KurukhTimes.com

बरा घोखदत का – कुंडुखर गहि, एज्जरना एकासे परदा उंगी?

हमारी सामाजिक एकता टूट रही है क्योंकि - 1.आज हमारी पड़हा,धुमकड़िया,अखड़ा, चाला-टोंका, पंचा, मदाइत, कोहा-बेंज्जा,कुंडी आदि की समृद्ध परंपरा छिन्न-भिन्न हो गई है. फलतः,समाज के सभी लोगों को जोड़े ऱखने की जो एकजुट, मजबूत पुरखा परंपरा कायम थी, वह कड़ी व सामाजिक एकजुटता की लय कहीं टूट गई लगती है.ऐसी हालत में अब हम क्या कर सकते हैं? आइए मिलकर सोचें !

2.    सबसे पहले तो यह जानना जरूरी है कि हमारा अखड़ा मात्र मनोरंजन का केन्द्र नहीं था बल्कि सामाजिक एकजुटता व एक दूसरे के दुख-तकलीफों को जानने, समझने, महसूसने का भी केन्द्र था. आज अखड़ा टूटने से कुँड़ुख लोग संवादहीनता की स्थिति में आकर एक दूसरों की तकलीफों को आत्मीय ढंग से नहीं समझ रहे हैं, उन्हें अपनापन नहीं दिखा पा रहे हैं. फलतः, एक दूसरे के बीच अजनबियत, अविश्वास, अपरिचय, ईर्ष्या-द्वेष, हिंसगा-पोंटगा व आपसी सामाजिक दूरी बढ़ती जा रही है. इसे कैसे रोकें और सामाजिक एकजुटता कोनिरंतर कैसे बनाएँ, कैसे बढ़ाएँ?

3.    अखड़ा में नाचने की परंपरा नहीं रहने से हम पुरखा-गीतों को नहीं गा रहे हैं फलतः, भाषा भूल रहे हैं और गैर-कुंड़ुख गीत व परंपराओं को अंगीकार कर रहे हैं. अतः, उनके सोच-विचार, जीवन-मूल्यों, परंपरा भाषा भूलने से कुँड़ुख भाषा की सुन्दरता, उससे जुड़े ज्ञान, भाव-विचार, नेग-चार, व्यवहार, इतिहास, सामाजिकता, नैतिक-मूल्य, विधि-विधान के विवरण आदि भी भूल रहे हैं.याद रखें कि हमारे गीत, मात्र गीत नहीं हैं बल्कि वहाँ बहुत सारी सामाजिकव ज्ञान की बातें भी भरी पड़ीं है.नहीं नाचने,गाने, बजाने से हमारी शारीरिक क्षमता व ताकत भी कमजोर हुई है. इसे पहचानना, चिन्हित करना व भावी पीढ़ी को बताना जरुरी है.कुँड़ुख भाषा से जुड़े हर ज्ञान की बातों को कौन,कैसे खोजेगा और समाज के अन्य लोगों को इसकी महत्ता के बारे कैसे, कब और कहाँ बताएगा?

कुंड़ुख-अस्तित्व आज खतरे में क्यों दिखती हैं?

कुंड़ुख शिक्षक सम्मेलन   Kurukh Teacher’s Meet
ग्राम– ओप्पा, थाना– कुड़ु, जिला लोहरदग्गा
Vill. Oppa, P.S. Kuru, Dt. Lohardagga
दिनांक  Dt. 17.10.2020 से  to  18.10.2020

 

4.    पड़हा-व्यवस्था टूटने से हमारी हर तरह की एकता छिन्न-भिन्न होती गई है. फलतः, किसी सामाजिक, आर्थिक कामों के लिए जो समर्पित एकजुटताव सहजीविता की भावना चाहिए है वह आज कम हो गई है. किसी एक की तकलीफ कभी पूरे गाँव की तकलीफ होती थी और हम एक दूसरे की हर तरह से मदद करते थे. जतरा लगाकर अपनी एकजुटता व आनंदित होने का उदाहरण पेश करते थे, वह अब नहीं कर पा रहे हैं. पड़हा-जतरा आदि हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, परस्पर आदर-सम्मान, परस्पर-सहयोगिता, आध्यात्मिक-शक्ति व सहजीविता को जगाए रखने के माध्यम थे. लेकिन, दुख है कि ऐसे आयोजन अब कमजोर हुए हैं और वे दीकू मेले का स्वरूप ले रहे हैं. इसे कैसे पुनर्संगठित, पुनर्जीवित व प्रभावी बनाया जा सकता है?

Ø    हमारी पहचान (Identity) के सवाल व इसे बचाने के उपाय-

1.    किसी भी समुदाय की पहचान उनकी भाषा, खान-पान, पहनावा, पर्व-त्योहार, रीति-रिवाज, नाच-गान, खास भौगौलिक परिवेश में रहने की जीवन-पद्धति आदि से बनती है. कुँड़ुख लोगों का जीवन उपर्युक्त सभी बिन्दुओं पर अपनी अलग पहचान रखता है. 

अतः, हम अधोलिखित बिन्दुओं पर काम कर सकते हैं–
I.    अपनी अयंग-कत्था यानी मातृभाषा कुंड़ुख की पहचान व्यावहारिक रूप में हर हालत में बचाना है. अतः, हम हर कुँड़ुख व्यक्ति से कुँड़ुख में बात करें.
II.    कुंड़ुख गीत सुनें व गाएं.
III.    जो भी छोटी बड़ी अच्छी किताबें कुंड़ुख में हैं उन्हें पढ़ने की आदत डालें.
IV.    जो लोग कुंड़ुख में गीत, कविता, कहानी, उपन्यास,नाटक व ज्ञान की अन्य किताबें लिख सकते हैं. ऐसे लोग लिखें या जो वीडियो, सिनेमा आदि बना सकते हैं, वे ऐसा करें.इसके लिए हमारे कुंड़ुख समाज के कुछ लेखक, साहित्यकार, अन्य विद्वान तथा अनुभवी, बुजुर्ग लोग हैं, वे आपकी मदद कर सकते हैं. यह सब काम करते समय हम आदिवासी/कुंड़ुख- मुद्दों, समस्याओं, भाषा, संस्कृति, इतिहास, भौगोलिक स्थिति व उसकी सुन्दरता, जीवन-दर्शन, मूल्यों, आदर्शों आदि का ध्यान रखें तो ये कामऔर बेहतर व सामाजिक रूप से ज्यादा प्रासंगिक हो सकते हैं. ऐसे कामों में मुख्यधारा कहे जानेवाले सोच व प्रभाव से बचकर आदिवासी/कुंड़ुख जीवन परंपरा के अनुकूल काम कर दिखाएं तो बेहतर.
V.    पुरानी कुंड़ुख लोक कथाएँ, बुझौवल, कुँड़ुख सृजन-कथा, पर्व-त्यौहार से जुड़ी कहानियाँ बच्चों को जरूर सुनाएँ. 
VI.    जो लोग यूट्यूब में कुंड़ुखर व कुंड़ुख लोगों के भाषा साहित्य संस्कृति आदि के विकास के लिए कुछ कार्यक्रम बना सकते हैं वे ऐसा जरूर करें और अनुभवी लोगों की सहायता व मार्गदर्शन लें. वे स्तरीय व गंभीर कार्यक्रम आदि बनाएँ, कामचलाऊ काम न करें तो बेहतर.
VII.    पारंपरिक वाद्य बजाकर, हर मौसम के अलग रागों, गीतों, नाचों की जानकारी युवाओं को दिए जाने की व्यवस्था की जाए.
VIII.    चाहें तो कुंड़ुख भाषा के लिए विकसित तोलोंग सिकि के विकास, प्रयोग व प्रोत्साहन के लिए सोचें और कुछ करें. यह भी हमारे पहचान का मुद्दा है.
IX.    जहाँ संभव है वहाँ कुंड़ुख-पुस्तकालय बनाएँ और कुंड़ुख भाषा, साहित्य, संस्कृति, इतिहास, रीति-रिवाज, पर्व त्यौहार संबंधी अच्छी किताबें रखें. इन पुस्तकालयों के नाम हमारे ऐतिहासिक पुऱखा शख्सियतों के नाम पर रखें तो बेहतर.आदिवासी विकास संबंधी, सामान्य-ज्ञान, कृषि, खेती व प्रतियोगी परीक्षा संबंधी किताबें या वहाँ के बच्चों, युवाओं की माँग पर भी किताब रखें. गाँव या टोले के हर बच्चे को एक सप्ताह से पन्द्रह दिनों के बीच एक किताब जरूर पढ़ने को दें.
X.    खान-पान– हमारा पारंपरिक खान-पान साग, माँड़-भात, दाल आदि जरूर हैं लेकिन, हम करीब दो दर्जन से अधिक सूखे साग आदि का प्रयोग करते हैं जोकि पौष्टिकता व औषधीय गुणों से भरपूर हैं. जिसे हम अज्ञानतावश या आधुनिकता के चक्कर में छोड़ रहे हैं. इसे फिर से समझने की जरूरत है और अपने पारंपरिक खान-पान के तरीकों को फिर जीवित करना चाहिए. आप सभी को जानकर आश्चर्य होगा कि आजकल फाइव स्टार होटलों में लोग आदिवासी-शैली के भोजन आदि खाने के लिए जाते हैं और कई लोग ढेंकी-कूटा चावल महंगे दामों पर खरीदकर खाते हैं.
XI.    अतः, पारंपरिक तरीके से विभिन्न प्रकार के रोटी बनाने, भरता, चटनी, आग में भूने आलू, शकरकंद आदि खाने, बनाने के तरीकों को संभव हो तो फिर से शुरू करना चाहिए. भाप कर या उबालकर विभिन्न प्रकार के रोटी, लड़्डू, पीठा बनाने की विधि को पुनर्जीवित करने की जरुरत है.इनमें तेल का प्रयोग नहीं होता है. अतः, अनेक रोगों से बचाव के लिए सभ्य व अमीर लोग खाना पकाने की इस विधि को ओर लौट रहे हैं.यह याद रखें, हमारा खान-पान ग्रामीण होते हुए भी अन्य किसी समाज के खान-पान से, किसी प्रकार से कम नहीं है. जरूरत है अपने खान-पान को इज्जत, सम्मान से देखने की. हमारी पहचान हंड़िया, दारू पीना और चखना खाना भर नहीं है बल्कि भोजन खाने की बहुत ही समृद्ध परंपरा है जो पौष्टिकता व औषधीय गुणों से भरपूर हैं. इसे हम सभी खोजें, पहचानें और इनके बारे अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त कर एक दूसरे को भी बताएँ. मड़ुवा का आटा पौष्टिकता के लिए प्रसिद्ध है यह हममें से कई लोग नहीं जानते. इसी तरह मुनगा, फुटकल, मुखा अड़खा, चकोंड़, टुंपा, खुखड़ी, रूगड़ा, कटई, संधना आदि अनेक साग सब्जी पौष्टिकताके अलावा अपने औषधीय गुणों के लिए आज जाने जाते हैं और अन्य समुदाय के लोग भी इनका प्रयोग करते दिख रहे हैं.अतः, समय रहते हमारे खान-पान की परंपरा को बचाने और इस पर गर्व करना चाहिए. हमारे कुंड़ुख भोजन परंपरा में तेल व मीठे का चलन कम रहा. शायद इसीलिए हम अन्य लोगों के मुकाबले स्वस्थ रहे. लेकिन, अब उनके भोजन परंपरा को अपनाकर उनकी तरह हम भी अनेक बीमारियों के चपेट में आ रहे हैं. इस तरह हम अपने स्वस्थ, पौष्टिक, औषधीय गुणों से भरपूर, समृद्ध भोजन परंपरा को त्याग कर अनेक बीमारियों के चंगुल में फंस रहे हैं. इस पर और सोचने तथा काम करने की जरूरत महसूस की जाती है. कोई कुंड़ुख डायटीशियन या भोजन-विशेषज्ञ इस पर गंभीरतापूर्वक काम कर सके तो बेहतर.
XII.    इसी प्रकार हमारे पारंपरिक औषधि ज्ञान को भी पुनर्जीवित करने व इसका दस्तावेजीकरण करने की जरुरत है. जो भी व्यक्ति ऐसा कुछ भी जानता है तो वह बच्चों को व लोगों को जरूर बताए.
XIII.    पहनावा– यह शुभ संकेत है कि आजकल युवा पीढ़ी हमारे कुंड़ुख पहनावा को लेकर गंभीर व उत्साह से भरी दिखती है.युवा लोग पढ़िया के जैकेट, बंडी पहन रहे हैं, पगड़ी, गमछा के अलावा धोती भी पहन रहे हैं और युवतियाँ पढ़िया साड़ी पहने हुए दिख रहीं है. यानी कुंड़ुख कपड़ों को लोग पारंपरिक व आधुनिक दोनों रूपों में पहन रहे हैं. इन कपड़ों से हमारी कुंड़ुख पहचान ज्यादा निखर कर आती है.अतः, इसे और अधिक प्रोत्साहन देने और प्रयोग करने की जरूरत है.
XIV.    पर्व त्योहार व रीति रिवाज– हम अपने कुंड़ुख त्यौहारों को गैर-कुंड़ुख नाम देने लगे हैं. जैसे – फग्गु खंडना अब होली हो गया है उसी तरह सोहराई, दीवाली हो गया है. खेखेल बेंज्जा को सरहुल बोल रहे हैं. इसके अलावा आषाढ़ महीने में तथा धान काटने के बाद के त्योहारों को भी जानना चाहिए. कोहा बेंज्जा क्या है इसके महत्व को हम भूल रहे हैं व इसका गैर-कुँड़ुख नाम दे रहे हैं. इस कारण हमारी पहचान पर संकट भी मंडरा रहा है और अन्य लोग कह रहे हैं कि उन्होंने यह सब उनकी भाषा से लिया है या उनकी परंपराओं को अपना रहे हैं. अतः, अपने पर्व त्योहारों के नाम नेग-चार की विधि आदि के कुँड़ुख नामों के प्रयोग पर जोर देना चाहिए नहीं तो लोग आपके विधि-विधान व तौर-तरीकों पर दावा करने लगेंगे. कृपया, इस खतरे का एहसास करें और इससे बचाव व रक्षा की तैयारी भी करें.
XV.    इसी तरह हमारे पर्व त्योहारों आदि को मनाने या जन्म, विवाह या मृत्यु के समय किए जाने वाले सभी नेग-चार, तौर-तरीके आदि कुंड़ुख विधि से किए जाने चाहिए.इसके लिए गाँव के नैग या किसी जानकार बुजुर्ग की सहायता ली जानी चाहिए. इसके लिए कुछ कुछ लिखित सामग्री भी संकलित की जा सकती है.
XVI.    हम हर मौसम में अलग ढंग से रहते, खाते, पीते आदि हैं. हमें हमारी परंपराओं के वैज्ञानिक पक्ष को खोजने की चेष्टा करनी चाहिए. जैसे पहले आषाढ़ महीने में गाँव में पूजा करने के बाद करम मनाने तक दूसरे गाँव नहीं जाते थे. बरसात में बीमारी फैलने का डर रहता है. अतः, आज कोरोना महामारी के काल में कह सकते हैं कि पुरखे इस मौसम में लॉकडाउन में रहते थे. उन्हें बीमारियों, महामारियों से बचने का ज्ञान था. इस तरह हम अपनी कुंड़ुख जीवन-पद्धति व परंपराओं को जीवित रखकर और अगर इसमें कमी रह गई हो तो इसमें कुछ अच्छा, नया जोड़कर बेहतर बना सकते हैं. इस संबंध में हमें और विचार-विमर्श व खोज करना चाहिए.

आगे बढ़ने के लिए हम नया क्या और कैसे कर सकते हैं?
Ø    शिक्षा- यह हमेशा याद रखना चाहिए कि हमारे पुरखे भले पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन, आज के पढ़े-लिखे लोगों से ज्यादा शिक्षित थे. क्योंकि वे सामाजिक एकता को बनाए रखते हुए सौहार्दपूर्ण जीवन जीने में यकीन करते थे और उन्होंने इसके लिए हर प्रकार की विधि व व्यवस्था कर रखी थी. फलतः सामाजिक रूप से हमारा पुरखा समाज हम पढ़े-लिखे लोगों के मुकाबले ज्यादा संगठित, अनुशासित, एकजुट व मजबूत था.आज की तरह पढ़-लिखकर बिखरा हुआ नहीं था.फलतः,आजपारंपरिक-ज्ञान, संविधान के ज्ञान नियम-अधिकार,आधुनिक-ज्ञान-तकनीककोभी बनाएवबचाएरखनेव जानने की जरूरतहै. ज्ञान-शिक्षा-कौशलकापारंपरिककेन्द्रधुमकुड़ियाथा, जहाँ हमारे युवा जीवन जीने के हर कौशल व ज्ञान, अनुभवी बुजुर्ग के मार्गदर्शन में, गहन अनुशासन में रहते हुए अर्जित करते थे. उन्हें गाँव के हर धार्मिक, आध्यात्मिक समारोहों, आयोजनों में सहयोगी या प्रतिभागी के रूप में भाग लेना पड़ता था. अतः, सभी युवा गाँव में हर पर्व-त्योहार के नेग-चार या अन्य विधियों, तौर-तरीकों व हर गतिविधियों आदि से पूरी तरह परिचित होते थे. आज यह व्यवस्था टूट गई है. फलतः, हमारा युवा आध्यात्मिक, नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व भाषिक रूप से ज्यादा भटकता दिखता है. हाल में हमारे युवाओं द्वारा बलात्कार जैसे घिनौने कामों में लिप्त होना इसह्रास को बताता है. यह बेहद चिंताजनक व शर्मनाक है.लेकिन, वहीं दूसरी ओर कुछ युवा अपनी पुरानी परंपराओं को समझने का प्रयास कर रहे हैं. ऐसे युवाओं को प्रोत्साहित करना और मार्गदर्शन करना हम सभी लोगों का कर्तव्य है. लेकिन, दूसरी चुनौती यह है कि हम गाँव के भटकते युवाओं को कैसे मार्गदर्शन दें. पुस्तकालय व नृत्य-संगीत केन्द्र, खेल-केन्द्र, कुँड़ुख कैरियर सेन्टऱ आदि स्थापित कर यह काम किया जा सकता है. इसके अन्य बेहतर विकल्प तलाशने की जल्द से जल्द कोशिश होनी चाहिए.वैसे हर कुंड़ुख इसके लिए कुछ सोचे और कुछ करे.

Ø    आर्थिक,सामाजिक,सांस्कृतिक उन्नति– आदिवासी समाज में सबसे बड़ा सवाल आर्थिक विकास का है. यह बेहद दुखद व चिंताजनक है कि हमारी फसल या वनोपज का हम वाजिब कीमत ले नहीं पाते और हमारी मेहनत व उपज बहुत कम कीमत में बिक जाती हैपारंपरिक खेतों के अलावा हम गाँव में बागान-बारी या आंगन-बारी भी रखते हैं. अब उसे और समृद्ध करने की जरूरत है. यदि हम भविष्य को ख्याल ऱखकर फलदार पेड़ लगाएँ तो अगले पाँच सालों में किसी भी परिवार की वार्षिक आय चालीस हजार से चार लाख तक हो सकती है. इसके लिए ऐसा करना होगा कि हमें ऐसे पेड़ लगाएँ जो अलग-अलग मौसम में फल, फूल या पत्ते देते हों या कोई ऐसे पेड़ पौधे हों जो बारहों महीने, हर मौसम में फल देते हों. एक छोटा सा उदाहरण देना उपयुक्त होगा -  आजकल गाँवों में फुटकल, कटहल आदि के पेड़ कम हो गए हैं. लेकिन, बाजार में उनकी कीमत व माँग बढ़ी है. भविष्य में उसकी माँग और बढ़ने की संभावना है. कटहल की माँग अन्य प्रदेशों में काफी है. एक पेड़ से हर साल, एक निश्चित आय प्राप्त की जा सकती है. इसी तरह अन्य संभावनाओं पर भी हम काम करें और सुव्यवस्थित व सुनियोजित ढंग से पेड़ों से उपज लेने का प्रयास करें तो यह हमारे गाँव के हर कुँड़ुख परिवार के वार्षिक आमदनी को बढ़ाने में पेड़ों से प्राप्त फल, पत्ते, फूल सहायक हो सकते हैं.

Ø    नये बाजारों, व्यवसायों में कुंड़ुख लोगों का प्रवेश – आजकल हमारे कुँड़ुखर भी पढ़लिखकर थोड़ा व्यापारिक गुण सीख रहे हैं.पिछले कुछ वर्षों से देखा जा रहा है कि वे कुछ न कुछ व्यावसायिक काम बहुत ही कुशलता से कर रहे हैं. वहीं दूसरी ओर कुछ लोग व्यवसाय में थोड़ा नाम और पैसा कमाकर भटक भी गए है. व्यवसाय में पैसा कमाना बड़ी बात नहीं, बड़ी बात है कि पीढ़ियों तक अपने व्यवसाय को कैसे बचाकर बनाए ऱखें और बिजनेस की गुणवत्ता (क्वालिटी) तथा कमाए नाम को पीढ़ियों तक कैसे बनाए रख सकें और समाज से कैसे जुड़े रहें. इस संबंध में हम सिखों के सामाजिक, आर्थिक कामों से प्रेरित हो सकते हैं. ऐसा बताया जाता है कि आदिवासियों में, कुंड़ुख लोगों में व्यापार करने का कौशल कुछ अधिक है. कुंड़ुख लोग कुछ भी नया काम करने में नहीं हिचकते. देश भर में कुँड़ुख लोगों की योग्यता को देखें तो सचमुच में हर तरह के फील्ड में कहीं न कहीं ऊंचे से लेकर छोटे पदों तक में मिल जाते हैं. वे कोई नया काम करने में नहीं झिझकते व अपने काम,कौशल, उत्सुकता, जिज्ञासा तथा मेहनत पर भरोसा करते निरंतर आगे बढ़ते रहने का प्रयास करते हैं.इनमेंसे जिन्होंने पीने की पारंपरिक बुराई को कम किया है या रस्मी तौर पर निभाया है वे आगे बढ़े हुए दिखते हैं. निश्चय ही भविष्य में हमारे कुँड़ुख लोगों के नये व्यवसायों में जाने की संभावना बनी हुई है. ऐसे लोगों को सम्मान व पुरस्कार देकर प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.

Ø    खेल,कला आदि संबंधी प्रतिभाओं की पहचान, प्रोत्साहन, सम्मान –आजकल खेल, कला, संगीत, नृत्य आदि का महत्व पहले की तुलना में आर्थिक, सामाजिक रूप से बढ़ गया है. सभी आदिवासी और कुंड़ुख लोग भी पैदाइशी कलाकार, गायक, नर्तक, वादक, धावक, खिलाड़ी होते हैं. इनमें यह गुण जन्मजात व नैसर्गिक रूप से होता है.हमारे बच्चे इसमें सफल भी होते हैं. लेकिन, वे एक छोटे सपने देखने के कारण इन क्षेत्रों में बहुत आगे नहीं बढ़ नहीं पाते हैं और कई बार राज्य स्तर तक ही सीमित रह जाते हैं. यदि हमारे नवोदित खिलाड़ी, बड़े खिलाड़ी, कलाकार, गायक, वादक बनना चाहें और ऐसे प्रतिभाशाली बच्चों को सारा समाज प्रोत्साहन, सम्मान दे तो वे पदक आदि जीतकर हमारे कुंड़ुख समाज का नाम रोशन कर सकते हैं. कल्पना कीजिए यदि किसी कुँड़ुख युवा ने कल को ओलंपिक मेडल जीत लिया तो आपको कैसा लगेगा? या वह उस जीतनेवाली टीम में है तो आपको कैसा लगेगा? कल को कोई कुंड़ुख- कला, साहित्य, खेल, समाज सेवा, वैज्ञानिक आविष्कार, कृषि कार्य, जंगल बचाओ, पानी, हरियाली बचाओ आदि कामों के लिए राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार पाता है तो आपको अच्छा लगता है. आप उससे परिचित नहीं हैं तब भी वह आपको अच्छा लगता है. आप गर्व अनुभव करते हैं. इस तरह समाज की एक गौरवपूर्ण छवि भी विकसित होती है. अतः, हमें अपने बच्चों को हर क्षेत्र व कामों में अनुशासन, लगन व मेहनत से बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ताकि ऐसे गर्व के पल व अवसर हमारे समाज को बार-बार मिले. लेकिन ऐसे फील्ड में बढ़ने के लिए बहुत हिम्मत, साहस, धैर्य, लगन, मेहनत, अनुशासन, त्याग, एकाग्रता आदि का जरूरत होती है.आरंभ में कुछ खेलों में खुद भी पैसा खर्च करना पड़ता है. कई बार हार, उपेक्षा, पक्षपात, भेद-भाव घोर अपमान आदि का भी सामना पड़ सकता है. इसके लिए मानसिक दृढ़ता की जरूरत के साथ पारिवारिक, सामाजिक समर्थन की भी जरूरत होती है. लेकिन एक बार मनचाहे उच्चतम लक्ष्य को पाने के बाद एक सेलेब्रिटी बन जाते हैं, नायक बन जाते हैं. अभी हमारे समाज में कुछ लोग इस दिशा आगे बढ़ते दिखे भी हैं. लेकिन अभी इस दिशा में और समर्पित, अनुशासित होकर मेहनत से मानसिक रूप से मजबूत होकर बढ़ने और काम करने की जरूरत है. वे अपने काम को, खेल को लगातार सुधारते रहें तो भविष्य में ऐसे लोग हमारे समाज में उभर सकते हैं. हमें अपने पर भरोसा कर काम करना चाहिए. आज भी भेद-भाव, छल-कपट है तब भी ऐसे लोग भी हैं जो यह देखते हैं कि कौन लगातार कैसे अच्छा काम कर रहा है तो आपके काम को मान्यता, प्रोत्साहन, पुरस्कार भी मिलते हैं.

Ø    निरंतर काम करने, संवाद करने, सोचने विचारनेकी जरूरत- यह आयोजन हमारे समाज को बढ़ाने का एक छोटा सा प्रयास है जो आप सभी के सक्रिय सहयोग से ही और आगे बढ़ सकती है.अतः, यह काम लगातार हर स्तर पर चलते रहना चाहिए.इसमें और बेहतरी के लिए हमें आपके बहुमूल्य सुझावों, विचारों का इंतजार रहेगा. धन्यवाद.
----------------------------------------------------
    निवेदक – नागराज उराँव, महादेव टोप्पो व अन्य बहुत सारे साथी.

Sections