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आदिवासी त्यौहार मनते रहें ... ताकि धरती की उर्वरता, निर्मलता बची रहे !

आज संपूर्ण विश्व में आदिवासियों के जीवन-व्यवहार, पर्व-त्यौहार, इतिहास, भोजन, रहन-सहन और भाषा, संस्कृति का अध्ययन किया जा रहा है. ऐसा नहीं है कि पहले इनका अध्ययन नहीं किया जा रहा था. यूरोपीय मानव-विज्ञानइन्हें कभी सब-ह्यूमन कह रहा था और लोग इनके नरभक्षी होने, इनकी निर्वस्त्रता, निरक्षरता, गरीबी, विचित्रता को कौतुहलवश देख रहे थे, उन्हें पिछड़ा, निम्न्नस्तरीय बताने के लिए कई सारे मापदंड तैयार कर रहे थे. वहीं सन् 1994 से, दो बार संयुक्त राष्ट्र संघ ने आदिवासी दशक के रूप में मनाया और दुनिया भर में विभिन्न तरह के कार्यक्रम आदि आयोजित किए गए. इस तरह आज प्रबुद्ध और संवेदनशील लोगों के बीच आदिवासी-जीवन पर गहन शोध और अध्ययन की गतिविधियाँ केन्द्रबिंदु में आ गई है. आखिर आदिवासियों ने ऐसा क्या किया कि विश्व-समुदाय का बौद्धिक-जगत उनके जीवन, परिवेश, रहन-सहन, पर्व-त्यौहार, दर्शन आदि के बारे जानने के लिए उत्सुक हो गया है? पिछले कुछ दशकों की अंतरराष्ट्रीय घटनाओं को देखें तो 1993 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा नौ (09) अगस्त को आदिवासी दिवस (इंडीजीनियस डे) के रूप में मनाए जाने की घोषणा से एक नया माहौल बना. रियो डि जेनेरो में 1992 में अरसठ देशों के चार सौ विभिन्न संगठनों के समांतर सम्मेलन आयोजित कर विकसित देशों को एहसास कराया कि अब इस प्रश्न से मुकरना संभव नहीं.पिछले साल से कोविड-19 की महामारी ने पुनः आदिवासी जीवन-शैली को समझने को अवसर दिया और कई विद्वानों ने पाया कि आदिवासियों की जीवन-परंपरा ने उन्हें इस महामारी से काफी हद तक बचाए रखा. अब अगले वर्ष 2022 से आदिवासी भाषा दशक मनाए जाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र संघ ने की है तो इसका भी विशेष अर्थ है कि प्रबुद्ध व संवेदनशील बौद्धिक जगत, आदिवासी-भाषाओं के माध्यम से उनके जीवन के रहस्यों और दर्शन आदि को और अंतरंगता से समझना चाहता है. यहाँ एक घटना उल्लेखनीय है कि सन् अक्तूबर-2011 में, रोम में विश्वन्याय,शांति के लिए प्रार्थना एव संवाद के लिए सर्व-धर्म-सम्मेलन आयोजित किया गया था जिसमें झारखंड से मुकेश बिरूआ एक सरना प्रतिनिधि के रूप में आमंत्रित थे. जहाँ उन्होंने विश्व समुदाय को आदिवासियों के धर्म और अध्यात्म को प्रकृति और मनुष्य से अविभाज्य तरीके से जुड़ा बताया. साथ ही प्रार्थना के लिए खुले स्थान की माँग की तो सभी आश्यर्यचकित रह गए कि- खुले-स्थान में कैसे प्रार्थना किया जा सकता है? लेकिन, जब मुकेश ने इसके महत्व को बताया व प्रकृति से आदिवासियों के गहरे, आत्मीयसंबंध की व्याख्या की तो सभी ने उसके विचारों की तारीफ की और आदिवासियों को धरती-रक्षक, प्रकृति-रक्षक माना. इस घटना ने विशेषतः झारखंड के आदिवासियों को उनके जल, जंगल, जमीन, जमीर, जड़, जीवन और जबान आदि से जुड़े मुद्दों, विषयों को एक नया कलेवर, आत्मविश्वास, छवि और सम्मान दिया. साथ ही विश्व-पटल पर यह संदेश गया कि- आदिवासी ही प्रकृति के सच्चे हितैषी, उपासक, रक्षक और शुभचिंतक हैं.

उपर्युक्त घटनाओं की चर्चा इसलिए जरूरी है क्योंकि आज भी अधिकांश सभ्य समाज, आदिवासियों के प्रति वही रवैया अपनाए हुए है जो कि अट्ठारहवी-उन्नीसवीं सदी के यूरोपीय विद्वानों द्वारा विकसित की गई थी. इस छवि से कई आदिवासी स्वयं निकल नहीं पाए हैं. फलतः, अपने पर्व-त्यौहारों, रीति-रिवाज, नेग-चार आदि को लेकर इनमें एक हीनता थी. लेकिन, स्व. कार्तिक उराँव और पद्मश्री रामदयाल मुण्डा जैसे सजग आदिवासी सांस्कृतिक अगुवों के अथक प्रयासों के कारण, आज इक्कीसवीं सदी में झारखंड के आदिवासी अपने सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषिक, आध्यात्मिक परंपराओं, दस्तूरों को लगातार समझने, पुनर्भाषित, व्य़ाख्यायित करने में जुटे हैं. यही कारण है कि आज बाहा, सरहुल, करम, सोहराई, माघे, फग्गु, तुसगो, नवाखानी, हरियारी-पूजा आदि अनेक त्योहारों को लोग गंभीरतापूर्वक, पूरे सम्मानके साथ मनाते हुए दिखने लगे हैं.क्योंकि अब उन्हें पता चल गया है ये त्यौहार आदि मात्र नाच-गान करने, हंड़िया पीने, पशु-पक्षी बलि आदि चढ़ाने का अनुष्ठान भर नहीं है बल्कि प्रकृति, मनुष्य और  धरती से जुड़ी सहजीविता, एकजुटता और उनके समग्र जीवन-चक्र को सम्मानपूर्वक, सृजनशील, उर्वर बनाए रखने के लिए, नये संकल्प व उत्साह के साथ जीने का संदेश भी, इनमें समाहित है.
इसलिए खद्दी (सरहुल), बाहा या बा के अलावे अन्य कोई त्यौहारहो,वह मात्र सिङबोंगा, धरमे, मराङबुरू आदि से गोहारी करने का अवसर भर नही है अपितु प्रायः सभी में- प्रकृति, धरती, जीव-जंतु, वनस्पति आदि के साथ मनुष्य से उनके सहजीवी-संबंध को पुनःस्मरण करने, उन्हें सम्मान देने और उनके उर्वर, स्वच्छ व स्वस्थरहने की शुभकामना से भी जुड़ा है. चूँकि अब आदिवासियों को ज्ञान हो गया है कि उनके पुरखे यह सब करते, यूरोपीय विद्वानों के अनुसार कोई पिशाच-पूजा, भूत-पूजा आदि नहीं कर रहे थे बल्कि प्रकृति के साथ अपने सह-अस्तित्व, कृषि-गतिविधियों, धरती को सुरक्षित रखने की अपनीनिष्ठा को व्यक्त कर रहे हैं. साथ ही अपने कर्तव्य को दुहरा रहे हैं.अतः, आदिवासियों से जुड़ी हर परंपरा, रीति-रिवाज, दस्तूरोंकी अहमियत को समझने की चेष्टा आज पूरी दुनिया में दिख रही है.फिर वह संयुक्त राष्ट्र संघ हो, नेशनल ज्योग्राफी, डिस्कवरी, हिस्ट्री, फूड, एडवेंचर चैनल हों या विज्ञान, औषधि आदि की पत्रिका हो, सभी आदिवासी जीवन-शैली में छिपे नॉलेजको खोजने, समझने का प्रयास करते दिखते हैं. क्योंकि सभ्य समाज को अब पता चल गया है कि आदिवासी-जीवन-मूल्यों और आदिवासियों की उपेक्षा ने उन्हें विकास, सभ्यता, विज्ञाऩ, व्यापार, बाजार, मुनाफा, आधुनिक-तकनीकी-शिक्षा में आगे बढ़ने की अहंकारपूर्ण सोच ने,उन्हें पूरी दुनिया में विनाश के मुँह पर खड़ा कर दिया है. इस खतरे से धरती, प्रकृति और मनुष्य को बचाने की रोशनी, उन्हें आदिवासी-जीवन-परंपरामें दिखाई देने लगी है.नहीं तो आज पूरी दुनिया में आदिवासी से जुडने की  होड़ क्योंमची हुई है?

महादेव टोप्‍पो

आलेख: महादेव टोप्पो

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