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गुरूभक्त एकलव्य और गुरू द्रोणाचार्य

(माननीय सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस ज्ञानसुधा मिश्रा की खंडपीठ द्वारा माह जनवरी 2011 में दिये गए एक अभूतपूर्व फैसले के पश्चा1त् महान आदिवासी जननायक,  गुरूभक्त एकलव्य के स्मृति में गुरूभक्त एकलव्य जयंती सप्ताह के अवसर पर समर्पित) : एक कहावत है - ‘‘ईश्वर के घर देर है, अंधेर नहीं।’’ यह कहावत ‘‘एकलव्य’’ नाम के साथ फिर से चरितार्थ हुई है। आदिवासियों को हाशिए पर धकेलने की प्रवृति पर चोट करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में पांडवों के गुरू द्रोणाचार्य को आदिवासी युवक एकलव्य के साथ घोर अन्याय करने का दोषी पाया है। शीर्ष अदालत ने कहा कि द्रोणाचार्य ने एकलव्य को धनुर्विद्या के लिए शिक्षित किए बिना ही उसका अंगुठा दक्षिणा में मांग लिया था। द्रोणाचार्य का यह काम शर्मनाक था। माननीय सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस ज्ञानसुधा मिश्रा की खंडपीठ ने फैसले में कहा कि जब द्रोणाचार्य ने एकलव्य को छोटी जाति का होने के कारण शिक्षित करने से मना कर दिया था तो उन्हें एकलव्या से गुरू दक्षिणा लेने का क्या अधिकार था ? उन्होंने उसका अंगुठा भी लिया तो दाहिने हाथ का जिससे वह कभी उनके प्रिये शिष्य अर्जुन की तरह कुशल धुनर्धारी न बन सके। यह आदिवासियों के साथ सहस्त्राब्दियों से चले आ रहे अत्याचार का शास्त्रीय उदाहरण है। शीर्ष कोर्ट ने कहा कि - आदिवासी ही देश के असली नागरिक हैं। (दैनिक : हिन्दुस्तान, दिनांक 06.01.2011.)
यदि ‘‘महाभारत’’ ग्रंथ, विद्वान कवि की कल्पना मात्र है, तब तो यह उस कवि श्रेष्ठ की सामंती मनोदशा का द्योतक है और यदि यह ऐतिहासिक घटना है तो निश्चित रूप से ‘‘एकलव्य’’ नाम की आत्मा को सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद सुकुन मिला होगा कि उसने अपने आदरणीय गुरू को दक्षिणा में अपना दाहिने हाथ का अंगुठा देकर ‘‘छात्र धर्म’’ का पालन किया तथा सदा सत्य पर अटल रहने वाला, प्रतिज्ञा एवं वचन को निभाया। एकलव्य के इस आचरण को महाभरत के आदिपर्व में ‘‘एकलव्य की गुरू भक्ति’’ कहकर प्रस्तुत किया गया है, जो एक मिशाल है। ऐसी गुरू भक्ति का उदाहरण उच्च से उच्चतर कही एवं समझी जाने वाली जाति अथवा समाज में अब तक ऐसा उदाहरण नहीं मिलता है जो एकलव्य की गुरू भक्ति के सामन हो, किन्तु बहुसंख्यक समाज ने इस गुरू भक्त को क्या दिया - अपमान, दुतकार, त्रिस्कार और फटकार। हजारों वर्षों तक उनकी आत्मा, इस अपमान के बोझ के साथ भटकती रही होगी किन्तु ईश्वटर के दरबार में सत्य की ही विजय होती है। असत्य को हमेशा ही झुकना पड़ता है।
‘महाभारत’ ग्रंथ के आदिपर्व (सम्भवपर्व) अध्याय - 131, श्लोक 27 से 60 तक इस संदर्भ में चर्चा है। गुरू द्रोण प्रतिषोध की ज्वाला में एक ऐसा शिष्य तैयार करना चाहते थे जो किसी भी परिस्थिति में उनका कहना माने। गुरू द्रोण को पाण्डव पुत्र अर्जुन में वह सभी गुण दिखलाई पड़ा। अपनी प्रतिशोध की ज्वा ला में की गई प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए गुरू द्रोण ने अर्जुन को एक वचन दिया। अर्जुन - मैं ऐसा करने का प्रयत्न करूंगा जिससे संसार में दूसरा कोई धनुर्धर तुम्हारे समान न हो। मैं तुमहें यह सच्ची बात कहता हूँ।।27।। इधर द्रोणाचार्य का अस्त्र कौशल सुनकार सहत्रों राजा और राजकुमार धनुर्वेद की शिक्षा लेने के लिए उनके पास एकत्रित हुए। उनमें से एकलव्य भी एक था। एकलव्य को छोटी जाति का समझ गुरू द्रोण ने शिष्य नहीं बनाया। इसपर एकलव्य ने द्रोणाचार्य के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और वन में लौटकर उनकी मिट्टी की मूर्ति बनायी तथा उसी में आचार्य की परमोच्च भावना रखकर उसने धुनर्विद्या का अभ्यास आरंभ किया।
एक दिन समस्त कौरव और पाण्डव आचार्य द्रोण की अनुमति से रथों पर बैठकर हिंसक पशुओं का शिकार खेलने के लिए निकले। आवश्यरक सामग्री ले जाने वाले के साथ एक कुत्ता भी था। एकलव्य का रंग काला था तथा अपने शरीर में काले हिरण का चर्म एवं जटा धारण किये हुए था। एकलव्य के इस रूप को देखकर कुत्ता भौं-भौं कर भूँकता हुआ उसके सामने आ गया। यह देखकर एकलव्य ने उस भूँकते हुए कुत्ते के मुख में मानों एक साथ सात वाण मारे। कुत्ते का मूँह वाणों से भर गया और वह उसी अवस्था में पाण्डवों के पास आया। उसे देखकर पाण्डव वीर बड़े विस्मय में पड़े। ततपश्चापत वे उस जंगल निवासी वीर को खोज करते हुए उसे निरन्तर वाण चलाते हुए देखा। पाण्डव पुत्रों के पूछने पर उस जंगल निवासी वीर ने कहा वीरों आपलोग मुझे निषादराज हिरण्यधनुक पुत्र तथा आचार्य द्रोणाचार्य का शिष्य जानें। एकलव्य के बारे में जानकर अर्जुन चिंतित एवं उत्तेजित मुद्रा में गुरू द्रोण के पास लौटकर कहा - आचार्य ! उस दिन तो आपने मुझे, अकेले को हृदय से लगाकर बड़ी प्रसन्नता के साथ यह बात कही थी कि मेरा कोई भी शिष्य तुमसे बढ़कर नहीं होगा। फिर आपका यह शिष्य निषाद पुत्र अस्त्र विद्या में मुझसे बढ़कर कुशल और सम्पूर्ण लोक से भी अधिक पराक्रमी कैसे हुआ ? आचार्य द्रोण उस निषाद पुत्र के विषय में दो घड़ी तक मानों कुछ सोचते-विचारते रहे, फिर कुछ निश्च्य करके वे अर्जुन को साथ ले उसके (एकलव्य) पास गये। इधर एकलव्य ने आचार्य द्रोण को समीप आते देख आगे बढ़कर उनकी आगवानी की और उनके दोनों चरण पकड़कर पृथ्वी पर माथा टेक दिया। तब द्रोणाचार्य ने एकलव्य से यह बात कही - वीर, तुम मेरे शिष्य हो तो मुझे गुरू दक्षिणा दो। इस पर एकलव्य बहुत प्रसन्न हुआ और इस प्रकार बोला - भगवन्, मैं आपको क्या दूँ ! स्वयं गुरूदेव ही मुझे इसके लिए आज्ञा दें। मेरे पास कोई ऐसी वस्तु नहीं जो गुरू के लिए अदेय हो। तब द्रोणाचार्य ने उससे कहा - तुम मुझे दाहिने हाथ का अंगुठा दे दो .....। द्रोणाचार्य का यह दारूण वचन सुनकर सदा सत्य पर अटल रहने वाला एकलव्य ने अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करते हुए पहले की भाँति प्रसन्न मुख और उदारचित रहकर बिना कुछ सोच-विचार किये अपना दाहिना अंगुठा काटकर द्रोणाचार्य को दे दिया।।57-58।। इस घटना से अर्जुन के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। उनकी भारी चिन्ता दूर हो गई। द्रोणाचार्य का भी यह कथन सत्य हो गया कि अर्जुन को दूसरा कोई पराजित नहीं कर सकता। ।।60।। 3 इस घटना से गुरू द्रोण को दो सफलता मिली। पहला - अपने प्रिये शिष्य अर्जुन को दिया गया वचन बरकरार रहा। दूसरा - गुरू द्रोण की इच्छा के अनुसार अर्जुन एक श्रेष्ठ धनुर्धर बने रहे ताकि वे अपने अपमान का बदला अपने बचपन के मित्र राजा द्रुपद से ले सकें। किन्तु एकलव्य को द्रोणाचार्य के इस छल से क्या मिला ?  इतना वीर, इतना कौशल, इतना बड़ा गुरू भक्त तथा ईश्वार भक्त जिन्होंने अपनी भक्ति एवं एकाग्रता से गुरू रूपी माटी की मूरत से ही प्रेरणा लेकर अर्जुन जैसे महारथी के मन में भय उत्पन्न कर दिया, उस वीर को दमनकारी, सामंती समाज ने मसल कर रख दिया। संभ्रांत समाज भले ही छल और अन्याय का सहारा लेकर जीत की खुशी से झूम रहा हो किन्तु सत्य और न्याय के पथ पर चलने वाली दुनियाँ के सामने यह उनकी सबसे शर्मनाक पराजय है। फिर भी सिकंदर तो वही होता है जो जीतता है। गुरू द्रोण अपने मकसद में कामयाब रहे और एकलव्य की हार हुई। इस सामाजिक एवं वौद्धिक रंगभेदी तथा नश्ल भेदी जंग में भले ही एकलव्य मोहरा बने हों, पर छोटे समझे जाने वाले समाज के लिए वे हमेशा ही जननायक बने रहेंगे।
उक्तर बातों से अलग उतरी द्रविड़ कुँड़ुख़ भाषी ‘‘एकलव्य’’ शब्द की व्याख्या अपनी मातृभाषा से जोड़कर करते  हैं और उन्हें उतरी द्रविड़ समूह के कुँड़ुख़ भाषी होने की व्याख्या करते हैं। वैसे एकलव्य को भील आदिवासी भी माना गया है पर एकलव्य को महाभरत ग्रंथ में ‘‘निषादराज हिरण्यधनुकाः सुतः’’ कहा गया है। संस्कृत इंग्लिस डिक्सनरी में निषादः का अर्थ  Name of one of the wild Aboriginal Tribe of India  कहा गया है। इससे अलग भाषा एवं भाषा विज्ञान की दृष्टिकोण से उतरी द्रविड़ कुँडु़ख़ समूह के लोगों की अवधारणा है कि ‘‘एकलव्य’’ उतरी द्रविड़ भाषी समूह के एक श्रेष्ठ धनुर्धर थे, जो चलती हुई चीजों को स्वयं चलते हुए निषाना साधा करते थे। समाज ने उनकी इस कौशल विद्या के चलते, उन्हें  ‘‘एकलव्य’’ नाम से सम्बोधित किया। कुँडु़ख़ भाषा में एःकना का अर्थ चलना तथा लवना का अर्थ मारना / निशाना साधना होता है। कुँडु़ख़ भाषियों का मानना है कि ‘‘एकलव्य’’ चलते हुए निषाना साधने वाला धनुर्धर थे जिसके चलते एःकते लवना यानि चलते हुए निशाना साधने वाले (मारने वाला) के नाम से एकलव्य कहलाया जाने लगा। दाहिने हाथ का अंगुठा कटने के बाद भी वे (एकलव्य) निष्क्रिय नहीं रहे। उन्होंने एक नई विधि की खोज की, जिस विधि का प्रयोग आज भी आदिवासी करते आ रहे है। धनुष की डोर के स्थान पर आज भी आदिवासी जनसमूह बाँस की पनीछ (धुनष की डोर) बनाते है तथा अंगुठे का इस्तेमाल किये बिना ही तर्जनी एवं मध्यमा अंगुली के सहारे तीर चलाते है। निश्चित रूप से एकलव्य की यह खोज वन-पठार में रहने वालों के लिए अद्भूत है। एकलव्य की यह क्षमता उनके साथ छल एवं कपट से दायें हाथ का अंगुठा दान देने के बाद भी कृष्ण-बलराम की चतुरंगी सेना के साथ पूरे जोशो-खरोश के साथ युद्ध किये। हरिवंश पुराण में एकलव्य एवं कृष्ण-बलराम के बीच युद्ध का वर्णन है। आज के दौर में एकलव्य के परम्परा धरोहर को सम्मान मिलना चाहिए और वर्तमान तीरंदाजी प्रतियोगिता में विष्व स्तर पर पारम्परिक तीरंदाजी प्रतियोगिता भी करवायी जानी चाहिए।
महाभारत में एकलव्य के इस साहस को एकलव्य की गुरूभक्ति की संज्ञा दी गई है किन्तु बहुसंख्यक समाज द्वारा एकलव्य की गुरू भक्ति को त्रिस्कार एवं नजर अंदाज किया गया। आज के संदर्भ में ‘‘माटी का लाल’’ कहे जाने वाले लोग, सामान्य जनों के बीच से ही आगे आकर अपनी प्रतिभा को उँचाई तक पहुँचाते हैं। संभवतः अंगुली काटने वालों के बीच एकलव्य का पैदा होना भी इसी अवधारणा का परिचायक है।
आज एकलव्य के माध्यम से आदिवासी समाज को इन प्रश्नोंो का उत्तर ढूँढ़ना होगा -
1. क्या, गुरूभक्त एकलव्य की गुरू भक्ति वत्र्तमान समय में उदाहरण योग्य है ?
2. क्या, वर्तमान में भी गुरू द्रोणाचार्य जैसे गुरूओं से सामना होता रहेगा, जिन्होंने एक शिष्य से चरण स्पर्श स्वीकार किये जाने के बाद, दक्षिणा में दाहिने हाथ का अंगुठा मांगा ?
3. गुरू-षिष्य का यह दृष्टांत क्या चलता रहेगा ? क्या, गुरूओं द्वारा शिष्यों के साथ ऐसा क्रूरतम भेद-भाव होता रहेगा ?
शिक्षा को लक्ष्य साधकर चलनेवाले वर्तमान पीढ़ी के नवजवानों को, उपरोक्त चुनौतियों के माध्यम से गुरूभक्त एकलव्य हमेशा आदिवासियों, कमजोर एवं वंचितों के बीच एक जननायक एवं सचेतक के रूप में कहते रहेंगे - सावधान ! तुम्हारे सामने अंगुठा काटने वाला भी खड़ा है। तुम्हें उसे पहचानकर आगे बढ़ना है और अपनी मंजिल तय करनी है।’’
संदर्भ सूची:-
(1) हिन्दी दैनिक समाचार पत्र ‘‘हिन्दुस्तान,’’ दिनांक 06.01.2011.
(2) महाभारत (गीता प्रेस), आदिपर्व (सम्भवपर्व) अध्याय - 131, श्लोसक 27 से 60
(3) हरिवंश पुराण (प्रकाशक: संस्कृति संस्थान, वेदनगर, बरेली) - द्वितीय खण्ड, पृ0 331-332.
(4) The Student's  Sanskrit English Dictionary :  by V.S. APTE, P - 297.
(5) In the Supreme Court of India criminal appellate jurisdiction, criminal appeal no. 11/2011. [Arising out of special leave petition (cri) no. 10307 of 2010) Kailash & others ….... Appellant  v/s  State of Maharashtra TR ..... respondant(s) Taluka PS.]

Narayan Oraon
आलेख -  डॉ नारायण उराँव ‘‘सैन्दा’’
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