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कुँड़ुख तोलोङ सिकि की विकास यात्रा और राजी पड़हा, भारत का उद्घोष

कुँड़ुख भाशा की लिपि तोलोङ सिकि के बारे में कहा जाता है कि यह लिपि, भारतीय आदिवासी आंदोलन एवं झारखण्ड का छात्र आंदोलन की देन है। इस लिपि का शोध एवं अनुसंधान पेशे से चिकित्सक डॉ0 नारायण उराँव द्वारा 1989 में आरंभ किया गया। उन्होंने पहली बार 1993 में सरना नवयुवक संघ, राँची द्वारा आयोजित, करमा पूर्व संध्या के अवसर पर राँची कालेज, राँची के सभागार में प्रदर्शनी हेतु रखा। इस लिपि में पहली प्राथमिक पुस्तक ‘‘कुँड़ुख तोलोङ सिकि अरा बक्क गढ़न’’ के नामक से दिसम्बर 1993 में उशा इंडस्ट्रीज, भागलपुर (बिहार) में छपा और हिजला मेला, दुमका 1994 में, प्रदर्शनी के लिए रखा गया।                 
हमें ज्ञात है कि रा:जी पड़हा, भारत के सामने यह बात 3, 4 एवं 5 जनवरी 1997 में राजी देवान श्री भिखराम भगत के नेतृत्व में हुए वार्शिक राजी पड़हा सम्मेलन, बमनडीहा, लोहरदगा में आया। सम्मेलन में ‘‘तोलोङ सिकि’’ की प्रस्तुति पर विस्तृत परिचर्चा हुर्इ और सर्वसम्मति से तोलोङ सिकि को कँुड़ुख़ भाशा की लिपि के रूप में रा:जी पड़हा सम्मेलन में उपस्थित प्रतिनिधियों ने स्वीकार किया। इसी बीच पूर्व मंत्री एवं सांसद श्री इंद्रनाथ भगत के सलाह पर बाबा भिखराम भगत ने कहा कि लिपि के साथ इसका व्याकरण भी तैयार हो तथा समाज के शिक्षाविदों से मंतब्य प्राप्त होने के बाद ही राजी पड़हा की ओर से सहर्श स्वीकृत समझा जाएगा।    उसके बाद, एक पड़हा बैठक मार्च 1998 में राजी पड़हा देवान श्री भिखराम भगत के नेतृत्व में घाघरा, गुमला में सम्पन्न हुआ। इस बैठक में पड़हा प्रतिनिधियों के सामने दूसरी बार तोलोंग सिकि को प्रदर्शित किया गया। यहाँ उपस्थित प्रतिनिधियों ने सर्वसम्मति से तोलोङ सिकि को कँुड़ुख़ भाशा की लिपि के रूप में स्वीकार किया। किन्तु बाबा भिखराम भगत ने जोर देकर कहा कि - ‘‘रा:जी पड़हा के सामने कुँड़ुख़ भाशा का व्याकरण तोलोंग लिपि में तैयार कर लाया जाय एवं शिक्षाविदों तथा प्रोफेसर समूह के लोगों की सहमति भी बने।’’ इसी क्रम में दिनांक 19.09.1998 को बिहार जनजातीय कल्याण शोध संस्थान, राँची के एक सरकारी विभागीय बैठक में निर्णय हुआ कि कुँड़ुख़ भाशा की लिपि तोलोंग सिकि है तथा तोलोंग सिकि के विकसित होने तक साहित्य सृजन एवं पठन-पाठन में देवनागरी लिपि का भी प्रयोग किया जाय।             इसके बाद लिपि एवं व्याकरण में शोध कार्य होता रहा और कुँड़ुख़ समाज में तोलोड़ सिकि (लिपि) की सामाजिक मान्यता बढ़ती रही तथा 15 मर्इ 1999 को डॉ रामदयाल मुण्डा, पूर्व कुलपति रॉची विश्‍वविद्यालय, रॉची एवं डॉ (श्रीमती) इंदु धान, पूर्व कुलपति, मगध विश्‍वविद्यालय, बोधगया (बिहार) द्वारा एक संवादाता सम्मेलन कर तोलोंग सिकि को जनमानस के व्यवहार के लिए जारी किया गया। इसके बाद गैर सरकारी विद्यालयों में कुँड़ुख भाशा एवं तोलोड़ सिकि की पढ़ार्इ गुमला जिला के विभिन्न गैर सरकारी विद्यालयों में होने लगी। समय बीतने के साथ, वर्श 2003 में झारखण्ड सरकार द्वारा कुँडु़ख भाशा को आठवीं अनुसूची में दृाामिल किये जाने हेतु अनुसंशित किया गया, जिसमें कहा गया कि कुँड़ुख भाशा की लिपि तोलोङ सिकि है।            इस तरह झारखण्ड सरकार की ओर से कुँड़ुख भाशा एवं लिपि (तोलोड़ सिकि) पर वर्श 2003 में सरकार का निर्णय लिये जाने के बाद झारखण्ड अधिविद्य परिशद् (जैक) द्वारा वर्श 2009 में कुँड़ुख़ कत्थ खोड़हा लूरएड़पा भागीटोली, डुमरी (गुमला) विद्यालय के छात्रों को मैट्रिक परीक्षा में कुँड़ुख़ भाशा विशय की परीक्षा, तोलोड़ सिकि में लिखने की अनुमति मिली और परीक्षा फल प्रकाशित हुआ। उसके बाद उस विद्यालय के छात्र अबतक कुँड़ुख़ भाशा विशय की परीक्षा तोलोङ सिकि में लिख रहे हैं।                                    
इधर राजी पड़हा सम्मेलन के स्थानीय निकाय अथवा डाड़ा पड़हा बालीजोड़ी, राउरकेला, ओड़िसा में दिनांक 10 जनवरी 2011 को श्री मंगला खलखो के नेतृत्व में पड़हा गुरू स्व भिखराम भगत की 74 वीं जयंती मनाया गया। इस अवसर पर मुख्य अतिथि माननीय पड़हा गुरू भिखराम भगत की धर्मपत्नी श्रीमती बुधेश्‍वरी भगत थीं। इस कार्यक्रम में कुँड़ुख़ भाशा, संस्कृति एवं लिपि के संबंध में श्री भिखराम भगत द्वारा पूर्व में बतलायेे गये सुझाव के अनुसार उनका बचन इसी दिन पूरा हुआ। उनका कहना था कुँड़ुख़ भाशा के लिए एक लिपि और उसका व्याकरण चाहिए। उनके 74 वीं जयंती के अवसर पर डॉ0 नारायण उराँव द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘कुँड़ुख़ कत्थअर्इन अरा पिंज्जसोर’’ की पांडुलिपि का लोकापर्ण, माननीय गुरूमाता श्रीमती बुधेश्‍वरी भगत के हाथों सम्पन्न हुआ। साथ ही तोलोङ सिकि को कँुड़ुख़ भाशा की लिपि की घोशणा की गर्इ और साहित्य सृजन किये जाने की अपील की गर्इ। उसके बाद 27 मर्इ 2012 को ‘‘राजी पड़हा स्वर्ण जयन्ती समारोह’’ के अवसर पर मोरहाबादी, राँची में रा:जी बेल श्री बागी लकड़ा, रा:जी देवान श्री खुदी भगत ‘दुखी’ ओड़िसा एवं छत्तीसगढ़ से आये राजी पड़हा, भारत के पदाधिकारी एवं शिक्षाविंद डॉ करमा उरॉव तथा डॉ हरि उरॉव आदि की उपस्थिति में कुँड़ुख़ भाशा की लिपि, तोलोंग सिकि की सामाजिक घोशणा की गर्इ। उसके बाद दिनांक 22, 23, एवं 24 अक्टुवर 2012 को हुए कालुंगा, राऊरकेला ओडिसा में कुँड़ुख़ लिटरेरी सोसार्इटी ऑफ इंडिया के राश्ट्रीय सम्मेलन में मुख्य अतिथि रा:जी पड़हा, भारत के राजी बेल श्री बागी लकड़ा के हाथों सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर अलग-अलग प्रान्तों से आये भाशा प्रेमियों ने भाशा एवं लिपि पर चर्चा की जिसका उत्तर समिति की ओर दिया गया। इन तथ्य परख अवधारणाओं पर मुझे संतोश और खुशी हुर्इ।        
उसके बाद दिनांक 22, 23, एवं 24 मर्इ 2015 को, स्थान लोरोबगीचा, नवडीहा, घाघरा (गुमला) में तीन दिवसीय ‘‘राजी पड़हा सम्मेलन’’ में राजी देवान श्री खुदी भगत ‘दु:खी’ ने कुँड़ुख़ भाशा की लिपि, तोलोङ सिकि’’ की आवश्यकता एवं उपयोगिता विशय पर परिचर्चा के बाद सम्मानित सदस्यों की उपस्थिति में तोलोङ सिकि को कुँड़ुख़ भाशा की लिपि की सामाजिक मान्यता दिये जाने की घोशणा की और पठन-पाठन एवं साहित्य सृजन किये जाने का आह्वान किया। इसके अतिरिक्त, कर्इ पड़हा बैठक में भाशा एवं लिपि विशय पर निर्णय हुआ है। ज्ञात है कि ‘‘22 पड़हा ग्रामसभा बिसुसेन्दरा 2014’’ छपर बगीचा, लावागांर्इ सम्मेलन में तोलोङ सिकि (लिपि) को कुँड़ुख़ भाशा की लिपि के रूप में स्वीकार कर लिया गया है और 21 पड़हा द्वारा संचालित विद्यालयों को कुँड़ुख़ भाशा और तोलोङ सिकि की पढ़ार्इ आंरभ की गर्इ है। इस भाशायी आन्दोलन को आगे बढ़ाते हुए झारखण्ड विधान सभा, राँची के माननीय अध्यक्ष, डॉ दिनेश उरॉव की तत्परता से झारखण्ड अधिविद्य परिशद, रॉची द्वारा मैट्रिक में कुँड़ुख़ भाशा विशय की परीक्षा तोलोङ सिकि (लिपि) लिखने की अनुमति दिनांक 12.02.2016 को अधिसूचना जारी की गर्इ। वर्श 2018 से प.बंगाल में लिपि मान्य है। वर्तमान में, डॉ0 नारायण भगत, प्राध्यापक कुँड़ुख, डोरण्डा कॉलेज एवं डॉ0 नारायण उराँव ‘‘सैन्दा’’ के संयुक्त प्रयास से एक अदद व्याकरण प्रकाश में आया है जिसका नाम है - ’र्इन्नलता कुँड़ुख़ कत्थअर्इन’(आधुनिक कुँड़ुख़ व्याकरण़)। इस संबंध में स्वंय डॉ0 नारायण उराँव कहते हैं कि अब मुझे समझ में आ रहा है कि बाबा भिखराम भगत, लिपि के साथ-साथ व्याकरण लाने का आदेश क्यों दिये ? शायद यह भी एक दैवीय संयोग था। यदि पूर्व में ही रा:जी पड़हा से स्वीकृति मिला होता तो लिपि के साथ एक अच्छा कुँड़ुख़ व्याकरण समाज को नहीं मिल पाता। डॉ0 नारायण के इस वक्तव्य से मैं आश्‍वस्त हुआ कि रा:जी पड़हा ने समाज हित में निर्णय लेने में जल्दबाजी नहीं किया। समाज की मांग को देखते हुए, दिनांक 30.12.2018 को पा:दा पड़हा, ओडिसा के वार्शिाक सम्मेलन में मैं रा:जी बेल, रा:जी पड़हा, भारत की ओर से कुॐड़ख़ भाशा की तोलोङ सिकि, लिपि को समाज में व्यवहार करने के लिए स्वीकृत एवं अनुमोदित करने की घोशणा करता हूँ।

बागी लकड़ा

- एडवोकेट बागी लकड़ा                        
रा:जी बेल, रा:जी पड़हा, भारत।                 
पता : ग्राम - जगदा, पोः थाना : झिरपानी         
भाया राउरकेला 42, जिला : सुन्दरगढ़ (ओड़िसा)

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