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आदिवासी परम्परा एवं प्रकृति विज्ञान

प्रस्तुत शीर्षक ‘‘आदिवासी परम्परा एवं प्रकृति विज्ञान’’ के द्वारा भारत देश में निवासरत आदिवासी समाज एवं उनकी जीवन गाथा में प्र.ति और उनका प्रेम को आप पाठकों तक बतलाने का यह मामूली सा प्रयास है। वैसे भारतीय संविधान में ‘‘आदिवासी’’ शब्द की परिभाशा स्पष्‍‍‍ट नहीं है फिर भी भारतीय मानस पटल पर यह शब्द प्रचलित एवं मान्य है। संवैधानिक एवं प्रशासनिक दृश्टिकोण से इस समूह के लोगों के लिए अनुसूचित जनजाति शब्द का प्रयोग किया जाता है। वहीं पर इस समूह के लोग अनुसूचित जनजाति के नाम पर संबोधित किये जाने पर अपने को ठगा हुआ महसूस करते हैं। उन्हें ‘‘आदिवासी’’ कहलाना अच्छा लगता है।                    
इस शब्द के पीछे कौन सा मर्म है, जिसके चलते संवैधानिक दृश्टि से अनुसूचित जनजाति कहे जाने वाले लोग अपने को आदिवासी कहलाने में गर्व महसूस करते हैं और बहुसंख्यक भारतीय समाज द्वारा आदिवासी न कहे जाने के लिए घेराबन्दी किया जाता रहा है, इन गंभीर तथ्यों पर परिचर्चा तो होनी ही चाहिए। झारखण्ड आन्दोलन के क्रम में 13 अगस्त 1991 को हिन्दी दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ में एक खबर छपी - राँची विश्‍वविद्यालय राँची के पूर्व कुलपति, डॉ0 रामदयाल मुण्डा ने यू0एन0ओ0 में आदिवासियों के विकास की बात उठायी। इस पर भारत सरकार के प्रतिनिधि ने कहा कि भारत में आदिवासी नामक कोर्इ चीज (जाति) नहीं है। (डॉ0 रामदयाल मुण्डा द्वारा यू0एन0ओ0 से लौटकर दी गर्इ जानकारी के आधार पर।)              
उपरोक्त संवेदनशील विशय पर अध्ययन करने पर यह तथ्य सामने आता है कि भारत देश में मूल रूप से दो प्राचीन सभ्यता, एक परम्परा की तरह सदियों से साथ-साथ फली-फूली और आज भी विद्यमान है। सभ्यता के विकास के क्रम में कर्इ बार इस सभ्यता के बीच आपसी मतभेद हुआ हो, किन्तु उनके बीच प्रकृति से जुड़ी हुर्इ अवधारणाओं के चलते भिन्नता में एकता का परिचायक भी कहलाती रही हैं। सभ्यता विकास के लम्बे समय अंतराल में कर्इ वैचारिक क्रांतियाँ भी उठीं, किन्तु साथ-साथ रहते हुए जीवन संघर्श में दोनों सभ्यता आज भी बरकरार है। वैसे अविकसित एवं कमजोर समूह वालों को, बहुसंख्यक एवं विकसित समाज द्वारा अनदेखी किया जाता रहा है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि कमजोर समूह की सभ्यता का समूल विनाश हो जाए। तथ्य आज भी पूर्वत है। आदिवासी कहलाने वाले सामाजिक समूह की परम्परा आज भी अनोखी है। भले ही लोग इन्हें असभ्य, जंगली या वनवासी कहें, परन्तु इनकी सभ्यता के इतिहास को बारिकी से समझे बिना ही नकार दिया जाना मानव सभ्यता के इतिहास को कुचलकर नश्ट किये जाने के समान है।
आदिवासी सभ्यता में प्र.ति विज्ञान :-                          
आदिवासी अनुश्ठान की दिशा के संबंध में तर्क है कि - आदिवासी पूर्वजों ने प्र.ति को देखकर जो कुछ सीखा उसी के अनुरूप अपना जीवन शैली निर्धारित किया तथा अपने वंशजों को सिखलाया। प्र.ति और आदिवासी रीति में एक अनुठा संबंध है।            
प्र.ति में एक लत्तर किसी आधार पर घड़ी की विपरित दिशा में उपर चढ़ती है। हवा का चक्रवात एवं समुद्र में पानी का भँवर, घड़ी की विपरित दिशा में ही घ्ाुमती है। इसका मूल कारण पृथ्वी का, सूर्य के चारों ओर भ्रमण की दिशा का नतीजा है। ज्ञात है कि पृथ्वी, सूर्य के चारों ओर वर्तमान घड़ी की विपरीत दिशा में ही परिक्रमा करती है। जिसके चलते प्र.ति के सभी क्रिया-कलाप इस गति से प्रभावित होते हैं और उसके अनुसार कार्य करते हैं। आदिवासी पूर्वजों ने इस प्रा.तिक सत्य को देखा और समझा, तत्पश्‍चात् अपने जीवन में उतारा और जन्म से मृत्यु तक के अनुश्ठान को घड़ी की विपरित दिशा में सम्पन्न करना आरंभ किया और अपने वंशजों को सिखलाया। हल चलाते समय किसान अपने हल-बैल को घड़ी की विपरीत दिशा में आंतर जोतते हुए आगे बझ़ता है। एक महिला अकसरहां दाएं हाथ से घड़ी की विपरीत दिशा में जता घ्ाुमाती है। इसी तरह एक आदिवासी बुजूर्ग महिला छिरका रोटी (छिलका रोटी) पकाते समय घड़ी की विपरीत दिशा में हाथ घ्ाुमाती है। यहां गौर करने वाली बात है कि आधुनिक घड़ी की विपरीत दिशा में हाथ घ्ाुमाकर पकाये गये रोटी को बुजूर्ग अच्छा नहीं मानते हैं। दरअसल, आधुनिक घड़ी की विपरीत दिशा में हाथ घ्ाुमाकर पकाये गये रोटी को पूर्वजों के नाम पर चढ़ाया जाता हैं।   
पूजा-पाट आदि अनुश्ठान में जल चढ़ाना या तेल रखना आदि अनुश्ठान में आधुनिक घड़ी की विपरीत दिशा में ही सम्पन्न किया जाता है। अखड़ा में नृत्य करते समय घड़ी की विपरीत दिशा में ही आगे बढ़ा जाता है। उराँव आदिवासी समाज में अभिवादन करते समय कतार में खड़े छोटे या बड़े कोर्इ भी हों दायें से बायें क्रम में आगे बढ़ते हुर किया जाता है। सरहूल के दिन गाँव का पहान के द्वारा सरना स्थल में घड़ी की विपरीत दिशा में दाएँ से बाएँ पूजा किया जाता है तथा पूजा स्थल के पेड़ में यथा सरना पेड़ में घड़ी की विपरीत दिशा में ही पवित्र धागा बांधा जाता है। साथ ही जन्म से लेकर मृत्यु तक के अनुश्ठान अर्थात छठी, पयसारी, शादी-व्याह, डण्डा कट्टना नेग, मृत्यु संस्कार आदि सभी ने:त-ने:त (संस्कार) घड़ी की विपरीत दिशा में ही सम्पन्न किये जाते हैं।     
उपसंहार :- ऐसा देखा जाता है कि आदिवासियों की परम्पराओं को नजर अंदाज कर उन्हें मुख्य धारा में जोड़ने के नाम पर बहुसंख्यक समाज द्वारा आदिवासियों की आधारभ्ाूत संरचना को मिटाने का प्रयास किया जा रहा है और सामाजिक एवं राजनैतिक हथकण्डे का भी इस्तेमाल किया जाता रहा हैं। पर, मुख्य धारा में जोड़ने के नाम से आदिवासी सभ्यता का समूल विनाश हो, ऐसा कतर्इ नहीं होना चाहिए। वर्तमान में विकास के बात पर बहुसंख्यक समाज की रीति-नीति उनपर थोपी जाती रही है। शिक्षा के नाम से हिन्दी एवं अंगरेजी का तमगा लटका दिया जाता है किन्तु अब केन्द्र एवं राज्य सरकार, त्रिभाशा सिद्धांत लागु करने जा रही है, जिसके लिए आदिवासी समाज पूर्व से ही मांग कर रहा है। वैसे आदिवासी समाज में कर्इ ऐसे गैर सरकारी विद्याालय हैं जो हिन्दी, अंगरेजी एवं मातृभाशा के सिद्धांत के आधार पर छोटे-मोटे विद्यालय चला रहे हैं। इन क्षेत्रों में सरकार द्वारा आदिवासियों की शिक्षा एवं सुरक्षा के लिये बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनी, पर जमीनी रूप में उतनी सफल नहीं हो पार्इं। भारतीय संविधान में भी भाशा-संस्कृति को बचाये रखने का अधिकार प्रदान किया गया है और आदिवासी भी अपनी सभ्यता-संस्कृति को बचाने कि दिशा में कार्य कर रहे हैं और करते रहेंगे। किन्तु क्या - वर्तमान परिस्थिति में आदिवासी अपनी धरोहर एवं परम्परा को बचा पाएंगे, यह तो समय ही बतलाएगा ?
 

Dr Narayan Oraon

(शोध एवं संकलन : डॉ नारायण उराँव, सैन्दा, सिसई गुमला, झारखण्ड)

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