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आलेख / Articles

नयी शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं का स्थान

सार: किसी भी भाषा के लुप्त होने या उसके संकटग्रस्त श्रेणी में आ जाने के परिणाम बहुत दूरगामी होते हैं। भाषा का एक-एक शब्द महत्त्वपूर्ण होता है। प्रत्येक शब्द अपने पीछे संस्कृति की एक लंबी परंपरा को लेकर चलता है। इसलिए भाषा लुप्त होते ही संस्कृति पर खतरा मंडराने लगता है। संस्कृति और उस भाषा के संचित ज्ञान को बचाने के लिए भाषा के संरक्षण की बहुत आवश्यकता है। भारत की नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 में इस बात पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा गया है कि दुर्भाग्य से भारतीय भाषाओं को समुचित ध्यान और देखभाल नही मिल पायी है, जिसके तहत देश ने विगत 50 वर्षों में 220 भाषाओं को खो दिया है। युनेस्को ने 197 भ

धार्मिक उपनिवेशवाद और पारम्परिक उराँव (कुँड़ुख़) समाज

उपनिवेशवाद का अर्थ है - किसी समृद्ध एवं शक्तिशाली राष्ट्र द्वारा अपने विभिन्न हितों को साधने के लिए किसी निर्बल किन्तु प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण राष्ट्र के विभिन्न संसाधनों का शक्ति के बल पर उपभोग करना। यहाँ धार्मिक उपनिवेशवाद का अर्थ है - कमजोर और असंगठित समाज को अपने धार्मिक संगत में मिलाकर उसके सांस्कृतिक विरासत का समूल नाश करते हुए अपने समूह में मिला लेना है। देश की स्वतंत्रता के 75 वें वर्ष पूरे होने वाले हैं पर आज भी आदिवासी समाज वैचारिक रूप से पूर्ण रूपेण आजाद नहीं हो पाया है। वर्तमान में लगभग अपने मौलिक विचार धारा के 50 लाख जनसंख्या वाले तथा कुँड़ुख़ भाषा बोलने वाले उराँव लोगों

साम्राज्यवादी धर्मों का आक्रमण और बिखरों को समेटते प्राकृतिक आदिवासी

पहले, प्रथम आदिवासी और प्रकृति दोनों एक ही बात थी. कोई भी एक को दूसरे की बिना कल्पना नहीं कर सकते थे. आज के समय में थोड़ा बदलाव आया भी है तो आदिवासी और प्रकृति को आप अन्योन्याश्रिता के तौर पर देख सकते हैं, जो की अंधाधुंध औद्योगीकरण और शहरीकरण के प्रभाव में थोड़ा कमजोर हुआ है. आदिवासियों का प्रकृति के साथ इसी सामंजस्यता, अन्योन्याश्रिता, सहोदरता को दर्शाता है - 'सरना' का अस्तित्व. 'सरना' के आविर्भाव के बारे में काफी कुछ कहा और सुना जा चुका है कि आदिवासी कोई भी मीटिंग और महत्वपूर्ण काम करने से पहले तीर (सर) छोड़ते थे.

प्राकृतिक आस्था और आदिवासी अध्यात्म का प्रतीक "सरना"

"सरना" शब्द आज पूरी दुनिया जानती है| इस शब्द के गहराई और शुरुवात में जाएँ तो शायद ही ये शब्द किसी आदिवासी भाषा में मिले, लेकिन आदिवासी समुदायों और गैर आदिवासी समुदायों के संवादों से उभरने वाले शब्दों को गौर करें तो आप पाएंगे की 'सरना' शब्द यहीं कहीं से उत्पन्न हुआ है| 'सरना', सिर्फ एक शब्द और स्थल से इतर, प्रकृति, और प्रकृति से इतर पूरे सौर मण्डल को इंगित करता है जो फिलहाल एक पूजा स्थल के रूप में चिन्हित है, और वो बस एक प्रतीकात्मक है| आप चाहें तो पूरे सौरमण्डल के बृहत्दर्शन को ‘सरना’ के उस छोटे से भूभाग में समेट लें| शायद यही स्वच्छंदता और असीमितता ही है जिसकी वजह से आदिवासी और उनके पूर्वज

कुंड़ुख़ भाषा में मुहावरा एवं कहावत का प्रयोग

कुंड़ुख़ भाषा में मुहावरा एवं कहावत का प्रयोग बखुबी होता है। कई असहज बातों को इससे आसानी से समझा जाता है। आइये इसे जाने :
bai qurrA (muhAvarA )
¡.  adde e:rnA ( KiEsA:rnA ) - As eXgan adde e:rwas.
¢.  aXli e:wnA ( WirAbaHnA ) - kalA boXgA, eXgan WirAbaHA polloy.
£.  akil barnA ( lu:r kunwurnA ) - konwas we innA akil barcA. 
¤.  akil ebsernA ( buJurLA polnA ) - qambas hi kerkA mo:xA As hi 
   akil ebesrA.
¥.  allA ujjnA ( ajju-ijju onA-mo:xA ge kuwwnA ) - Wucas gA allA  

संस्कृति को बचाने के लिए ज़रूरी है भाषा को बचाना - जसिंता केरकेट्टा

किसी भी समाज की संस्कृति के बचे रहने के लिए उसकी अपनी भाषा का बचा होना ज़रूरी है। भाषा के बिना कैसे अपनी संस्कृति को बचाने की बात हो सकती है? भाषा अपनी संस्कृति को अभिव्यक्त करने का माध्यम तो होती ही है, वह एक शक्तिशाली सांस्कृतिक हथियार भी होती है।
किसी समाज को ख़त्म करना हो तो उससे, उसकी भाषा छीन लीजिए। वह अपने आप खत्म हो जाएगा। यह बात हमेशा वर्चस्ववादी समाज द्वारा कही जाती रही है। इसी तरीके से आदिवासियों को ख़त्म करने के लिए निरंतर प्रयास होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं।

नयी शिक्षा नीति और मातृभाषाएं

महात्मा गांधी ने 20 अक्टूबर, 1917 को गुजरात के भड़ौच में एक शिक्षा सम्मेलन में कहा था - "विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा पाने में दिमाग पर जो बोझ पड़ता है, वह असह्य है। यह बोझ हमारे बच्चे उठा तो सकते हैं, लेकिन उसकी कीमत हमें चुकानी पड़ती है, वे दूसरा बोझ उठाने लायक नहीं रह जाते हैं। इससे हमारे स्नातक अधिकतर निकम्मे, कमजोर, निरुत्साही, रोगी और कोरे नकलची बन जाते हैं। इससे हम नयी योजनाएं नहीं बना सकते हैं और यदि बनाते हैं, तो उन्हें पूरा नहीं कर पाते हैं।" आजादी के बाद तैयार की गयी तीनों शिक्षा नीतियों में इस बात को ध्यान में रखते हुए मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करने की नीतियां बनायी गयी हैं। प्रथम दो

सकलराम तिरकी को बंगाल कैसे मिला 1500 एकड़ का खतियानी जमींदारी?

वर्तमान लोहरदगा जिला‚ कुड़ू थाना क्षेत्र के जिंगरी जोंजरो गांव के रहने वाला सकलराम तिरकी‚ एक उरांव परिवार में जन्मा् एवं पला–बढ़ा तथा एक मजदूर किसान का बेटा को जब अपने गांव–परिवार की गरीबी में अपने गांव से दूर जाने के लिए विवस होना पड़ा तो वह रास्ता  ढूँढ़ते हुए बंगाल के पहाड़ी क्षेत्र अर्थात वर्तमान दार्जिलिंग के तराई में मजदूर बनकर पहूँचा। ब्रिटिश भारत में 1840 से 1850 के दौर में बंगाल एवं असम में चाय की खेती के लिए रांची– लोहरदगा आदि जगहों से हजारों की संख्याग में मजदूरों को ले जाया गया। यह सिलसिला कमोवेश चलता रहा और 1890 में कुछ अधिक तेजी आयी। स्वच० सकलराम तिरकी के तीसरी पीढ़ी के वंशज बतला

तोलोंग सिकि (लिपि) का आधार

तोलोंग सिकि एक वर्णात्मक लिपि है। इसमें‚ उच्चारण के अनुसार लिखा एवं पढ़ा जाता है। इसमें हलन्त का प्रयोग नहीं होता है। इस लिपि को कुँड़ुख़ भाषियों ने कुँड़ुख़ भाषा की लिपि की सामाजिक स्वीकृति प्रदान की है तथा झारखण्ड सरकार द्वारा कुँड़ुख़ भाषा की लिपि की वैधानिक मान्यता देकर विद्यालयों में पठन-पाठन का अवसर प्रदान किया गया है। कुँड़ुख़ भाषा को योगात्मक भाषा कहा गया है। बोलचाल में‚ योगात्मक तरीके से खण्ड-ब-खण्ड उच्चारित किया जाता है। इस लिपि के अधिकतर वर्ण वर्तमान घड़ी के विपरीत दिशा (Anti clockwise direction) में व्यवस्थित है। इस लिपि का आधार पूर्वजों द्वारा स्थापित प्रकृतिवादी सिद्धांत है। हवा का

सैन्दां धुमकु‍ड़ि‍या में कुड़ुख़ भाषा एवं तोलोंग सिकि

धुमकु‍ड़ि‍या सैन्दां, सिसई, गुमला में बच्चों को कुड़ुख़ भाषा एवं तोलोंग सिकि सिखलाते हुए शिक्षक एवं छात्रगण धुमकु‍ड़ि‍या सैन्दां, सिसई, गुमला में बच्चों को कुड़ुख़ भाषा एवं तोलोंग सिकि सिखलाते हुए शिक्षक एवं छात्रगण धुमकु‍ड़ि‍या सैन्दां, सिसई, गुमला में बच्चों को कुड़ुख़ भाषा एवं तोलोंग सिकि सिखलाते हुए शिक्षक एवं छात्रगण धुमकु‍ड़ि‍या सैन्दां, सिसई, गुमला में बच्चों को कुड़ुख़ भाषा एवं तोलोंग सिकि सिखलाते हुए शिक्षक एवं छात्रगण