कुँड़ुख़ तोलोंग सिकि के विकास का आरंभ वर्ष 1989 में हुआ। यह संदर्भ दरभंगा मेडिकल कॉलेज अस्पताल‚ लहेरियासराय (बिहार) में एमबीबीएस कर रहे एक उराँव आदिवासी युवक श्री नारायण उराँव के जीवन संर्घष की कथा से जुड़ा हुआ है। वे वर्तमान में झारखण्ड चिकित्सा सेवा में चिकित्सा पदाधिकारी हैं। वे अपने कॉलेज के दिनों को याद करते हुए अपनी शिक्षा संघर्ष की कथा का बयान करते हैं कि किस प्रकार वे एमबीबीएस की पढ़ाई के साथ–साथ साहित्य सृजन का कार्य करने लगे।
नारायण उराँव जी की मैट्रिकुलेशन तक की शिक्षा अपने पैतृक गाँव सैन्दा‚ सिसई‚ गुमला (बिहार/झारखण्ड) में रहकर संत तुलसीदास उच्च विद्यालय सिसई‚ गुमला से हुई। मैट्रिकुलेशन के बाद आगे की पढ़ाई के लिए उनके किसान माता-पिता‚ सिसई थाना क्षेत्र में स्थित स्थानीय महाविद्यालय में ही नामांकन करवाने की योजना बना रहे थे। उनके पिता स्व. भुनेश्वर उराँव 8वीं पास थे तथा उनकी माता श्रीमती फूलमनी उराँव 7वीं पास थीं। माता-पिता अपने बेटे को कॉलेज में पढ़ाना तो चाहते थे‚ पर घर से दूर भेजना नहीं चाहते थे। इसी क्रम में उनके माताजी की एक सहेली श्रीमती सीतामनी देवी जो सिसई प्रखण्ड कार्यालय में ‘ग्रामसेविका‘ के पद पर कार्यरत थीं‚ ने अपनी सहेली के बेटे को अपने बेटे की तरह आगे की पढ़ाई के लिए राँची के किसी बड़े कॉलेज में नामांकन के लिए प्रेरित किया। दोनों सहेली में बेटे की पढ़ाई के लिए नोक-झोंक हुआ और माता फूलमनी जी को अपनी सहेली श्रीमती सीतामनी जी के छाता का मार भी सहना पड़ा। उसके बाद ‘ग्रामसेविका‘ श्रीमती सीतामनी देवी ने स्वयं अपनी सहेली के बेटे को राँची ले जाकर राँची कॉलेज‚ राँची तथा संत जेवियर कॉलेज‚ राँची में विज्ञान विषय (जीवविज्ञान के साथ) की पढ़ाई हेतु आवेदन जमा करवाया और बाद में राँची कॉलेज‚ राँची में नामांकन हुआ। साथ ही राँची में रहने के लिए आदिवासी कॉलेज छात्रावास में नामांकन करवाया गया।
राँची कॉलेज‚ राँची में अध्ययनरत नारायण जी को 1979–81 सत्र के दिनों में चल रहे झारखण्ड अलग प्रांत आंदोलन के जुलूस एवं मिटिंग आदि में भी अन्य छात्रों के साथ शामिल होना पड़ता था। वे जिस छात्रावास में रहते थे वह छात्रावास इस आंदोलन की कर्मभूमि थी। इस तरह उन्हें छात्र राजनीति एवं राज्य एवं देश की राजनीति थोड़ी बहुत दिखाई पड़ने लगी। इन तमाम परिस्थितियों के बीच उच्च शिक्षा की पढ़ाई हेतु तैयारी भी करना था। अंतत्वोगत्वा सत्र 1981–82 के पीएमडीटी टेस्ट में उतीर्ण होने के बाद दरभंगा मेडिकल कालेज‚ लहेरियासराय (बिहार) में 1981 के अंत में नामांकन के लिए निबंधित पत्र आया। उनके पिता‚ मेडिकल की पढ़ाई का खर्च उठाने में असमर्थ दिखे‚ परन्तु उनकी माताजी ने हिम्मत दिखाया और उनका नामांकन हो गया।
श्री नारायण जी जब गाँव से राँची शहर तथा राँची शहर से मिथिला नगरी दरभंगा में रहते हुए अध्ययनरत थे‚ तब उन्हें कई नई-नई बातें देखने‚ सुनने एवं समझने को मिला। दरभंगा मेडिकल कॉलेज में नामांकण करवाने के एक महीने बाद ही फारवर्ड एवं बैकवर्ड मेडिकल छात्रों में झगड़ा हो गया और साइनडाई (अनिश्चित कालीन हड़ताल) हो गया। कुछ महीनों बाद फिर से दूसरा साइनडाई हो गया। इस तरह मेडिकल कॉलेज जैसी जगह में भी अगड़ी जाति और पिछड़ी जाति का भेदभाव आरंभिक दिनों में ही झेलना पड़ा। कई उतार–चढ़ाव के साथ समय बीतता गया। इस दौरान अपने सहपाठियों के साथ मेल-जोल बढ़ा और पढ़ाई का सत्र भी आगे बढ़ता गया। इन्हीं दिनों नारायण जी ने एक पंजाबी सहपाठी को अन्य दोस्तों की तरह ‘‘ओ सरदार’’ जी बोल दिया। तब उस पंजाबी सहपाठी ने नारायण जी को ‘‘क्या जंगली जी’’ कहकर संबोधित किया। नारायण जी अपने लिए ‘‘जंगली’’ संबोधन सुनकर आग-बबूला हुए और उस पंजाबी सहपाठी से उलझ गये‚ फिर मामला सामान्य हुआ। परन्तु अपने लिए अपने साथियों द्वारा ‘‘जंगली’’ शब्द का संबोधन दिये जाने को लेकर विचलित हो गये और उनकी अभिरूचि साहित्य एवं इतिहास के पुस्तकों की ओर होने लगी।
इस तरह मैथिली भाषियों के बीच मिथिला की नगरी दरभंगा में रहते हुए भाई-भतीजावाद‚ जातिवाद‚ अस्पृश्यता आदि बातों को वे देखने एवं समझने लगे। इस समय-काल में बिहार में झारखण्ड/बनांचल अलग प्रांत की आवाज भी बुलंद हो रही थी। पर आदिवासियों को वनवासी कहने को लेकर घोर विरोध का स्वर भी उठने लगा था। नारायण जी भी अपने एक सहपाठी, श्री सिन्हा जी‚ जो एनएमओ के सक्रिय सदस्य थे, के साथ वनवासी और बनांचल शब्द पर चर्चा करने लगे। नारायण जी का कहना था कि आदिवासियों को ‘‘वनवासी’’ क्यों कहा जाता हैॽ उस क्षेत्र में तो सभी प्रकार के लोग निवास करते हैं‚ तो फिर सिर्फ आदिवासयों को ‘‘वनवासी’’ क्यों कहा जाता हैॽ यह हम सभी आदिवासियों को पसंद नहीं है। इस पर श्री सिन्हा जी बोले - यहाँ सिर्फ आप लोगों को केवल आदिवसी कहा जाता है‚ जो हम बहुसंख्यक लोगों को आपत्ति है। इस देश में यहाँ के बहुसंख्यक भी आदि काल से निवास कर रहे हैं! तो सिर्फ कुछ लोगों को ही आदिवासी कहे जाने से हम बहुसंख्यकों को पसंद नहीं है। यह बात सुनकर नारायण जी हक्का-बक्का हो गये और तब वे देश की राजनीति तथा बहुसंख्यक समाज की कूटनीति से रू-ब-रू हुए। यह घटना उनके जीवन का टर्निंग पॉइन्ट था। वे अनायास ही संस्कृत साहित्य के अध्ययन की ओर आगे बढ़ने लगे और मानव सर्जरी के साथ सामाजिक सर्जरी विषय पर भी अध्ययन करने लगे।
इसी क्रम में नारायण जी द्वारा आदिवासी समाज के सामयिक विषयों पर आधारित एक किताब का लेखन एवं प्रकाशन करवाया गया‚ जिसका नाम है - सरना समाज और उसका अस्तित्व। इस पुस्तक लेखन के दौरान उन्हें अपनी मातृभाषा की लिपि की आवश्यकता महशूस हुई और इस दिशा में अग्रेतर कार्य करने लगे।
इस उधेड़बुन में अस्पताल में कार्य करते हुए उनका ध्यान दो चीजों पर पड़ा -
1. माला डी - गर्भ निरोधक गोली की पर्ची।
2. 100 रूपये का नोट।
इन दोनों पर्चियों में एक ही शब्द को कई लिपियों में अलग-अलग तरीके से लिखा हुआ मिला। इसे देखकर उनका हृदय रोमांचित हो उठा और सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे आदिवासी भाषा एवं सांस्कृतिक धरोहर को बचाने की कड़ी की माला में एक फूल पिरोने का कार्य आरंभ किया। ईश्वरीय प्रेरणा से उनको आभास हुआ कि यदि आदिवासियों की भाषा की भी अपनी लिपि होती तो इन पर्चियों में आदिवासियों की भाषा भी दर्ज होती। इस विचार धारा के साथ आगे बढ़ते हुए कई वर्षों तक कार्य करने के बाद नारायण जी ने आखिरकार 24 सितम्बर 1993 में अपने अनुसंधान की कलाकृति को कुँड़ुख़ (उराँव) आदिवासी समाज के सामने अवलोकन के लिए प्रस्तुत किये। इस आशय पर दिनांक 07 अक्टूबर 1993 को हिन्दी दैनिक ‘आज’ में एक आलेख छपा और धीरे-धीरे कार्य आगे बढ़ता गया।
आलेख:-
डॉ० (श्रीमती) शांति ख़लख़ो
सहायक प्राध्यापक (अनुबंध)
जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग,
विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग।