संविधान की पाँचवी अनुसूची तथा माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये ऐतिहासिक समता निर्णय 1997, का राज्य सरकार तथा प्रशासनिक तंत्र द्वारा घोर उल्लंघन का आरोप लगाते हुये संविधान की पाँचवी अनुसूची के तहत् प्रशासित एवं नियंत्रित अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासियों के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं संविधानिक सुरक्षा हेतु जमीन के अंतरण पर पूर्णतः रोक लगाने के की माँग करते हुये अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के तत्वाधान में पूर्वी सिंहभूम जिला अन्तर्गत पोटका एवं सरायकेला खरसांवा अन्तर्गत राजनगर से 165 कि0मी0 की पदयात्रा पूरी कर आदिवासी मूलवासियों ने डॉ0निर्मल मिंज की अध्यक्षता में राँची में धरना प्रदर्शन किया।
राज्यपाल को दिये गये ज्ञापन में कहा गया है कि आदिवासियों ने उपर्युक्त संविधानिक संरक्षण के बावजूद जल, जंगल और जमीन से विस्थापित होकर भयानक शोषण एवं अत्याचार सहन किया है। आदिवासी लोग दुखी हैं, निराश हैं और इसकी वजह ये है कि पिछले 65 सालों में किसी भी सरकार की तरफ से वास्तविक एवं अर्थपूर्ण समाधान उनकी संविधानिक सुरक्षा की खातिर नहीं उठाया गया।
ज्ञापन में कहा गया है कि संविधान की पाँचवी अनुसूची के तहत् अपवादों एवं उपान्तरणों के अधीन रहते हुए अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन एवं नियंत्रण तथा भूमि के आबंटन एवं अन्तरण के लिए विशेष उपबंध किये गये हैं, जिसके आलोक में इस अनुसूची के उपबंधों के अधीन रहते हुए किसी राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार उनके अनुसूचित क्षेत्रों पर है। राज्य सरकार ने अपनी कार्यपालिका शक्ति का उपयोग करते हुए झारखण्ड राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों पर भी आदिवासी-मूलवासियों के खूंटकट्टी जमीनों को सैकड़ों बड़े औद्योगिक प्रष्तिठानों के साथ डव्न् (एम0ओ0यू0) पर हस्ताक्षर कर दांव पर लगाया गया है, जिसका अनुमोदन पाँचवी अनुसूची के तहत् गठित जनजाति सलाहकार परिषद् द्वारा भी नहीं कराया गया, जिसके फलस्वरूप उक्त संवैधानिक प्रावधानों का घोर उल्लंघन किया गया है।
अनुसूचित क्षेत्रों में शान्ति एवं सुशासन को भंग करने के निमित् राज्य सरकार द्वारा स्वयं आदिवासियों को जमीन से विस्थापित करने सम्बन्धि नीति का निर्धारण करना आदिवासियों की अस्मिता एवं अस्तित्व को क्षति पहुँचाना बताते हुये ज्ञापन में कहा गया है कि राज्य तथा सरकार के अस्तित्व में आने के पूर्व आदिवासियों की परम्परागत पैतृक भूमि प्रकृति प्रदत्त है और इसीलिए आदिवासियों की भूमि अहस्तांतरणीय है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी निज कूल में ही उत्तराधिकारिता के आधार पर स्वतः हस्तांतरित होता रहता है, यानि परम्परागत रीति-रिवाज के अनुसार जमीन पर व्यक्ति विशेष का स्वामित्व नहीं है बल्कि पूरे गाँव समाज का है। राज्य अथवा सरकार द्वारा आदिवासियों को भूमि प्रदत्त न किए जाने के आधार पर सिद्धान्ततः सरकार द्वारा उनकी भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जाना चाहिए। राज्य के अस्तित्व में आने के उपरान्त सरकार द्वारा प्रदत जमीन का ही प्रशासन द्वारा नियमतः अधिग्रहण किया जाना चाहिए।
ज्ञापन में सवाल किया गया है कि माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये ऐतिहासिक समता निर्णय, 1997 के अनुसार किसी भी कीमत में अनुसूचित क्षेत्रों में गैरआदिवासियों को खनन् पट्टा या परियोजनाओं के लिए जमीन उपलब्ध नहीं किया जा सकता है, यहाँ तक कि सरकारी निगमों/ उपक्रमों को भी आदिवासियों की रैयती जमीन पर लीज बन्दोबस्ती नहीं दी जा सकती है। क्या देशी-विदेशी बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठान, समता निर्णय में इंगित सरकारी निगमों से अपवाद या ऊपर हैं, जिनके लिए भू-अधिग्रहण हेतु सरकार की सारी शक्ति लगा दी गयी है।
ज्ञापन में कहा गया है कि पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम 1996 की धारा 4(झ) के अनुसार परियोजनाओं हेतु भू-अर्जन के पूर्व ग्राम सभाओं से परामर्श किया जाना आवश्यक है, जिसका उल्लंघन करके अनगिनत गांवों को विस्थापित करने के उद्येश्य से उद्योग हेतु भू-अर्जन को सरकार द्वारा प्रतिष्ठा का विषय बना लिया गया है।
प्रदर्शनकारियों ने कहा कि औद्योगिक प्रतिष्ठानों के साथ अनगिनत एकरारनामा पर हस्ताक्षर होने के उपरान्त सरकारी तंत्र द्वारा बारम्बार आश्वासन एवं वक्तव्य दिया जा रहा है कि औद्योगिक घरानों द्वारा कल-कारखानों की स्थापना होने पर उचित मुआवजा सहित रोजगार एवं पुनर्वास की सुविधा उपलब्ध करायी जाएगी, साथ ही लोगों के जीवन स्तर में सुधार तथा क्षेत्र का सर्वांगीण विकास होगा। इन सरकारी वक्तव्यों में कितनी सत्यता है, इसका स्पष्ट प्रमाण या जमीनी सच्चाई नीचे उल्लिखित तथ्यों से स्वतः स्पष्ट होगा:- कि, स्वतंत्रता के बाद हमारी जमीन पर कल-कारखाने खदानों डैम परियोजनाओं तथा सेना के लिए फायरिंग रेंज आदि की लगातार स्थापना के फलस्वरूप हमारी आबादी पर दूरगामी परिणाम सामने आए हैं तभी तो प्रत्येक 10 साल के अन्तराल में होने वाली जनगणना में हमारी आबादी 76 प्रतिशत से घटकर 2001 की जनगणना में 27 प्रतिशत रह गयी है, और बड़े उद्योग स्थापित होने की स्थिति में हमारी आबादी लुप्त हो जाएगी। जबकि परियोजनाओं के नाम पर सरकार द्वारा विस्थापित लाखों लोगों को अब तक मुआवजा का भुगतान नही किया गया है एक सर्वेक्षण के अनुसार झारखण्ड राज्य में सरकारी तथा गैर सरकारी परियोजनाओं से विस्थापित 6 लाख आदिवासियों का पुनर्वास कहीं नहीं किया गया और वे कंगाली की स्थिति में दर-दर भटक रहे हैं। चलचित्र की तहत उक्त सच्चाई की मौजूदगी में सरकार का आश्वासन आदिवासियों के लिए एक क्रूर मजाक है।
इंडियन ब्यूरो आॅफ माईन्स प्रतिवेदन 1974 के अनुसार कोल्हान प्रमंडल के अन्तर्गत 40 छोटे-बड़े कारखाने तथा 300 खदानों सहित 4 शहरों से बढ़कर आज 24 शहर हो गये। ऐसी परिस्थिति में यदि टाटा, बोकारो, एच0ई0सी0 राँची और धनबाद जैसे एस्सार, मित्तल एवं जिंदल आदि कम्पनियों के लिए महानगरी बनेंगी तो आदिवासियों की स्थिति बद से बदतर हो जाएगी। वर्ष1907 तथा वर्ष 1946 में स्थापित क्रमशः टाटा एवं ए0सी0सी0 झींकपानी आदि कल-कारखानों में आदिवासियों और मूलवासी कामगारों की संख्या नगण्य है। हाथ कंगन को आरसी क्या- जैसे कहावत के आलोक में प्रस्तावित बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठानों में विस्थापितों को सरकार द्वारा रोजगार की गांरटी देने संबंधी आश्वासन निराधार एवं अविश्वासनीय है। सरकारी प्रतिष्ठानों यथा:- बोकारो, एच0ई0सी0 हटिया, किरीबुरू, गुवा तथा चिडि़या मंे जहाँ सरकारी आरक्षण नीति लागू है, फिर भी आदिवासियों को देय आरक्षण अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है, ऐसे में प्रस्तावित निजी प्रतिष्ठानों में जो सरकारी आरक्षण नीति से बाहर है आदिवासियों को रोजगार देने का प्रश्न ही नहीं उठता है।
ज्ञापन में कहा गया है कि परियोजनाओं एवं प्रतिष्ठानों के नाम पर “आदिवासी/मूलवासियों को विस्थापित करो और उनके स्थान पर बाहरी आबादी बसाओ’’ की जनविरोधी नीति को सरकार द्वारा जबरन लागू करना न्यायोचित नहीं है। सरकार की इस क्रूरतापूर्ण दमननीति के चलते यह प्रमाणित हो गया है कि राष्ट्र के विकास के नाम पर आदिवासियों का विनाश होता आया है, हो रहा है और होगा, जिसके आलोक में अब तक प्राप्त कटु अनुभव के आधार पर हम लोगों का अडिग फैसला है कि अपनी भूमि किसी भी हालत में, आखिरी दम तक प्रतिष्ठानों के नाम पर अधिगृहित नहीं होने देंगे। इस संबंध में कोई जोर जबरदस्ती करके हमें संघर्ष का रास्ता अपनाने के लिए बाध्य न किया जाए।”
ज्ञापन में कहा गया है कि “झारखण्ड राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों में भारतीय संविधान के तहत् लोकतंत्र एवं स्वाराज की स्थापना हेतु राज्यपाल महोदय लोक अधिसूचना द्वारा पाचवीं अनुसूची के पारा 5.1 के तहत् सामान्य कानूनों को अपवादों एवं उपान्तरणों के अधीन रहते हुए आदिवासी सलाहकार परिषद् से परामर्श कर राष्ट्रपति महोदय से अनुमोदन कराने के बाद लागू नहीं करते हैं तब तक लागू नहीं होगा-रामकृपाल भगत बनाम बिहार सरकार, सुप्रीम कोर्ट का फैसला 1968 अतः IPC 1860 ,एवं CRPC 1908 जैसे सामान्य कानूनों को अपवादों एवं उपान्तरणों के अधीन रहते हुए अधिसूचना द्वारा लागू किए बिना हजारों आदिवासियों एवं मूलवासियों को अनुसूचित क्षेत्रों के विभिन्न जेलों में बंद रखना असंवैधानिक एवं मानवाधिकारों का हनन है। 30 सितम्बर 2012 को आपके जमशेदपुर आगमन पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने वाले अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के सदस्यों पर जो मामले दर्ज किए गए थे, उसे उपरोक्त के आलोक में अविलम्ब समाप्त किया जाए।”
ज्ञापन की मुख्य माँगें इस प्रकार हैं —
— अनुसूचित क्षेत्र अन्तर्गत पोटका प्रखण्ड में भूषण स्टील एण्ड पावर प्लांट के साथ झारखण्ड सरकार के एमओयू को रद्द किया जाए। पूर्वी सिंहभूम के खैरबानी में कचड़ा फेंकने के लिए ग्राम सभा की अनुमति के बिना कैसे भूमि अधिग्रहित की गई, इसे अविलम्ब रद्द किया जाए।
— उपरोक्त कई कारणों से कोल्हान के आदिवासी झारखण्ड के साथ अपना भविष्य नहीं देख पा रहे हैं इसीलिए वहां की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं पारम्पारिक व्यवस्था के अनुकूल कोल्हान को केेन्द्र शासित राज्य की मान्यता दी जाए।
— नगड़ी मामले में संविधानिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए आदिवासी हित में अधिग्रहण को रद्द किया जाए एवं सामान्य कानून(अनुसूचित क्षेत्र में अवैध) के तहत् जेल में बंद आन्दोलनकारियों को रिहा किया जाए।
— अनुसूचित क्षेत्रों में राज्यपाल की लोकअधिसूचना के बिना एवं ग्राम सभा की अनुमति के बगैर सभी CRPF कैम्पों को हटाया जाए।
— स्वर्णरेखा बहुउद्देशीय परियोजना अन्तर्गत विस्थापन जनित विनाशकारी ईचा डैम को पूर्णतः रद्द किया जाए।
— सम्पति अंतरण अधिनियम1882, कोल वियरिंग एरिया एक्विजिशन एण्ड डेवेलपमेन्ट एक्ट1957 तथा भूमि अधिग्रहण कानून1894 पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों में लागू नहीं हैं चूंकि राज्यपाल ने संविधान के अनुच्छेद244-1 के पारा5-1 द्वारा अथवा पारा (5.2) के तहत् विनियमन बना कर लागू नहीं किया है।
— अनुसूचित क्षेत्रों में खनिज सम्पदा का लीज पट्टा आदिवासियों की सहकारिता समिति को ही दिया जाए।(सुप्रीम कोर्ट के समता बनाम आन्ध्रप्रदेश राज्य फैसला1997)
— आदिवासियों की विशेष पहचान “सरना” को धर्म कोड के रूप में अविलम्ब मान्यता दिया जाए।
— संविधानिक, सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय की गारंटियों के लिए पेसा कानून1997, सी0एन0टी0एक्ट1908, एस0पी0टी0एक्ट1949, अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम1989, एवं अनुसूचित जनजातियों और अन्य परम्परागत वन निवासी(वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम2006 को दृढ़तापूर्वक लागू किया जाए।
— आम आदमियों को पुलिस की परेशानी से बचाने के लिए परम्परागत स्वाशासन एवं संस्थाएं/ग्रामीण अदालतों को तीन साल तक की सजा वाले क्रिमिनल व सिविल मामले की प्राथमिकी दर्ज करने तथा फैसला करने का अधिकार दिया जाए।
— विश्वविद्यालयों में स्नाकोत्तर विभाग खोलने के बाद मुख्य रूप से जनजातिय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग में हो’ मुण्डा, संथाल, उराँव(कुड़ुख), खडि़या, नागपुरिया, खोरठा, पंच परगनिया, कुरमाली भाषाओं की पढ़ाई चल रही है पर विभागाध्यक्ष एक ही है। इसे दुरूस्त करते हुए सभी भाषाओं को विभागाध्यक्ष एवं सम्पूर्ण पद यथाशीघ्र दिया जाए।”
ज्ञापन में राज्यपाल से कहा गया है संविधान की पाँचवी अनुसूची में किये गए उपबंधों के तहत् आप हमारे संवैधानिक अभिभावक एवं संरक्षक हैं। हमें पूर्ण विश्वास है कि आप संविधान प्रदत्त जिम्मेदारियों के आधार पर राष्ट्रीय विकास के नाम पर हमारा विनाश रोकेंगे।