किसी भी समाज की संस्कृति के बचे रहने के लिए उसकी अपनी भाषा का बचा होना ज़रूरी है। भाषा के बिना कैसे अपनी संस्कृति को बचाने की बात हो सकती है? भाषा अपनी संस्कृति को अभिव्यक्त करने का माध्यम तो होती ही है, वह एक शक्तिशाली सांस्कृतिक हथियार भी होती है।
किसी समाज को ख़त्म करना हो तो उससे, उसकी भाषा छीन लीजिए। वह अपने आप खत्म हो जाएगा। यह बात हमेशा वर्चस्ववादी समाज द्वारा कही जाती रही है। इसी तरीके से आदिवासियों को ख़त्म करने के लिए निरंतर प्रयास होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं।
आदिवासियों के लिए दूसरी भाषाओं का जानना जरूरी है ताकि वे यह समझ सकें कि दूसरे उनके बारे क्या लिखते, पढ़ते और बोलते हैं। आदिवासियों को दुनिया में अपनी बात स्पष्टता से कहने के लिए भी दूसरी भाषाएं जाननी चाहिए लेकिन दूसरी भाषाओं का जानना अपनी और अपनी पीढ़ियों की मानसिक गुलामी के लिए नहीं होनी चाहिए। यह संप्रेषण का माध्यम है। लेकिन अपनी जड़ों से जुड़े रहने और बचे रहने के लिए जरूरी है अपनी भाषा जानना और उसका साहित्य समृद्ध करना ताकि नई पीढ़ी अपना इतिहास, अपना जीवन दर्शन समझ सके, अपने पर अपना यकीन बनाए रख सके। जब भी वे भ्रमित होने लगे तो अपनी तरफ देख सके।
पर यह विडंबना है कि आदिवासी समाज के बहुत से लोग अपनी भाषा और लिपि को हेय की दृष्टि से देखते हैं। अपनी भाषा की लिपि को आगे बढ़ने नहीं लेकिन पीछे चले जाने का प्रतीक समझते हैं। ऐसे विचार गुलामी की मानसिकता से उत्पन्न होते हैं। अपने चारों ओर वर्चस्व की भाषा, संस्कृति से घिरे रहने के कारण अपनी भाषा और लिपि पर विश्वास नहीं पैदा हो पाता। समाज को आत्ममंथन करने की भी जरूरत है कि वे कौन सी सामाजिक कंडिशनिंग है जिससे कोई आदिवासी अपनी भाषा-लिपि पर गर्व नहीं महसूस कर पाता। यह पड़ताल करने से इसके कारण भी मिलेंगे। उन्हें स्पष्ट रूप से देखे और पहचाने बिना इस मानसिकता से मुक्ति नहीं मिलेगी।
इधर कुछ दिन पहले वीर बुधु भगत कुड़ुख़ स्कूल, सिसई (गुमला) जाना हुआ। और क्षेत्र में कुडुख़ भाषा ( उरांव आदिवासी समुदाय की भाषा) और उसकी लिपि (तोलोंग सिकि) को लेकर काम कर रहे लोगों से मिलने का मौका मिला। देखा, गांव के बच्चे हिंदी, इंग्लिश के साथ अपनी मातृभाषा कुडुख़ में भी पढ़ाई कर रहे हैं। दूसरे क्षेत्रों में भी ऐसे स्कूल चल रहे हैं।
तोलोंग सिकि लिपि को इसी प्रखंड के गांव सैंदा के निवासी डॉक्टर नारायण उरांव "सैंदा" ने बीस वर्ष की मेहनत से तैयार किया है। इसे सरकार की मान्यता प्राप्त है और इधर कई इलाकों में बच्चे इस लिपि से मैट्रिक की परीक्षा भी दे रहे हैं। लोग पहले से देवनागरी लिपि का प्रयोग करते रहे हैं। पर अब बच्चे दोनों लिपि में लिखने में समर्थ हो रहे हैं।
नए स्कूल के सामने एक मिट्टी का घर है।
लोगों ने बताया 11 साल तक उसी मिट्टी के स्कूल में लोगों ने मिलकर दूसरी भाषा के साथ मातृभाषा में भी बच्चों को पढ़ाया। बाद में पक्का स्कूल खुला। मिट्टी के घर को वेे अपनी स्मृति में बचाए रखना चाहते हैं। इसलिए उसेे पक्के स्कूल के सामने रहने दिया गया है। हर इतवार लोग संवाद के लिए बैठते हैं। उस दिन भी लोग बैठे थे। लोगों को सुना। वे अपनी व्यवस्था, अपनी जिम्मेदारियों और अपनी कमियों को लेकर आत्ममंथन कर रहे हैं। सीखने, सुनने को जागरूक हैं। उनके पास भविष्य का एक सपना भी है जिसमें नई पीढ़ी भाषा, संस्कृति, अपने समुदाय की पड़हा व्यवस्था सहित बाकी चीज़ो को जानें। जड़ों से जुड़ी रहे और आकाश की ओर उठे। आर्थिक उन्नति करें मगर ज्यादा मनुष्य बने रहें। विवेकशील और संवेदनशील भी।
और उन्हें सुनते-सुनते याद आया निर्मल वर्मा ने 1979 के आस-पास एक आलेख लिखा था। उसमें वे लिखते हैं कि मनुष्य का आत्मउन्मूलन संवाद के रास्ते में आज सबसे बड़ी बाधा है। इसका अतिक्रमण केवल आर्थिक संपन्नता से नहीं किया जा सकता, यह तथ्य हमें पहचानना है। एक रूसी या अमेरिकी मजदूर भारतीय मजदूर से अधिक संपन्न और समृद्ध है लेकिन क्या इसके कारण वह बेहतर मनुष्य, विविकेशील और संवेदनशील मनुष्य बन पाया है ? उल्टे उसका अजनबीपन, आत्मउन्मूलन का बोध, खालीपन और अधिक गहरा हुआ है। आर्थिक संपन्नता साधन है जिसके सहारे मनुष्य अपने को अधिक स्पष्ट रूप से पहचान सके, आसपास के सौंदर्य के प्रति कृतज्ञ हो सके और श्रम में अपनी आत्मा की उपलब्धि पा सके। प्रेम की भावना जिसे हमने संवाद और पहचान की अनिवार्य शर्त माना है क्या वह सिर्फ कला और धर्म में ही उपलब्ध हो सकती है? वह सामाजिक व्यवस्था की बुनियादी प्रतिज्ञा क्यों नहीं बन सकती? यह एक कसौटी है जिसके आधार पर सभ्यता, राज्य सत्ता और आर्थिक व्यवस्था को परखना होगा।
( संक्षिप्त परिचय : जसिंता केरकेट्टा झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले की हैं। वे उरांव आदिवासी समुदाय से हैं और हिंदी में लिखती हैं। वे युवा कवि, लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वे आदिवासी जीवन के संघर्ष, पीड़ा, प्रतिरोध और नई दृष्टी देने वाली कविताओं के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हैं और कई देशों के विश्वविद्यालयों में उनकी कविताएं पढ़ी और पढ़ाई जा रही हैं। अब तक उनके दो हिंदी- इंग्लिश द्विभाषिक कविता संग्रह "अंगोर " और "जड़ों की ज़मीन/ Land of the roots" प्रकाशित हैं। ये संग्रह जर्मन, इतालवी, फ्रेंच भाषा में भी प्रकाशित हैं। 2020 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, अमेरिका और फ्रांस में उन्होंने अपने अनुभव साझा किए हैं। साथ ही कई दूसरे देशों में कविताओं के माध्यम से वे लगातार आदिवासियत की बात करती रहीं हैं।)