पहले, प्रथम आदिवासी और प्रकृति दोनों एक ही बात थी. कोई भी एक को दूसरे की बिना कल्पना नहीं कर सकते थे. आज के समय में थोड़ा बदलाव आया भी है तो आदिवासी और प्रकृति को आप अन्योन्याश्रिता के तौर पर देख सकते हैं, जो की अंधाधुंध औद्योगीकरण और शहरीकरण के प्रभाव में थोड़ा कमजोर हुआ है. आदिवासियों का प्रकृति के साथ इसी सामंजस्यता, अन्योन्याश्रिता, सहोदरता को दर्शाता है - 'सरना' का अस्तित्व. 'सरना' के आविर्भाव के बारे में काफी कुछ कहा और सुना जा चुका है कि आदिवासी कोई भी मीटिंग और महत्वपूर्ण काम करने से पहले तीर (सर) छोड़ते थे. तीर छोड़ने के क्रम में एक बार ऐसा हुआ की तीर दूर कहीं जंगल में जाकर सखुआ के पेड़ में ही धंस गया. कुछ दिन बाद जब कुछ महिलाएं और बच्चे जंगल की ओर फल-फूल ढूंढने के लिए निकले तो अचानक से एक बच्ची चिल्ला उठी 'सर ......... ना', मतलब तीर पेड़ में धंस गया है. इस छोटी सी घटना के बाद उस सखुआ का झुण्ड और जंगल को 'सरना' के रूप में सम्बोधित करने लगे. ये कोई अलौकिन या ईश्वरीय घटना नहीं है, बल्कि उस समय से 'सरना' के रूप में चर्चित लेकिन अभी अनंत प्रकृति का द्योतक है, जो हरेक जीव को अपने गोद में आश्रय दिया हुआ है. ध्यान रहे 'सरना' सिर्फ 'पेड़ों का झुण्ड' नहीं है, बल्कि सरना पूरा का पूरा जंगल को कह सकते। ये जंगल प्रकृति के अन्य अंगों से अलग-थलग नहीं है बल्कि, प्रकृति के अन्य अंगों जैसे जल, वायु, सूरज, जल से पोषित भी है. मतलब 'सरना' अनंत प्रकृति का द्योतक है. आदिवासी पूरी तरीके से प्रकृति में ढलकर 'सरना' को जीवन पद्धति की तरह अपनाया।
क्या और कौन हैं प्राकृतिक आदिवासी?
दरअसल, 'सरना', विद्यमान धर्मों में निहित कर्मकाण्डों से परे है और उसे एक 'जीवन पद्धति' कहना ज्यादा तर्कपूर्ण है. वैसे भी प्रकृति कभी किसी के साथ अन्याय नहीं करती है, इसलिए 'सरना' और 'प्राकृतिक' जीवन पद्धति कोई भी अपना सकता है. शायद, प्रकृति में निहित बेदाग प्राकृतिक दर्शन जो असीमित है, यहाँ कोई ऊपर और कोई नीचे नहीं हैं, कोई बड़ा और छोटा नहीं है. दूसरे धर्मों में विद्यमान बड़ा या छोटा की संकल्पना, चमचमाती दुकान में उपस्थित वस्तु की तरह धर्म और ईश्वर को पेश किये जाने जैसी बातें, 'सरना' आस्था में नहीं है. वर्तमान में विद्यमान धर्म में जिस प्रकार ईश्वर और धर्म को दीवारों में कैद किया गया है, मूर्तियों में ढूंढा जा रहा है, फूलों, लड्डुओं और मोमबत्तियों से खुश करने की कोशिश होती है, वैसी बातें 'सरना' आस्था में नहीं है, शायद इसीलिए लोग 'सरना' प्राकृतिक दर्शन का 100 प्रतिशत का अनंत मानवता को समर्पित भाव नहीं समझ पाते हैं और उसे लोगों को स्वीकार करने में परहेज हो रही. वास्तव में, अन्य धर्मावलम्बी 'सरना' को हेय के दृष्टिकोण से देखने के बावजूद प्रकृति में ही जी रहे हैं, और शायद प्रकृति का महत्त्व नहीं समझ पा रहे है. 'सरना' प्राकृतिक दर्शन के दूसरे रूपों को 'कोया पुनेम', 'दोनी-पोलो' के रूप में भी समझा जा सकता है.
मनुष्यजनित साम्राज्यवादी ईश्वर और धर्म
'सरना' और सरना आस्था को अन्य धर्मों की भांति व्यावसायिक बनाना असंभव सा है. 'सरना' और 'सरना आस्था' को व्यावसायिक बनाना आदिवासी के प्राकृतिक दर्शन के खिलाफ है. क्योंकि अन्य धर्म, उनके ईश्वर, उनके ग्रंथों का व्यवसायीकरण हुआ है इसलिए ये धर्म साम्राज्यवादी बन गए हैं. कम साम्राज्यवादी और अधिक साम्राज्यवादी के अपने पैमाने हो सकते हैं, लेकिन पूरे विश्व को सिर्फ अपने धर्म मानने वाले और उन्ही के ईश्वर को मानने वाले का सपना देखने वाले आधुनिक समय के क्रूर धार्मिक साम्राज्यवादी हैं. जब 'साम्राज्यवाद' का चोला पहन कर अपना भाई भी अगल-बगल घूमता है तो उसपर विश्वास करना मुश्किल हो जाता है क्योंकि वो तुम्हें भाई तो कहता है लेकिन उसके पीछे हमेशा उसे अपने साम्राज्य को बड़ा करने का बोझ होता है, और ये बातें उसे अपने धर्म और ईश्वर के बड़े प्रचारक हमेशा बताते रहते हैं. कुल मिलाकर अपना भाई जब साम्राज्यवादी हो जाये तो अपना नहीं रहता क्योंकि उसका दिमाग और दिल विश्वपटल पर अपने धर्म और ईश्वर को स्थापित करना होता है, वो अपने आप को वैश्विक प्राणी और विश्व को ईश्वर और अपने धर्म का सन्देशवाहक समझने लग जाता है. दरअसल प्राकृतिक दर्शन और उसका निस्वार्थ को कभी प्रचार की जरुरत ही नहीं पड़ी, कभी संविधान और कानून की शायद ही जरुरत पड़ी क्योंकि प्रकृति सबको चाहिए -- उसका रूप -- जल, जंगल जमीन, हवा, आसमान कुछ भी हो सकता है.
'सरना' का प्राकृतिक आदिवासी दर्शन और प्रशासन
'सरना' जिस स्थल को कहा जाता है वो प्रतीकात्मक है, वास्तव में ये पूरे पुकराल (यूनिवर्स) का द्योतक है. इससे बड़े करीब से प्राकृतिक आदिवासी जुड़ा है. उनके अपने पारम्परिक व्यवस्था, प्रशासनिक व्यवस्था हैं जो प्रजातान्त्रिक रूप से संचालित होते हैं. हालाँकि काफ़ी समुदायों ने इसे अनुवांशिक विषय बना दिया है जिसे वर्तमान समय में और अधिक प्रजातान्त्रिक बनाये जाने की जरुरत है. आदिवासियों की पारम्परिक और प्रशासनिक व्यवस्था को साम्राज्यवादी धर्म और ईश्वर के ठेकेदारों ने बहुत चोट किया है. यत्र-तत्र तो पहान, पड़हा राजा जो प्राकृतिक आदिवासी और उनके परंपरा के रक्षक होने चाहिए उन्होंने ही अपने आस्था का सौदा किया. कहीं-कहीं पर सौदा सामूहिक तौर पर हुआ है और पहान, पड़हा राजा इत्यादि द्वारा अपने पारम्परिक आस्था को लात मारकर अन्य धर्मों में आश्रय लेने की प्रक्रिया को उनके गांव वालों ने भी सामूहिक तौर पर स्वीकार किया, जबकि ऐसे लोगों को दायित्व और अधिकारों से खुद ही बेदखल हो जाना चाहिए, अगर नहीं तो इन्हें इनके सामाजिक उत्तरदायित्व और अधिकारों से बेदखल कर देना चाहिए. पारम्परिक पहान और राजाओं के द्वारा दूसरे आस्था में पलायन के बाद -- उनकी शक्ति भी जाती रही क्योंकि -- शक्ति का केंद्र का नियंत्रण जिस धर्म में पलायन हुआ उसके बड़े पुरोहितों में धीरे धीरे परिवर्तित होने लगा. अन्य धर्मों में सम्माहित पहान, मुंडा और पड़हा राजाओं को थोड़ा बहुत शक्ति का एहसास है भी तो वो निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं. ऐसी स्थिति में 'रूढ़ि प्रथा' को विधि का बल प्राप्त भी है तो वो कार्यान्वित नहीं हो सकता है क्योंकि किसी भी समाज में दो शक्ति का केंद्र नहीं हो सकता है. पारम्परिक रूप से प्रशासनिक शक्ति, मुंडा, पड़हा राजाओं इत्यादि में होती थी, अब दूसरी शक्ति का उदय साम्राजवादी धर्मों के संरचना (जिसका निर्माण सरना आस्था से निकलकर दूसरे धर्मों में गए आदिवासियों द्वारा किया जा रहा है पर नियंत्रण इनके हाथ में नहीं है) के आधार पर हो रही है. अब चाहे आप कितना ही 5 वीं अनुसूची, पेसा (PESA-1996) चिला लो ये प्रभावी नहीं हो सकता, क्योंकि, साम्राज्यवादी धर्में इसे निष्प्रभावी बनाने के लिए पर्याप्त है. निहायत ही निष्प्रभावी बनाने के बाद ही इनकी साम्राज्यवादी मंशा पूरी हो सकती है. अब, जब किसी-न-किसी प्रकार से 'रूढ़िवादी' परंपराओं और उनकी शक्तियों का पता चल रहा है तो ये अजीब-अजीब हरकतें करने लगे हैं, जैसे -- मदर मैरी को 'लाल पैर' साड़ी पहना देना, कभी टी-शर्ट में जीसस की तस्वीर छापना, नेम्हा बाइबल के द्वारा जंगल पहाड़ को पूजने वालों को ख़त्म करने वाली बात करना, और अब चर्च से जुड़े हुए लोगों द्वारा राजी पड़हा व्यवस्था के माध्यम से प्राकृतिक आदिवासियों के पूर्वजों द्वारा दिए गए प्रशासनिक व्यवस्था को जरिया बनाते हुए विनियोग (एप्रोप्रिएशन और असिमिलेशन) करना, सरना को मंदिर में रूपांतरण करना. ये प्रक्रिया है आदिवासियों के सामूहिक हत्या का, लेकिन सामूहिक हत्या से पहले आदिवासियों का सांस्कृतिक हत्या की जा रही, उनकी जड़ काटी जा रही है. सबसे शर्मनाक और घृणित बात है, ये आदिवासियों के अपने ही भाई-बहन लोग ही हैं.
निष्कर्ष –
आदिवासियों की आस्था और आध्यात्म 'सरना' को एक मुकम्मल स्थान सरकारी दस्तावेजों में देना समय की जरुरत है, अन्यथा आदिवासियों और उनके पहचान के विलुप्त होने की घटना ब्रिटिश काल में चीन में अपनाये गए खुले दरवाजे की नीति और उसके दुष्परिणाम -- 'चीनी खरबूजे का काटा जाना' की तरह होगा. काफी हद तक वैश्विक साम्राजवादी धर्में अपने मनसूबे में कामयाब रही हैं.
आलेख –
डा. गणेश माँझी
प्राध्यापक, दिल्ली विश्वविद्यालय
(माँझी की कलम से)