9 अगस्त को मनाया जाने वाला विश्व आदिवासी दिवस (International Day of the World's Indigenous Peoples) आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक, सामाजिक, और राजनीतिक पहचान को सम्मानित करने और उनके अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ाने का एक वैश्विक प्रयास है। आइए इसके इतिहास और वर्तमान स्थिति को विस्तार से समझें:
इतिहास
- 1982: संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण पर कार्य समूह की पहली बैठक इसी दिन हुई थी, जिसमें आदिवासी मुद्दों पर चर्चा शुरू हुई।
- 1994: संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।
- 2007: संयुक्त राष्ट्र ने आदिवासियों के अधिकारों पर एक ऐतिहासिक घोषणा पत्र को मान्यता दी।
उद्देश्य
- आदिवासी समुदायों की संस्कृति, परंपरा, और अधिकारों को पहचान देना।
- उनकी भूमि, शिक्षा, स्वास्थ्य, और न्याय से जुड़ी समस्याओं पर वैश्विक ध्यान केंद्रित करना।
- पर्यावरण संरक्षण में उनकी भूमिका को स्वीकार करना।
भारत में स्थिति
- भारत में आदिवासी समुदाय को अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribe) के रूप में जाना जाता है।
- भारत में लगभग 10.45 करोड़ आदिवासी (2011 की जनगणना के अनुसार) हैं, जो कुल जनसंख्या का 8.6% हैं।
- ठक्कर बापा ने पहली बार “आदिवासी” शब्द का प्रयोग किया था।
- भारत में 705 उपजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें भील, संथाल, गोंड, उरांव, मुंडा आदि प्रमुख हैं।
- झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, ओडिशा जैसे राज्यों में यह दिवस रैली, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, और जनजागरूकता अभियानों के साथ मनाया जाता है।
वर्तमान चुनौतियाँ और जागरूकता
- पारंपरिक न्याय व्यवस्थाएँ जैसे उरांवों की पड़हा, मुंडाओं की मानकी, और संतालों की परगना अब कमजोर पड़ रही हैं।
- राजनीतिक दल अब आदिवासी मुद्दों को गंभीरता से ले रहे हैं, लेकिन व्यवहार में सुधार की आवश्यकता है।
- आदिवासी समाज में राजनीतिक चेतना और संगठनात्मक शक्ति बढ़ी है, परंतु सांस्कृतिक विविधता और एकता की कमी एक चुनौती बनी हुई है।
निष्कर्ष
विश्व आदिवासी दिवस सिर्फ एक उत्सव नहीं, बल्कि एक संघर्ष और सम्मान का प्रतीक है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि आदिवासी समुदाय केवल आंकड़े नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता के मूल स्तंभ हैं। उनके अधिकारों की रक्षा और उनकी संस्कृति का सम्मान करना हमारी सामाजिक जिम्मेदारी है।