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प्राकृतिक आस्था और आदिवासी अध्यात्म का प्रतीक "सरना"

"सरना" शब्द आज पूरी दुनिया जानती है| इस शब्द के गहराई और शुरुवात में जाएँ तो शायद ही ये शब्द किसी आदिवासी भाषा में मिले, लेकिन आदिवासी समुदायों और गैर आदिवासी समुदायों के संवादों से उभरने वाले शब्दों को गौर करें तो आप पाएंगे की 'सरना' शब्द यहीं कहीं से उत्पन्न हुआ है| 'सरना', सिर्फ एक शब्द और स्थल से इतर, प्रकृति, और प्रकृति से इतर पूरे सौर मण्डल को इंगित करता है जो फिलहाल एक पूजा स्थल के रूप में चिन्हित है, और वो बस एक प्रतीकात्मक है| आप चाहें तो पूरे सौरमण्डल के बृहत्दर्शन को ‘सरना’ के उस छोटे से भूभाग में समेट लें| शायद यही स्वच्छंदता और असीमितता ही है जिसकी वजह से आदिवासी और उनके पूर्वजों ने कभी भी सरना स्थल को घेरा लगाने की कोशिश नहीं की| घेरायासीमांकनकरनाप्राकृतिकदर्शनकोसीमितकरनाहै| सरना,याप्राकृतिकदर्शनस्वछंदऔरअंतहीन है| फ़िलहाल,जमीन की लूट इस कदर बढ़ी है की जमीन के इस छोटे से टुकड़े को सहेजने के लिए घेरा-बंदी करनी पड़ रही है| हर मनुष्य किसी-न-किसी प्रकार से प्रकृति से, यानि ‘सरना’से जुड़ा हुआ है, इसे कोई भी इंसान इनकार नहीं कर सकता| सांस लेने, पानी पीने से लेकर तमाम मानव जीवन की आवश्यक चीजें प्रकृति से ही पूर्ण होती है| इसे शब्दों और उस छोटे से सरना भूभाग के परे समझने की जरुरत है| प्रतीकात्मक ‘सरना’स्थल को ‘सौरमण्डल’के बृहत्दर्शन के विशाल सोच को एक साथ समझने की जरुरत है| धरती, पहाड़, नदी, जंगल चाँद-तारे, सूरज, ग्रह, उपग्रह, तथा सम्पूर्ण सौरमंडल प्रकृति के ही हिस्से हैं| वास्तव में, सौरमंडल मनुष्य की सोच से भी ज्यादा बृहत है और इसे समझने में मनुष्यों की कितनी संतति लग गयी है, अभी कितने और लगेंगे, या ये भी संभव है की इसे पूर्ण रूप से समझना नामुमकिन है| पूरे पुकराल (यूनिवर्स) में कितने 'सौरमंडल' हैं, ये भी कहना मुश्किल है| साथ ही, 'सरना' को अन्य धर्मों और उनके धार्मिक ग्रंथों में विदित ईश्वरों के पैमाने में समझना लगभग असंभव है|

सरना या प्राकृतिक आस्था का प्रश्न और भी प्रगाढ़ हो जाता है जब पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन,  वैश्विक उष्णता और कोविड-19 से जूझ रहा है| ऐसे दौर में इसे सांविधानिक रूप से अंगीकार करना किसी भी देश के लिए गर्व की बात होनी चाहिए | वैज्ञानिक तथ्यों और वर्तमान में उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार प्राकृतिक सरना दर्शन ही मानव सभ्यता के आगे के अभ्युदय की रचना करेगा|

"सरना" आस्था और अध्यात्म विशिष्ट कैसे ?
"सरना" को एक आदिवासी आस्था के अलग और विशिष्ट पहचान के रूप में देखा जाना चाहिए| अलग और विशिष्ट विश्वास तथा अध्यात्म पद्धति भी आदिवासी होने का एक गुण है जिसे भारत की संविधान भी मानती है| इस विशिष्ट विश्वास और अध्यात्म पद्धति को 'सरना' में समेटने में कहीं से भी कोई समस्या नहीं है| 'सरना' अपने में वैशिष्ट्य लिए हुए औरों से अलग आस्था का प्रतीक है| इसे प्रत्येक आदिवासी समुदाय भले अपने राज्य, अपने गाँव में अलग-अलग नाम से पुकार लें लेकिन, फिलहाल, राज्य, देश क्या पूरे विश्व के लिए ‘सरना’उपयुक्त है| ये अपने आपमें  'धर्म'  कम और प्राकृतिक आस्था,  परंपरा,  पहचान और अध्यात्म का प्रतीक ज्यादा है| इसे मौजूदा धर्मों में निहित कर्म कांडों की तरह न देखा जाये और न ही अन्य धर्मों में मौजूद कर्मकांडों वाले मसाले इसमें आयात किये जाएँ|  जैसे– ‘धर्मगुरु’ का प्रचलन दूसरे धर्मों की देखा-देखी का नक़ल है|पहानों की अगुवाई करने वाला सरना आध्यात्मिक अगुआ, या सरना अगुआ, या महापहान ज्यादा उपयुक्त शब्द जान पड़ताहै| ‘धर्मगुरु’जैसी कोई बात आदिवासी के पूर्वजों ने नहीं बताया है| 2011 में रोम में हुए विश्व धर्म सम्मलेन में भाग लेने के लिए मुकेश बिरुआ जी धर्मगुरु की तरह बुलाये जरूर गए थे, लेकिन वो सिर्फ  'सरना' आस्था और अध्यात्म के जानकार के रूप में गए थे, क्योंकि 'बिरुआ' जी न आध्यात्मिक रूप से चयनित हैं और न ही स्वघोषित धर्मगुरु हैं| हालाँकि, वर्तमान विश्व में फैले हुए धार्मिक रूप, रंग और गुरुओं की परंपरा को नकल करते हुए 'सरना' धर्मगुरु का इस्तेमाल सरना आस्था को न समझने वाले लोग करते रहे हैं| वास्तव में, 'सरना' प्रचलित धर्मों से अलग है जो की साक्षात् उपस्थित प्रकृति की उपासना को इंगित करता है और ये तमाम ग्रंथों से परे प्रकृति को जीने की सीख देता है| दरअसल, 'सरना' नास्तिकता के ज्यादा नजदीक है,क्योंकि अन्य धर्मों में‘ईश्वर’के अस्तित्व की तरह, 'सरना' आस्था और अध्यात्म में नहीं है| ‘सरना’ या प्राकृतिक जीवन शैली को जीने वाले लोगों की पहचान के लिए विश्व के किसी भी संविधान में कोई खास जगह नहीं है, भारत में भी नहीं| पंथनिरपेक्षता ही एक शब्द है जो भारत के संविधान में आस्था की आजादी देता है| तो क्या, सरना को अन्य धर्मों की पंक्ति में खड़ा किया जाना चाहिए? वास्तव में पंक्ति में खड़ा करने वाली बात नहीं है और उस पंक्ति में 'सरना' को अंकित कर लेने भर से उसकी प्रकृति औरों की तरह नहीं हो जाती है, बल्कि आदिवासियों के आस्था और आध्यात्मिकता को एक मुकम्मल स्थान देने की बात है और आदिवासियों की भावना भी यही है|
"सरना" के साथ खास बात ये है की इसको दिल से अंगीकार करने वाले लो गया तो इसे आस्था के रूप में अपने दिलों में जिन्दा रखें, या जीवन दर्शन के रूप में, या जीवन के तरीके के रूप में, या धर्म के रूप में, या अध्यात्म के रूप में, या ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास कि ये बिना प्रकृति को विश्वास करने के रूप में,कहीं भी कोई दिक्कत नहीं है| वास्तव में,प्रकृति में आस्था और विश्वास रखने वाले विश्व के प्रथम मानव आदिवासी ही थे और अभी भी हैं| "सरना" शब्द को आस्था और आदिवासियों के अध्यात्म के रूप में स्वीकार किये जाने में कहीं भी समस्या नजर नहीं आती है| फर्क सिर्फ इतना है की दूसरे राज्यों और इलाकों के आदिवासी समुदाय प्राकृतिक आस्था को अपने भाषा में प्रचलित नाम से जानते हैं| बहुधा जानकारी के अभाव में काफी सारे आदिवासी समुदाय अपने कबीले के नाम पर ही धर्म और आस्था का नाम बोल देते हैं, और सरकारी दस्तावेजों में भी लिखा लेते हैं, जैसे- गोंडी धर्म, भीली धर्म, मुंडा धर्म, संताली धर्म, खड़िया धर्म इत्यादि| वास्तव में, दूसरे आदिवासी भाषाओँ में 'सरना' के समानार्थक शब्द ही मिलेंगे, इसलिए भाषाई दीवारों के परे शब्दों के महत्त्व, दर्शन और उसके भावको समझना जरुरी है| 'सरना' की मांग के पीछे एक बड़ी वजह है प्राकृतिक आदिवासी का अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष, क्योंकि इनका अस्तित्व काफी कुछ इनके आस्था और आध्यात्मिक पहचान पर निर्भर करता है| 'सरना' विश्वास में जीने वालों की आस्था और आध्यात्मिक जगत उनके आंदोलनों से विदित है| ये राजनीतिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक उद्भव प्रक्रिया की एक महत्वपूर्ण कड़ी है| साथ ही, दूसरे धर्मों के नाम सरकारी दस्तावेजों में अंकित हैं,तो आदिवासी समुदाय भी अपनी पहचान को लेकर इन सरकारी दस्तावेजों, यथा – जनगणना में अंकित कराना चाहता है|
सरना‘स्थल’ या‘धर्म, या आस्था और अध्यात्म
कुछ लोगों का मानना है की सरना एक 'पूजा स्थल' है, इसलिए धर्म नहीं हो सकता है| अगर ऐसा है तो सिंधु नहीं के इस पार रहने वालों को हिन्दू की संज्ञा क्यों दी गयी? ये नामकरण के बाद 'हिन्दू' को धर्म के रूप में बहुतायत लोगों ने क्यों स्वीकार कर लिया? धर्म, आस्था, अध्यात्म मनुष्य के लिए ही होता है और मनुष्य धरती (स्थल) पर ही रहता है, इसलिए शुरवात में इसे स्थल की तरह समझने के साथ-साथ आस्था और अध्यात्म के रूप में देखना और नामकरण करने में कोई समस्या नहीं है|'सरना' शब्द के जड़ पर जाने और उसके भाव को समझना जरुरी है|‘सरना’ के नाम पर धर्म, आस्था और अध्यात्म नहीं हो सकता,ये तर्क संगत नहीं है| 'सरना', एक प्रतिनिधि नाम है और इसे आदिवासियों को स्वीकार्य है| सूक्षम्ता से देखने पर आप को पता चलेगा की 'सरना' को संताल में 'जाहेर', हो लोगों के बीच 'देशाउली', और उरांव लोगों के बीच में 'चाला टोंका' कहते हैं|साथ ही,‘सरना’ किसी एक आदिवासी समुदाय की विरासत है, ऐसा बिल्कुल नहीं है| ‘सरना आस्था’और अध्यात्म को सिर्फ आदिवासी समुदाय ही नहीं बल्कि गैरआदिवासी जो की सदियों से आदिवासियों के साथ रह रहे हैं ने भी समय के साथ सहर्ष स्वीकार किया है| 
    
आदिवासी हर थोपी हुई चीज को सहज रूप से स्वीकार नहीं करता है, बल्कि सोचता है, परखता है फिर निर्णय पर पहुँचता है|'सरना' को अन्य धर्मोंकी पंक्ति में बिल्कुल नहीं खड़ा किया जाना चाहिए, क्योंकि ये अन्यधर्मों से अलग है| ये धर्म कम और आस्था और अध्यात्म का प्रतीक ज्यादा है| लेकिन वर्तमान में प्रचलित धर्मों के कर्म-काण्ड की भांति सरना को देखने से इसके पीछे का आस्था और अध्यात्म का दर्शन नहीं समझ आएगा| कमोबेश, शराबियों के देश में दूध की महत्ता बताने के लिए 'सरना' मानने वाले प्रयास कर रहे हैं और जबतक समझ में नहीं आये तबतक कोशिश करते रहना पड़ेगा|  

'आदिवासी धर्म' क्यों नहीं?
'आदिवासी धर्म' में 'आदिवासी' शब्द नश्ल (race) को इंगित करता है न की आस्था का, इसलिए आदिवासी आस्था और अध्यात्म के लिए 'सरना' से बेहतर और कोई दूसरा शब्द नजर नहीं आता है| भाषाओँ के जंजाल में अगर आप घुसेंगे तो पाएंगे की 'आदिवासी शब्द' खुद भी आदिवासी भाषाओँ से नहीं निकला है, लेकिन ये शब्द का इस्तेमाल आदिवासी धड़ल्ले से करते हैं और जुड़ाव भी महसूस करते हैं, वहीं उतर-पूर्व के आदिवासी अपने आपको 'ट्राइब' शब्द से ज्यादा जुड़ाव महसूस करते हैं न की 'आदिवासी' शब्द से| जब 'आदिवासी' और 'ट्राइब' शब्द में ही इतने मतिर्भिन्न हैं तो, सिर्फ 'आदिवासी धर्म' सर्वग्राह्य होगा वो संभव नहीं है और वैसे भी आस्था और अध्यात्म के नाम पर 'आदिवासी धर्म' तार्किक नहीं है|

दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है की, "आदिवासी धर्म" अगर धर्म के रूप में सांविधानिक रूप से नामांकित क रलिया जाता है तो क्या गैरआदिवासी इसे धर्म आस्था, या अध्यात्म के रूप में स्वीकार कर पाएंगे? अगर गैरआदिवासी जैसे - 'फलां चौबे, 'फलां पाण्डेय, और फलाँ उपाध्याय आदिवासी धर्म से प्रभावित होकर उसे धर्म के रूप में स्वीकार कर ना चाहें तो क्या धर्म के खाली जगह में 'आदिवासी' शब्द लिख पाएंगे? अगर‘ चौबे जी’, ‘पाण्डेय जी’ और उपाध्यायजी अपना धर्म के कॉलम में  'आदिवासी' लिखते हैं, तो इसके लम्बे दुष्परिणाम का अंदाजा आप लगा सकते हैं, क्योंकि पंथनिरपेक्ष देश में आप "आदिवासी धर्म" लिखने के लिए किसी को मना नहीं कर सकते हैं| ये बात साफ़ है की, आपकी विशिष्ट पहचान खतरे मेंहो जायेगी और आप भी अपने आपको अलग पहचान के रूप में तय नहीं कर पाएंगे| वैसे भी 'धर्म', 'आस्था', अध्यात्म, ईश्वर इत्यादि की संकल्पना को एक वैश्विक स्वीकारोक्ति के रूप में देखना चाहिए न की किसी वर्ग विशेष की विरासत| साथही इसे वैश्विक बनाने की धारणा और भी मजबूत हो जाती है जब 'प्राकृतिक आदिवासी दर्शन' को विश्व को बचाने का दर्शन कहा जारहा है|

अगर 'अनुसूचित जनजाति'  के पहचान के बदले आप 'आदिवासी' पहचान की मांग करते हैं तो कुछ बात बनती है| जयपाल सिंह जी ने सांविधानिक बहस में अपनी बात रखी थी कि हमें आदिवासी (adibasi) कहा जाये,जिसे बाद में आंबेडकर जी ने यह कहकर नकार दिया की वैधानिक रूप से ये शब्द सही नहीं होगा| अपने लिए अनुसूचित जन जाति के बदले 'आदिवासी (Aborigin)' शब्द की संविधान में स्वीकारोक्ति की मांग करना दूसरी समस्या है और इसे 'सरना' के विकल्प के रूप में देखना बिल्कुल अतार्किक है| आदिवासी, इंडिजिनस, अबोरिजिन ये अलग मसला है, इसकी मांग जरूर करें, लेकिन सरना के साथ घाल-मेल करना अज्ञानता है या विशुद्ध राजनीतिक व्यवसाय है|          


गोंडी / भीली इत्यादि क्यों नहीं?
गोंडी शब्द खुद भी गोंडी भाषा का नहीं है और ये एक खास समुदाय को इंगित करती है, उसी प्रकार भीली धर्म भी एक खास समुदाय को इंगित करती है न की धर्म को और नही आस्था को| कुल मिलाकर ये दोनों भी प्राकृतिक आस्था को मानने वाले लोग हैं और सूचित भी करते हैं,भले ही ये शब्द किसी खास समुदाय की ओर इशारा कर रहे हों| समुदाय को इंगित करने के बावजूद गोंडी, भीली और ‘सरना’आस्था को लगभग एक समान ही समझा जा सकता है|
अरुणाचल प्रदेश और असम के पूर्वी हिस्से में प्राकृतिक आस्था के लिए दोनी-पोलो का इस्तेमाल किया जाता है| दोनी-पोलो जरूर ऐसा शब्द है जिसे हम 'सरना' के समानार्थक समझ सकते हैं| वैसे 'सरना'  के जगह में  'दोनी-पोलो' लिखने की जरुरत पड़े तो व्यक्तिगत रूप से मुझे कोई समस्या नहीं है, क्योंकि ये 'सरना' के ही समानार्थक शब्द हैं| दीगर बात ये है की 2011 की जनगणना में लगभग 49.58 लाख लोगों ने ‘सरना’ लिखा है जो की 'जैन' 44.51 लाख से कहीं ज्यादा है| ऐसी स्थिति में एक बात तो साफ़ है की पूरेदेश में 49.58 लाख लोगों को एक सूचीबद्ध पहचान / कॉलम देने में हर्ज क्या है? दूसरी बात, 2011 की जनगणना में 'अन्य धर्म और अनुनय (Other religions and persuasions)' में लगभग 80 से ज्यादा किस्म के धर्मों का जिक्र मिलता है और इसमें भी ज्यादातर प्रकृति पूजक ही हैं| यहाँ फेर बस शब्दों का ही है,जैसे सब कह रहे हैं की मेरे शब्दों को स्वीकार कर लो और कुछ नहीं| ऐसी स्थिति में, राज्य और देश की सरकार को आदिवासी जनता की मांग का ध्यान रखना चाहिए तथा बहुमत और भावना का सम्मान करते हुए अन्ततः 'सरना' को अंतिम रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए|
जनगणना रजिस्ट्रार द्वारा दो बातों का हवाला देकर 'सरना' को मान्यता देने से इनकार करता रहा है - पहला, आदिवासी समुदायों में आस्था और अध्यात्मकी मान्यता की मांग में एकरूपता में कमी, दूसरा अगर 'सरना' को मान्यता दिया गया तो बाकी 'धर्म' को लेकर भी मांग उठने लगेंगी| दरअसल,ये बहाना मात्र है| वैसे,2020 में पूरे भारत की जनसँख्या लगभग 135 करोड़ है| जवान युवा वर्ग जो श्रमशक्ति का हिस्सा है लगभग 45-50 करोड़ की है| अगर 45-50 करोड़ में चेतनशील लोगों की संख्या लगभग 1 करोड़ भी मान लें तो आस्था और धर्म में भिन्नता भी लगभग 1 करोड़ की होगी| ऐसी स्थिति में सांविधानिक रूप से हरेक व्यक्ति को अपनी आस्था और धर्म को सरकारी दस्तावेजों में अंकित कराने का हक़ है| बहुमत की सरकार बहुमत वाले धर्मों, आस्थाओं और मांगों को वोट बैंक के हिसाब से अधिकार देती है,ये वर्तमान लोकतंत्र की सबसे बड़ी खामी में से एक है| खैर, हम कहना चाहते हैं कि 2011 की जनगणना में लगभग 80 किस्म के अलग-अलग धर्म अंकित हैं जिसमें हिन्दू, मुस्लिम,सिख, ईसाई, जैन, और बौद्ध पहले से ही सरकारी दस्तावेजों में अंकित हैं| अब, 135 करोड़ लोगों की देखभाल करने, उनकी गणना करने और आधार कार्ड देने वाली सरकार को लगभग 80 प्रकार के आस्थाओं को सरकारी दस्तावेजों में जगह और संरक्षण देने में हर्ज और तकलीफ क्यों होनी चाहिए? आखिर है तो पंथनिरपेक्ष देश? बात रही 'सरना' की, तो जैन के बाद सबसे ज्यादा संख्या में दर्ज होने वाली आस्था की पहचान है| 'अन्य धर्म और अनुनय' लिखने वालों की संख्या ‘जैन धर्म से अधिक है| 'सरना' के बाद सबसे ज्यादा लिखे जाने वाले शब्द हैं -- सरि, गोंडी, दोनी-पोलो, साना–माही, खासी, नियामत्रे,जोरोस्ट्रियन इत्यादि| जोरोस्ट्रियन के बाद क्रम में आने वाला शब्द है 'आदिवासी धर्म', जो की रामदयाल मुंडाजी द्वारा बताये गए 'अदि-धरम' का पर्याय हो सकता है, लेकिन अभी लोगों का झुकाव'सरना' को लेकर है इसलिए प्रजातान्त्रिक बहुमत के तर्क का तराजू‘सरना के तरफ साफ़ है|

निष्कर्ष –
1871-72 से लेकर 1941 तक हर दस साल के शुरुवाती वर्ष में होने वाले जनगणना के अनुसार आदिवासियों को क्रमशः - अबोरिजिन, अबोरिजिनल, अबोरिजिनल, एनिमिस्ट, एनिमिस्ट, एनिमिस्ट, ट्राइबल रेलिजन,  ट्राइब कहा गया है| मुख्य धारा में जोड़ने के नाम पर आदिवासियों को वर्चस्व वादियों द्वारा हिन्दू और ईसाई बनाये जाते रहे हैं और स्वतंत्र भारत के  1951 वें जनगणना में आदिवासियों को एक तमगा दिया जाता है  'शेड्यूल्डट्राइब' (अनुसूचित जनजाति) का| दरअसल, आदिवासियों के मूल पहचान को चिन्हित कर विस्तृत मानव वैज्ञानिक खोज के साथ किसी सरकार ने भी उन्हें पृथक नाम देने की कोशिश नहीं की| 1931 में 'आदिवासी धर्म' एच. जे. हटन ने दिया था, बाद के वर्षों में आदिवासियों के 'धर्म' के मामले में वेरियर एल्विन का नाम लिया जा सकता है| ऐसा लगता है,'आदिवासी धर्म'का नाम बिना किसी ऐतिहासिक तथ्य और मानव शास्त्र के समझ के बिना ही रख दिया गया है| 

संयुक्त राष्ट्र ने भी अपने घोषणा पत्र में कहा है कि – “
"आदिवासी लोगों के पास ... सांस्कृतिक, बौद्धिक, धार्मिक और आध्यात्मिक संपत्ति की पुनर्स्थापना का अधिकार है, जो उनकी स्वतंत्र और सूचित सहमति के बिना, या उनके कानूनों, परंपराओं और रीति-रिवाजों का उल्लंघन करते हैं।" (“Indigenous peoples have … the right to the restitution of cultural, intellectual, religious and spiritual property taken without their free and informed consent or in violation of their laws, traditions and customs.”). ऐसी स्थिति में उलंघन करने वालों को नुकसान भरपाई (compensation) देना होता है| ऐतिहासिक रूप से अन्य विस्तार वादी धर्म अपने वर्चस्व की लड़ाई आदिवासियों के मैदान मंत लाते रहे हैं और उन्हें अपने हिस्से का भीड़ बताते रहे हैं| इस वर्चस्व की लड़ाई में आदिवासियों के पृथक पहचान की हत्या होती रही है और ये सिर्फ राजनीतिक भीड़ में गिने जाते रहे हैं| इनके आस्था को पृथक पहचान न मिले इसके लिए वर्चस्व और विस्तार वादी राजनीतिक धर्में अलग-अलग रणनीति के तहत हर संभव कोशिश करते रहे हैं|
फिलहाल झारखण्ड सरकार ने विधान सभा से 'सरना/आदिवासी धर्म' की पहचान को सहमति दी है|इनका प्रयास सराहनीय है,लेकिन ये भी तार्किक नहीं है| नश्लीय (रेसियल) और आस्था की पहचान को विस्तृत रूप से समझने वालों से सरकार को परामर्श लेनी चाहिए, साथ ही 'सरना' की पहचान के प्रयास में झारखण्ड के अलावा अन्य राज्य के नीति निर्धारकों को भी आगे आना चाहिए|बात रही आदिवासी एकता के लिए'आदिवासी धर्म' मांगने की,तो ये भी तार्किक नहीं है| अबतक सभी प्रकार के ट्राइब के लिए 'अनुसूचित जनजाति' का प्रयोग होता आ रहा है तो कौन सी एकता की मिसाल आपने पेश कर लिए हैं? अपने नश्लीय पहचान के लिए 'आदिवासी/ इंडीजिनस/ अबोरिजिन' के लिए आदिवासी समुदाय संघर्ष कर सकते हैं,लेकिन आस्था/ अध्यात्म और नश्ल के अंतर को सूक्ष्म तरीके से देखने और समझने की जरुरत है| दूसरी ओर, अलग-अलग आदिवासी समुदायों के रूढ़िवादी परम्पराएं भी हैं और उनका व्यक्तिगत अस्तित्व भी महत्वपूर्ण हैं, इसलिए 'सरना' को सबों पर नहीं थोपा जा सकता| वास्तव में 'सरना' की तरह दूसरे आदिवासी समुदायों के द्वारा मांग की जाने वाली आस्था और अध्यात्म, जैसे – कोया पुनेम, भीली (कोई खास प्राकृतिक नाम बेहतर होगा), दोनी-पोलो इत्यादि को भी पृथक पहचान मिलना चाहिए।

Dr Ganesh Manjhi

आलेख: डा. गणेश माँझी, प्राध्यापक, दिल्ली विश्वविद्यालय

(नोट: यह लेख युवानिया के 15 दिसंबर 2020 अंक में छप चुका है)

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