर्वजों ने किन शक्तियों के बल पर अपने समूह को एकसूत्र में बांधकर रखा ? क्या, हमलोग उन ताकतों को संजोकर रख पाये हैं ? क्या, हम अपने पूर्वजों के धरोहरों को सुरक्षित रख पाये हैं ? दुनियाँ के सामने खड़े होने के लिए हमें उन शक्तियों का सशक्तिकरण करना होगा। हम सभी के पूर्वजों ने परम्परागत आदिवासी कुँड़ुख़ समाज को समूह में बांध कर रखने एवं सामाजिक धरोहरों को अगली पीढ़ी तक पँहूचाने के लिए सात पहरेदार शक्तियों को चुना और उसके माध्यम से विष्व के अनेकानेक बदलाव एवं दबाव (राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक) के बीच समाज को बचा कर रख पाये। इस सामाजिक पाठशाला में प्रशिक्षित होकर धमसरका/ सुसंस्कृत व्यक्ति बनना ही धुमकुड़िया का उदेश्य रहा है।

ये शक्तियाँ हैं -

1. अखड़ा

2. धुमकुड़िया

3. चाःला अयंग (चाःला अयंग/सरना माय)

4. देबी अयंग (गवाँ देवती)

5. पद्दा सबहा (गाँव सभा/ग्राम सभा)

6. पड़हा/पड़हा-पाट

7. बिसु सेन्दरा आदि।

परम्परागत आदिवासी समाज में इसकी व्याख्या इस प्रकार है -

1. अखड़ा – अ + + ड़ा --- अख़आ (जानना) गे खटना (शारीरिक श्रम करना) अरा सकिस्‍ता नु रअ़अर (मर्यादा एवं अनुशासन के अन्‍तर्गत) अख़कन एःदना दरा संगोठ नु नेवई ननना (न्‍याय करना) अड्डा। शारिरिक श्रम कर सीखने का स्थल एवं अनुशासन बनाये रखने तथा समाज में न्याय स्‍थापित करने का स्थल। त्‍योहार के दिन गांव का अखड़ा में 4 पीढ़ी के लोग अपनी मर्यादा अन्‍दर एक साथ नाचते-गाते हैं। 

2. धुमकुड़िया - यह गाँव की एक पारम्परिक सामाजिक पाठशाला है। प्राचीन काल से ही यह गाँव में एक शिक्षण संस्था के रूप में हुआ करता था, जो गाँव के लोगों द्वारा ही चलाया जाता था। धुमकुड़िया में बचपन से जवानी तक मानव जीवन के लिए उपयोगी ज्ञान प्रशिक्षित होकर निखरा हुआ व्यक्ति को धमसरका आल (प्रशिक्षित एवं सुसंस्‍कृत व्‍यक्ति) अर्थात Trained Adult कहा जाता था। बच्‍चों को जब खेल-खेल में गाना-बजाना-नाचना सीखाना होता है तो बच्‍चों को कहा जाता है - कला, धुम ताअ़ बेःचके / लगे धुम ताअ़ बेःचा। दूसरे शब्‍दों में कहें कि वह पद्धति या माहौल जहां बच्‍चे बचपन में खेल-खेल में गाना-बजाना-नाचना सीख करते हैं। कुड़िया का अर्थ छोटा घर अथवा केन्‍द्र होता है। इस प्रकार - धुम ताअ+ कुड़िया शब्‍द में ताअ का लोप होने पर धुमकुड़िया शब्‍द बना। दरअसल ताअ़ ध्‍वनि प्रेरणार्थक क्रिया का मजही लटख़ु (मध्‍यमा प्रत्‍यय) है। यह मध्‍यमा प्रत्‍यय, कुंड़ुख़ भाषा में प्रेरक अर्थात सीखलाने वाले का बोधक है। यहां धुमकुड़ि‍या शब्‍द ननरकी तिंगिर’उ को सूचित करता है। इस तरह धुमकुड़ि‍या वह है जहां बच्‍चे अपने जीवन के आरंभिक समय में गाना-बजाना-नाचना सीखते हुए कठिन रास्तों से गुजर कर अपने व्‍यक्तित्‍व में निखारपन लातें है और धीरे-धीरे धमसरका अवस्‍था की ओर बढते हैं, वह केन्द्र या छोटा घर कुड़िया होता है। इसी तरह से गांव में जब कभी नवजवान लडके-लडकियां अखडा में लय-ताल के साथ नाचते गाते हैं तो बडे बुजूर्ग लोग प्रशंसा करते हुए कहा करते हैं - इन्‍ना गा जोंखर-पेल्‍लर अकय दव बेचा लगि‍यर धुम्‍मधुम्‍म खरख़ा लगिया। धुम्‍म-धुम्‍म ख्ररख्नना अरा बे:चना का अर्थ - अनुशासित तरीके से नाच-गान करना। वहीं पर जब लडके-लडकियां अखडा में लय-ताल को बिगाडते हुए नाच-गान करते हैं, तो बुजूर्ग लोग मना करते हुए कहते हैं नीम नला-बेचा बल्‍ला लगदर, धम्‍मधुम्‍म खरख़ा लगी। इस प्रकार जहां धम्‍म-धुम्‍म ख्ररख्नना अरा बे:चना का अर्थ अनुशानहीन तरीके से अथवा राग-रंग के विपरित नाच-गान करना एवं सीखना समझा जाता है। वहीं पर धुम्‍म-धुम्‍म ख्ररख्नना अरा बे:चना का अर्थ - अनुशासित तरीके से नाच-गान करना एवं सीखना होता है। धुम्‍म-धुम्‍म + कुड़िया का अर्थ वैसा स्‍थल या केन्‍द्र जहां अनुशासित तरीके से नाच-गान करने एवं सीखने की गूंज उठती हो। इस तरह कहा जा सकता है कि धुम ताअ+ कुड़िया से धुमकुड़िया शब्‍द बना है। बच्‍चा जब गाना-बजाना-नाचना सीखता है तो इस तरह के शब्‍द का प्रयोग किया जाता है। इस धुमकुड़िया का धुम Pre education या Play School का परिचायक है तथा धुम में कुड़िया जुड़ने से  बढ़ते उम्र के साथ Boys and girls education में परिवर्तित हो जाता है जो धुमकुड़िया ती उरूख़का धमसरका आल (प्रशिक्षित एवं सुसंस्‍कृत व्‍यक्ति) बनता है। ठीक इसके विपरीत थमसरका का अर्थ सभी तरह से थका हुआ या हारा हुआ या दिवालिया घोषित व्यक्ति होता है।

3. चाःला अयंग (सरना माय) - चाल चिअ़उ अयंग। गाँव की विशेष दैवीय शक्ति जहाँ सरहूल के अवसर पर विशेष पूजा-अर्चना, गाँव के सभी लोगों द्वारा मिलकर किया जाता है। थान = स्थल।

4. देबी अयंग (देबी अयंग अड्डा) - दव ननु मेःद मलका, अयंग छाव नु संगरा चिअ़उ सवंग। देवाँ/देव सवंग तली। देवाँ बि= देबी। वैसा पूजा स्थल, जहाँ स्त्री-पुरूष, युवक-युवतियाँ, बच्चे सभी जाया करते हैं। थान = स्थल। हो भाषा में दव ननु मेःद मलका सवंग को देंवाँ कहा जाता है तथा अनिष्टकारी को दाँड़ी कहा जाता है। कुँड़ख़ में अनिष्टकारी शक्ति को नाद कहा जाता है। अंगरेजी में देव या देवाँ को Good spirit तथा नाद या दाँड़ी को Bad spirit कहा जाता है।

5. पद्दा सबहा (गांव एवं गांव सभा) - गाँव की सभा। सबुति (प्रमाण) पुराबअ़ना मलता सबुति चिअ़ना अड्डा।

   पाट ओक्कना - वयस्कों को विशेष ज्ञान सीखने हेतु गुरू परम्परा में शामिल होना हो़ता था।

6. पड़हा - पड़हा का अर्थ पड़ा नु पाःड़ा अरा पड़ा नु पड़गरआ। कई गाँवों मिलकर एक पड़हा का गठन किया गया है। पड़हा का कार्य - अपने कबिला को बाहरी दबाव से बचाना तथा कबिलाई समाज के अन्दर अनुशासन बनाये रखना है एवं रक्त की शुद्धता को बरकारर रखना।

7. बिसु सेन्दरा (बसा नना गे सेन्दरा) - रूढ़ी परम्परावादी सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत बिसु सेन्दरा एक उच्चतम सामाजिक तथा न्यायिक सभा है। जब किसी मामले का निस्पादन गांव सबहा तथा पड़हा स्तर पर नहीं होता था तब 12 वर्ष में होने वाला यह विशेष सबहा जो परम्परागत कुँड़ुख़ समाज के अन्दर एक उच्चतम सामाजिक तथा न्यायिक सबहा है का आयोजन होता था। इस बिसु सेन्दरा का निर्णय सबों को मान्य होता था और यदि जो वहां के सामाजिक निर्णय को नहीं मानता था तथा जो समाज हित में कलंकित रहा हो, वैसे लोगों का सामुहिक सेन्दरा हो जाया करता था। परन्तु धीरे-धीरे वह मानव सेन्दरा प्रथा समाप्त हो गयी।

गाँव की वर्तमान समस्या के समाधान हेतु इन शक्तियों को फिर से जोड़ने एवं स्थापित करने की आवश्यकता है।

आज के दौर में समाज को निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ने होंगे :-

1. वर्तमान समय में सरकारी नौकरी पाने के लिए कुँड़ुख़ भाषा में परीक्षा लिखना पड़ता है। ऐसे में यदि हमारे बच्चे परीक्षा में पास नहीं करेंगे तो उन्हें नौकरी कैसे मिलेगी ? क्या, हम इसके लिए तैयार हैं ?

2. हमारे बच्चे माँ-पिताजी एवं बुजुर्गों का कहना नहीं मानते हैं, क्यों ?

3. हमारे बच्चे नशाखोरी एवं बुरी आदत की ओर जा रहे हैं, क्यों ?

4. हमारी मातृभाषा एवं नेगचार मिटते जा रहा है, क्यों ?

5. हमारी परम्परा एवं पुरखों का आदर्श कैसे बचेगा ?

6. हमारे बच्चे पढ़ाई-लिखाई में कैसे आगे बढ़ेंगे ?

7. हमें दूसरे लोग निम्नतर समझते हैं, क्यों ?

8. अखड़ा, क्यों सूना हुआ ?

9. धुमकुड़िया, क्यों मिट गया ?

10. पड़हा, क्यों नहीं बैठता है ?

विकसित मनुष्य की आवश्‍यक आवश्‍यकता :-

1. रोटी 2. कपड़ा 3. मकान 4. स्वास्थ्य 5. शिक्षा 6. अध्यात्म।

अथवा

1. रोटी 2. कपड़ा 3. मकान 4. स्वास्थ्य 5. शिक्षा 6. रोजगार।

गाँव की समस्या एवं समाधान के उपाय :-

उपरोक्त समस्या के समाधान हेतु अंतिम तीन प्रष्नों का उत्तर ढूँढ़ना ही समस्या के समाधान का द्वार खोलता है। पूर्वजों ने वर्षों के अनुभव के आधार पर यह मार्ग तैयार किया था, किन्तु हम सबों ने इसे त्यागकर भारी भूल की और अब हमें पछतावा हो रहा है। वर्तमान भूमण्डलीकरण के दौर में अपने गांव-समाज को आधुनिक व्यवस्था को अपनाने के साथ अंतिम तीन प्रष्नों के उत्तर के अनुरूप चलना पड़ेगा तभी समाधान निकलेगा।

समाधान के उपाय इस प्रकार हो सकते हैं

1. ग्राम सभा (पद्दा सबहा) को सबल और प्रगतिशील बनाना।
2. पड़हा को सबल और प्रगतिशील बनाना।
3. अखड़ा फिर से सजे, अखड़ा फिर से गहजे। पद्मश्री डा0 रामदयाल मुण्डा जी कहा करते थे - जे नाची से बाची।
4. धुमकुड़िया पुनर्गठित हो। डा0 मुण्डा जी की स्वप्न था - अखड़ा के पास ही  एक धुमकुड़िया हो, जहाँ पुस्तकालय एवं दैनिक समाचार पत्र के साथ प्राथमिक उपचार की सामग्री भी हो। धुमकुड़िया से शिक्षित व्यक्ति को धमसरका आल अर्थात Trained person या कठिन मेहनत से तैयार हुआ अथवा तप कर निखरा हुआ व्यक्ति। गांव स्तर पर शिक्षा एवं स्वास्थ्य में सामंजस्य तैयार करना होगा और आज के डिजिटल युग में ऐसा संभव हो सकता है। इसके लिए बजन मशीन, डिजिटल ब्लडप्रेसर मशीन, पल्स आक्सीमीटर मशीन और थर्मामीटर आदि उपकरणों की आवश्यकता होगी। इन उपकरणो के माध्यम से थोड़ा सा प्रशिक्षण देकर लोगों को जागरूक किया जा सकता है। इस जागरूकता का फायदा जरूरत मंद लोगों को समय रहते अस्पताल पँहुचाया जा सकता है।

5. हमारे भाई-बहन अनुसूचित जनजाति प्रमाण पत्र (आदिवासी) के माध्यम से आगे बढ़ रहे हैं किन्तु जिसके सहारे वे आगे बढ़ रहे होते हैं उन सहारों को मुड़कर नहीं देख पा रहे हैं। यदि आगे बढ़े हुए लोग अपनी कमाई का एक प्रतिशत हिस्सा गाँव के धुमकुड़िया को दान करें तो शायद गाँव की समस्या का समाधान हो जाय। क्या, आदिवासी ऐसा करने की इच्छा रखते हैं ? यदि, इच्छा पखते हैं तो इस कार्य को आगे बढ़ाएँ।

धुमकुड़िया के पुनर्गठन का उदेश्‍य :-

1. भाषा-लिपि, संस्कृति, परंपरा, रीति-रीवाज आदि की रक्षा।

2. ग्रामीण शिक्षा के माध्यम को माध्यम बनाकर वर्तमान शिक्षा की उँचाई तक पँहुचना।

3. कृषि एवं वन आधारित रोजगार उन्मुख शिक्षा।

4. सामाजिक नेतृत्व के लिए लोगों को तैयार करना।

5. सरकार द्वारा संचालित कार्यक्रमों के प्रति लोगों में जागृति लाना।

6. स्वास्थ्य जनशिक्षा का प्रचार-प्रसार।

7. ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का अवसर दिलाना एवं प्रचार-प्रसार करना।

संरचना :-

धुमकुड़िया के सदस्यों को तीन वर्गो में विभक्त किया जाय -

1. 4था वर्ष से 6ठा वर्ष तक - लेदका तूड़ + (Pre Dhumkuriya  age / Nursery).

2. 7वां वर्ष से 11वां वर्ष तक -  चेण्‍ठा तूड़ (Early Dhumkuriya  age).
3. 12वां वर्ष से 16वां वर्ष तक - चेंड़ा तूड़  (Mid Dhumkuriya  age).
4. 17वां वर्ष से शादी होने तक – कोहां तूड़ (Young Dhumkuriya  age).  

जैसा कि हम सभी देख समझ रहे हैं धुमकुड़िया प्रवेश का समय 7वें वर्ष किया जाना है परन्तु धुमकुड़िया के सामने यदि छोटा बच्चा आए तो उसे दूर नहीं किया जा सकता है। अतएव उसे Pre nursery या Nursery की तरह लेदका तूड़ की गिनती में रहेगा। आरंभिक दौर में धुमकुड़िया में लिंग भेद नहीं होता है। परन्तु जैसे-जैसे उम्र बढ़ता है वैसे-वैसे सामाजिक जिम्मेदारी भी बढ़ती है। बड़े उम्र के लड़कियों के लिए पेल्लो एड़पा की अलग व्यवस्था होती है, जहाँ लड़को या मर्दों का प्रवेश वर्जित किया गया है। पेल्लो, वैसे बच्चियों को कहा जाता है जिसका मासिक धर्म शुरू हो जाता है और उसे एक समारोह या अनुष्ठान के माध्यम से पेल्लो एड़पा मंक्खना (युवती गृह प्रवेश) नेग किया जाता था। बअ़नर एका कुकोय मुर्ख़या आद पेल्‍लो मंज्‍जा अरा एका कुकोय मल मुर्ख़या आद मड़िख़या। मुर्ख़ना का अर्थ मासिक धर्म शुरू होना है। अर्थत जिस लड्की का मासिक धर्म आरंभ होता है वह युवती स्‍वस्‍थ्‍य रहती है तथा जिसका मासिक धर्म नहीं होता है वह अस्‍वथ्‍य रहती है। कुंडुख़र फग्‍गु खंडरका ख़ो:ख़ा बअ़नर - अक्‍कु ख़े:ख़ेल मुर्ख़या लगे ख़े:ख़ेल बेंज्‍जा गे सपडा़रओत। यहां मुर्ख्नना शब्‍द मुरपा पूंप (फग्‍गु में पलाश फूल लाल रंग लिये हुए रहता है) से आया है जो ख़ेखेल बेंज्‍जा (सरहूल में सरई फूल पीला रंग लिये हुए) के पहले मुरपा फूल धरती में लाल रंग से शोभित करता है। फग्‍गु खंडरका ख़ो:ख़ा अर्थात फगुआ के बाद घर का बीज निकाला जाता है और खेती के लिए घर का बीज नेग के लिए बोया जाता है। इस नेग के बाद ही किसी दूसरे गांव के व्‍यक्ति का पानी पिया जाता है। किसी किसी गांव में फग्‍गु ख़द्दी होता है, तब जिस गांव में फागुन सरहुल तक बुआई का बीज नहीं निकाला हुआ रहता है, वैसे गांव-परिवार के लोग दूसरे गांव मेहमान जाने पर वे कुंआ का पानी नहीं पीते वल्कि वे नदी का झरना का पानी पीते हैं। सामान्‍य रूप से ख़ेखेल बेंज्‍जा के बाद खेत में नया बीज डाला जाता है। यह नेगचार किसान का खेती से आध्‍यात्मिक लगाव तथा जुड़ाव को दर्शाता है।

यह पेल्लो एड़पा धुमकुड़िया कैम्पस में अलग से एक व्यवस्था होती थी। पूर्व में यह घर कहीं-कहीं किसी विधवा औरत के घर पर भी हुआ करता था जिससे उस वृद्धा को लोगों का सहारा भी मिलता था। इसी तरह लड़कियों के लीडर को पल्लो कोटवार तथा लड़कों के लीडर को जोंख़ कोटवार कहा जाता है। कई लेखक धुमकुड़िया को जोंख़ एडपा कहते हैं, पर यह सही नहीं है। धुमकुड़िया में लड़के एवं लड़कियाँ समान रूप से सहभागी हैं परन्तु पेल्लो एड़पा में उम्र के के दृष्टिकोण से एक अनुशासनात्मक अलगाव है, जो सामाजिक सुरक्षा की नियम से अनुचित नहीं है।

उम्र बढ़ते के साथ जब किसी लड़के या लड़की का बेंज्जा (विवाह) निर्धारित हो जाता है, तब उस लड़के या लड़की को धुमकुड़िया से विदाई की जाती है। यहाँ पठन-पाठन का कार्य कोहाँ तूड़ (सिनियर वर्ग) के छात्रों द्वारा किया जाना चाहिए। वर्तमान में इसे एक अनुशिक्षक के तौर पर किसी जानकार व्यक्ति को ग्राम सभा द्वारा चयनित किया जा सकता है। समय की मांग के अनुसार सभी सदस्यों को यह आजादी होगी कि वे शनिवार एवं रविवार को छोड़कर अपने सुविधा के अनुसार ही धुमकुड़िया में शामिल होंगे। अर्थात वे शनिवार एवं रविवार आवश्यक रूप से धुमकुड़िया के कार्यक्रम में शामिल हों। धुमकुड़िया को कुछ लोगों ने युवा गृह या अंगरेजी में Dormitory (श्यनागार) कहा करते हैं जो निश्चित रूप से नकारात्मक एवं अमान्य है, क्योंकि 18 से 40 वर्ष की आयु वाले लोगों के लिए युवा शब्द का व्यवहार होता है। यह युवक-युवतियों के सोने का घर नहीं है। यह बचपन बचपन एवं लड़कपन सँवारने का केन्द्र है।

पाठ्यक्रम :-

1. गीत, नृत्य-संगीत, कहानी, कविता, रीतिरिवाज, परंपरा, नेगचार आदि।

2. वर्तमान शिक्षा पद्धति का पाठ्यक्रम (कुँड़ुख़, हिन्दी, अंग्रेजी, गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान आदि)।

3. सरकार के विभिन्न ट्रेनिंग प्रोग्राम में शामिल होना आदि।

समय :-

पारम्परिक पाठशाला एवं आधुनिक पाठषाला को एक साथ जोड़ने हेतु धुमकुड़िया संचालन के लिए संध्या 6 बजे से रात्रि 9 बजे तक का समय उपयुक्त है क्योंकि संध्या वेला में खेतिबारी या आधुनिक पाठशाला से जुड़े, दोनों तरह के बच्चे समय निकाल सकेंगे। वैसे वर्तमान समय में UNICEF एवं राज्य सरकार एवं के देखरेख में आंगनवाड़ी केन्द्र प्रत्येक गांव या कस्बा में चलाया जा रहा है, जो दिन-दोपहर में चलता है। इसलिए धुमकुड़िया के संचालन का समय निर्धारण गांव वाले युवक-युवतियाँ अपने सुविधानुसार तय कर सकते है।

राज्‍य सरकार की नई शिक्षा नीति 2020 के अनुपालन में पूर्वशिक्षा कार्यक्रम के अन्‍तर्गत अदि 4 से 6 वर्ष के बच्‍चों के देखभाल या आरंभिक शिक्षा हेतु आंगनवाडी की तरह धुमकुड़िया के संचालन का समय निर्धारण सुबह 9 बजे से 12 बजे रखा जा सकता है अथवा समाज के लोग परिस्थिति के अनुसार समय निर्धारण करें।

समाज में धुमकुड़िया का प्रभाव अथवा प्रचलन कम होने या विलुप्त होने का कारण एक लोककथा इस प्रकार हैं कि किसी समय में धुमकुड़िया स्थल से दो बच्चे को एक जोड़ा बाघ द्वारा उठा कर ले जाया गया और गांव वालों के साथ मिलकर खोजने के बाद भी वह दोनों बच्चा नहीं मिला। तब से लोग ग्राम देवता की इच्छा एवं संकेत मानकर अपने बच्चों को धुमकुड़िया भेजना छोड़ दिये। पर वर्तमान में धुमकुड़िया की आवश्यकता को देखते हुए इसे भविष्य में आने वाले खतरे के लिए पूर्व से ही तैयारी रखने का इशारा समझकर इसकी सुरक्षा के उपाय के साथ पुनर्गठन करना होगा। अर्थात बच्चों की शिक्षा एवं उन्नति के लिए अभिभावक की जागरूकता तथा जिम्मेदारी को आवश्यक बनाना होगा। 

संचालन व्यवस्था :-

1. गाँव स्तर पर -

यह सिर्फ गाँव के युवक-युवतियों का संगठन होगा तथा इसे गांव वाले मिलकर चलाएंगे। समाज की ओर से इसके लिए एक पारा शिक्षक/अनुशिक्षक/जोंख़ मुद्धा (Boys monitor) पेल्लो मुद्धा (Girls monitor) चुने जाएँ। सरकार, इसके संचालन में मदद करे। संचालन समूह इस प्रकार होनी चाहिए - धुमकुड़िया बेल, धुमकुड़िया देवान, धुमकुड़िया भंडारी, जोंख़ कोटवार, पेल्लो कोटवार, पाटगुरू, धुमकुड़िया सवंगिया।

2. राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय से जोड़कर - कई गांव या कई पहा मिलकर National Institute of Open School (NIOS)  जुकर धुमकुड़ि‍या खुला विद्यालय (Dhumkuriya Open School) चलाया जाना चाहिए, जिससे स्‍कूल से वंचित बच्‍चे तथा नौयुवक अपनी शिक्षा पूरी कर सकें अर्थात From Dhumkuriya to Modern Education.

3. केन्‍द्र सरकार या राज्‍य सरकार की जनजातीय कल्‍याण एवं शिक्षा योजना के अन्‍तर्गत प्रत्‍येक धुमकु‍ड़ि‍या के लिए एक पारा शिक्षक / अनुशिक्षक के जैसे जोंख़ ग‍ढ़िया‍ (Boys trainer) या पेल्लो ग‍ढ़िया‍ (Girls trainer) का चुनाव कर आर्थिक मदद किया जाना चाहिए जिसे गांव के संचालन समूह के देखरेख में संचालित किया जाएगा इन जोंख़ ग‍ढ़िया‍ या पेल्लो ग‍ढ़िया‍ का चयन ग्राम सभा दवारा 5 वर्ष के लिए किया जाएगा और यदि किसी प्रकार की गड़बड़ी पाये जाने पर ग्राम सभा दवारा नये सिरे से चयन किया जा सकेगा तथा इसे संबंधि‍त जिलाधिकारी को सूचित किया जा सकेगा।

आय के श्रोत -

1. मासिक सहयोग राशि से।

2. साप्ताहिक सहयोग राशि से। जैसे - मुठा चावल।

3. वार्षिक ग्रामीण सहयोग से।

4. सामूहिक खेती एवं वनोत्पादन से।

5. समाज सेवी संस्थाओं एवं समाज सेवियों के दान से।

6. सरकारी मदद से।

गाँव की शक्तियाँ :-

पद्दन ख़ोंड़ना अरा संभड़ाअ़ना सवंग (पंचे गोटंग गुरूवट मन्तरा):-

1. अखड़ा - ओरमर गे।

2. धुमकुड़िया - मल बेंजेरका जोंख़र-पेल्लर गे।

3. चाःला थान (चाःला अयंग अड्डा) - ओरमर गे, पहें पद्दा ता चाःलो लेखआ।

4. देबी थान (देबी अयंग अड्डा) - ओरमर गे।

5. पद्दा सबहा (ग्राम सभा) - सबुति उइना अरा चिअ़ना अड्डा, गाँव की सभा।

6. पड़हा - ओरमा सेयानर गे।

7. बिसु सेन्दरा - कई पड़हा मिलकर की गई विशेष सभा।

वर्तमान गांव की आवश्यकता :-

1. प्राथमिक उपचार का साधन (First aid)

2. पुस्तकालय (Library)

3. पाठशाला (School) - पारंपरिक (Conventional) एवं आधुनिक (Modern)

4. दूरसंचार का साधन (Tele-communication)

5. खेलकूद एवं मनोरंजन का साधन (Sports & entertainment)

धुमकुड़िया हेतु संसाधन की आवश्‍यकता :-

1. प्राथमिक उपचार का साधन (First aid) - साधारण दवाईयाँ, बजन मशीन, डिजिटल ब्लडप्रेसर मशीन, पल्स आक्सीमीटर मशीन और थर्मामीटर।

2. पुस्तकालय (Library) - दैनिक समाचार पत्र, पुस्तक, पत्रिका।

3. पारम्परिक (Conventional)  एवं आधुनिक (Modern) पाठशाला हेतु संसाधन।

4. दूरसंचार का साधन (Tele-communication) - रेडियो, टेलिविजन एवं इन्टरनेट।

5. खेलकूद एवं मनोरंजन का साधन (Sports & entertainment) - हॉकी, फुटबाल, क्रिकेट, तीरंदाजी तथा मांदर, ढोल, नगाड़ा, झांझ आदि।

6. परम्परागत खेलकूद एवं सांस्कृतिक विरासत का पुनर्रावलोकन (Traditional sports & cultural rehabilitation).

शोध संकलन :-
डा. नारायण उराँव

संयोजक - अद्दी अखड़ा, राँची                   
झारखण्ड, मो0: 9771163804                                                                                              दिनांक : 31 मार्च 2022 

Sections