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आदिवासी समाज और मातृभाषा शिक्षा

परिचय: ‘‘शिक्षा और आदिवासी भाशा‘‘ एक गंभीर और संवेदनाील विशय है। इस विशय पर न तो समाज गंभीर हो सका, न ही सरकारी विभाग। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था सीधे तौर पर सरकार से संबंधित है और सरकार के पास भारतीय परिदृश्य में बहुत सारी जिम्मेदारियाँ है, जिसमें सर्वजन को समान अवसर प्रदान करने जैसी कठिन चुनौतियाँ हैं। ठीक इसके विपरीत, आदिवासी समाज बाहरी दबाव से इस तरह घिरा हुआ है कि वह अपना रास्ता ढूँढ नहीं पा रहा है। शिक्षा और आदिवासी भाशा का तात्पर्य है - शिक्षा में आदिवासी भाशा को शिक्षा का माध्यम बनाना अर्थात् डमकपनउ वि प्देजतनबजपवद घोशित करना। इस तरह शिक्षा का माध्यम घोशित होने का दृार्त है नए सिरे से शिक्षक बहाली एवं सिलेबस (पाठ्यक्रम) तैयार करना। इसके लिए आजादी के 72 वर्श बाद भी सरकार तैयारी नहीं दिखती। समाज भी इतना जागरूक नहीं है कि वह इस विशय पर अपनी मांग सरकार के सामने रखे। जो व्यक्ति समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं वे एकाएक बडे़ एवं विकसित समूह का नकल करते हुए अंगरेजी परस्त हो जाते हैं। नव गठित झारखण्ड राज्य के सरकारी स्कूलों में हिन्दी एवं अंगरेजी प्रथम कक्षा से लागू है। वैसी स्थ्िित में जो आदिवासी बच्चा सिर्फ अपनी मातृभाशा समझता हो उसे हिन्दी एवं अंगरेजी विशय, एक पहाड़ के समान लगने लगता है और अपने माता-पिता एवं परिवार-समाज में सीखा हुआ उसका 5 वर्श तक का ज्ञान, आधुनिक पाठााला के प्रथम कक्षा के प्रथम दिन ही दृाून्य हो जाता है। यहीं से दृाुरू होती है उसकी मानसिक कुण्ठा और वहीं से दृाुरू होता है मानसिक विकार तथा ैबीववस कतवचवनजण् वास्तविकता यह है कि - लोग उर्जा के संरक्षण का सिद्धांत को सिर्फ पदार्थ या वस्तु के लिए व्यवहार करते हैं, जबकि मानवीय उर्जा का संरक्षण की बात कोर्इ नहीं करता है। मातृभाशा में शिक्षा का माध्यम का तात्पर्य वैसे गैर हिन्दी या गैर अंगरेजी बच्चों के लिए है जो अपनी मातृभाशा के माध्यम से हिन्दी और अंगरेजी तक पहूँचेंगे और उन बच्चों के लिए यह नर्इ मातृभाशा शिक्षा नीति मील का पत्थर साबित होगा। 

इन तमाम परिस्थितियों पर पूर्ववर्ती बिहार सरकार में 13 अगस्त 1953 को एक निर्णय लिया गया जिसमें कहा गया कि वैसे क्षेत्र जहाँ सिर्फ आदिवासी भाशा बोली जाती हैं वहाँ प्राथिमिक शिक्षा मातृभाशा के माध्यम से हो। इसी विचारधारा के साथ बिहार सरकार ने 20.12.1956 को डमकपनउ वि प्देजतनबजपवद पद रनदपवत बसेंेमे के संबंध में विभागीय अधिसूचना जारी किया। इसके लिए डमकपनउ वि प्देजतनबजपवद अर्थात शिक्षा का माध्यम के लिए मातृभाशा शिक्षा नियमावली प्रारूप तैयार हुआ। इस नियमावली में मातृभाशा के रूप में पूरे बिहार प्रदेा में हिन्दी, बंगला, ओड़िया, उर्दू, मैथिली, संताली, उराँव, हो, मुण्डारी एवं एंग्लो-इंडियन छात्रों के लिए अंगरेजी भाशा (कुल 10) को माध्यम बनाये जाने की अनुांसा हुर्इ। इस विशय पर कर्इ अधिसूचनाएँ जारी हुर्इ, जिनमे से बिहार सरकार, शिक्षा विभाग, स्मजजण्छवण् टप्प्ध्ड 12.04ध्60.5508 कंजमक 11ण्10ण्1961ए पत्रांक सं0 3415, दिनांक 07.07.1973, पत्रांक सं0 312 दिनांक 15.01.1974, संकल्प सं0 4830 दिनांक 23.11.1974, संकल्प सं0 84 दिनांक 23.01.1978, आदि मुख्य हैं। इसके वाबजूद यह योजना पूर्ण रूप से लागू नहीं हो पायी। झारखण्ड अलग प्रांत आन्दोलन में यह मुद्दा भी बना, पर राज्य गठन के बाद सारी व्यवस्था हिन्दी एवं अंगरेजी तक ही सिमट गयी।

शिक्षा का अर्थ एवं परिभााा :- शिक्षा दृाब्द संस्कृत के ‘‘शिक्ष् धातु से बना है जिसका अर्थ है सीखना या सिखाना। शिक्षा शब्द का अंग्रेजी समानार्थक शब्द म्कनबंजपवद (एजुकेान) जो कि लैटिन भाशा के म्कनबंजनउ (एजुकेटम) दृाब्द से बना है। कर्इ लोगों का मानना है कि म्कनबंजपवद (एजुकेान) दृाब्द म्कनबव दृाब्द से बना है जिसमें म् का तात्पर्य आंतरिक है तथा क्नबव (ड्यूको) शब्द का अर्थ विकसित करना या आगे बढ़ना है। अर्थात इसका अर्थ है आंतरिक दृाक्तियों का विकास करना। कुछ शिक्षाविदों का मन्तब्य है कि शिक्षा किसी समाज में सदैव चलने वाली सोदेय सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुश्य की जन्मजात दृाक्तियों का विकास, उसके ज्ञान एवं कौशल में वृद्धि एवं व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है और इस प्रकार उसे सभ्य, सुसंस्कृत एवं योग्य नागरिक बनाया जाता है। 

शिक्षा की प्रकृति ;छंजनतम वि म्कनबंजपवदद्ध : - शिक्षा की परिभाशाओं के आधार पर शिक्षा की प्रकृति निम्न प्रकार की होती है -
1.    शिक्षा सामाजिक प्रक्रिया ;ैवबपंस च्तवबमेे वि म्कनबंजपवदद्ध :- शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है। मनुश्य सामाजिक प्राणी होने के नाते समाज का एक अभिन्न अंग है। मनुश्य के व्यवहार में परिवर्तन व शिक्षा दोनों ही सामाजिक प्रक्रिया के रूप में होती है। सामाजिक आवयकताओं के अनुसार ही छात्रों के विचार तथा व्यवहार में परिवर्तन आता है। शिक्षा के द्वारा ही छात्रों का सामाजिक विकास संभव है। 
2.    शिक्षा गतिशील प्रक्रिया ;क्लदंउपब चतवबमेे वि मकनबंजपवदद्ध :- समय के अनुसार शिक्षा में भी परिवर्तन होता रहता है। शिक्षा के उद्देय, शिक्षण, विधि, पाठ्यक्रम में भी परिवर्तन होते रहते हैं। ज्ञान और शिक्षा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी की ओर बढ़ती रहती है। शिक्षा की गतिाीलता के कारण ही हम प्रगति की ओर बढ़ सकते है। यही शिक्षा की गतिाीलता है। 
3.    शिक्षा द्विध्र्ाुवीय प्रक्रिया ;म्कनबंजपवद ठपचवसंत च्तवबमेेद्ध :- शिक्षा के दो ध्रुव माने जाते हैं - (1) शिक्षक ;ज्मंबीमतद्धए (2) शिक्षार्थी ;ैजनकमदजद्ध। शिक्षा की प्रक्रिया में दोनों का होना आवयक है। शिक्षक प्रभावित करता है और शिक्षार्थी प्रभावित होता है।
4.    शिक्षा अनवरत प्रक्रिया ;ब्वदजपदपवने चतवबमेे वि मकनबंजपवदद्ध :- शिक्षा एक अनतरत रूप से चलने वाली प्रक्रिया है। मनुश्य अपने जन्म से मृत्यु पर्यन्त शिक्षा प्राप्त करता रहता है। मनुश्य औपचारिक व अनौपचारिक रूप से कुछ न कुछ सीखता रहता है। 
5.    शिक्षा विकास की प्रक्रिया ;च्तवबमेे वि मकनबंजपवद क्मअवसवचउमदजद्ध :- मानव का जन्मजात व्यवहार पु के समान होता है। शिक्षा इन जन्मजात दृाक्तियों का विकास करती है। मानव के विकास के साथ ही शिक्षा से समाज की संस्कृति व सभ्यता का विकास होता है। 
6.    शिक्षा सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया ;म्कनबंजपवद ंसस ंतवनदक क्मअमसवचउमदज चतवबमेेद्ध :- शिक्षा का कार्य बालक की कुछ क्षमताओं का विकास करना ही नहीं है बल्कि बालक के सभी पक्षों का (ज्ञानात्मक, भावनात्मक, क्रियात्मक) विकास करना है। 

शिक्षा के प्रकार ;थ्वतउे वि म्कनबंजपवदद्ध : - वैसे तो शिक्षा के अनेक प्रकार हो सकते है, लेकिन शिक्षा प्राप्त करने तथा प्रदान करने के उद्देय, विधि तथा स्वरूप के दृश्टिकोण से शिक्षा को तीन भागों में विभाजित किया गया है - 
(1) औपचारिक शिक्षा ;थ्वतउंस म्कनबंजपवदद्ध
(2) अनौपचारिक शिक्षा ;प्दवितउंस म्कनबंजपवदद्ध
(3) निरोपचारिक शिक्षा ;छवद थ्वतउंस म्कनबंजपवदद्ध
1.    औपचारिक शिक्षा ;थ्वतउंस म्कनबंजपवदद्ध :- औपचारिक शिक्षा का तात्पर्य उस शिक्षा से है जो जानबूझकर दी जाती है। औपचारिक शिक्षा प्रदान करने का सबसे महत्वपूर्ण स्थान विद्यालय है। विद्यालय द्वारा ही मातृभाशा, विज्ञान, गणित, भ्ाूगोल, इतिहास आदि विशयों की शिक्षा दी जाती है। औपचारिक शिक्षा के लिए उद्देय, पाठ्यक्रम, शिक्षण  विधियों का भी सुनिचित आयोजन किया जाता है। यह शिक्षा व्यवस्थित रूप से प्रदान की जाती है और अंत में छात्रों का मूल्यांकन भी किया जाता है। 
2.    अनौपचारिक शिक्षा ;प्दवितउंस म्कनबंजपवदद्ध :- विद्यालयों में छात्र केवल कुछ ही विशयों का ज्ञान प्राप्त कर पाते हैं। पढ़ना, लिखना या ज्ञान प्राप्त करना ही शिक्षा नहीं है। शिक्षा विस्तृत व व्यापक है। हम अपने अच्छे बुरे अनुभवों या ज्ञानेद्रियों के अनुभवों से शिक्षा ग्रहण करते हैं। शिक्षा सभी प्रकार के अनुभवों का योग है, जिसे मनुश्य अपने जीवन काल में प्राप्त करता है। 
औपचारिक साधनों से जो शिक्षा प्राप्त होती है वह औपचारिक शिक्षा कहलाती है तथा जो शिक्षा अनौपचारिक साधनों से प्राप्त होती है वह अनौपचारिक शिक्षा कहलाती है। दूर शिक्षा की प्रक्रिया को अनौपचारिक शिक्षा कहते हैं। यह पत्राचार सम्पर्क कार्यक्रमों, जन संचार के साधनों द्वारा शिक्षा प्रदान की जाती है। 
3.    निरोपचारिक शिक्षा ;छवद वितउंस म्कनबंजपवदद्ध :- यह औपचारिक शिक्षा तथा अनौपचारिक शिक्षा से अलग प्रकार की शिक्षा है। निरोपचारिक प्राय: उपेक्षित और मजबूर लोगों की शिक्षा के लिए बनायी गयी होती है। यह प्रणाली सरल और अधिक लचीली होती है और किसी भी उम्र के लोग इसका लाभ उठा सकते हैं।

पारम्परिक आदिवासी सामाजिक व्यवस्था और अनौपचारिक शिक्षा :- 
यह तथ्य है कि झारखण्ड के कर्इ आदिवासी समूहों में अनौपचारिक शिक्षा के अपने-अपने तरीके थे। कुँड़ुख़ भाशियों के इस अनौपचारिक शिक्षा केन्द्र को धुमकुड़िया कहा जाता है। प्रत्येक गाँव में एक धुमकुड़िया हुआ करता था। यहाँ माता-पिता अपने बेटे-बेटियों को 7वें वर्श धुमकुड़िया प्रवेा करवाते थे और दृाादी तय हो जाने पर यहाँ से विदा किया जाता था। यहाँ बोलकर, गाकर, बजाकर, नाचकर, जीवन जीने की कला सीखते थे। आदिवासी समाज में यह अनौपचारिक शिक्षा का प्राचीन उदाहरण है। धुमकुड़िया, उराँव आदिवासी गाँव की एक पारम्परिक सामाजिक पाठशाला है। प्राचीन काल से ही यह, गाँव में एक शिक्षण-शाला के रूप में हुआ करता था, जो गाँव के लोगों द्वारा ही चलाया जाता था। समय के साथ यह पारम्परिक ग्रामीण पाठशाला विलुप्त होने की स्थिति में है। कुछ दशक पूर्व तक यह संस्था किसी-किसी गाँव में दिखलार्इ पड़ता था किन्तु वर्तमान शिक्षा पद्धति के प्रचार-प्रसार के बाद यह इतिहास के पन्ने में सिमट चुका है। कुछ लेखकों ने इसे युवागृह कहकर यौन-शोषन स्थल के रूप में पेश किया है, तो कर्इ मानवशास्त्री इसे असामयिक बतलाये हैं, किन्तु अधिकतर चिंतकों ने इसे समाज की जरूरत कहते हुए सराहना की है। आदिवासी परम्परा के अनुसार, यह लयवद्ध तरीके से सामाजिक जीवन जीने की कला सीखने का स्थल है। ;प्ज पे ं तीलजीउपब ेवबपंस समंतदपदह बमदजमत पद ंद व्तंवद जतपइंस अपससंहम - बवउउनदपजलण्द्ध
वर्तमान में, गाँव-घर में रह रहे लोग अपने को कमजोर और दिशाहीन समझने लगे हैं। क्या, हमारे पूर्वज कमजोर और दिशाहीन थे ? क्या, हम सभी कमजोर और दिशाहीन हैं ? इन प्रनों का उत्तर ढूँढ़ने के लिए हमें स्वयं से प्रश्‍न करना होगा - क्या, जिस समय हमारे पूर्वजों के पास स्कूल-कॉलेज, थाना-पुलिस, कोर्ट-कचहरी, मंदिर, मस्जिद, गिरजा आदि नहीं था, उस समय हमारे पूर्वजों ने किन दृाक्तियों के बल पर हमारे पूर्वजों के समूह को एकसूत्र में बांधकर रखा ? क्या, हमलोग उन ताकतों को संजोकर रख पाये हैं ? क्या, हम अपने पूर्वजों के धरोहरों को सुरक्षित रख पाये हैं ? दुनियाँ के सामने खड़े होने के लिए हमें उन शक्तियों का सशक्तिकरण करना होगा। 

झारखण्ड में आदिवासी भाााओं की वर्तमान दशा :-
       अपने देा भारत में सैकड़ों भाषाएँ एवं कर्इ लिपियाँ हैं। इनमें आदिवासी भाषाएँ भी हैं और इसकी विधा अलग है। गूगल में मिली जानकारी के अनुसार में भारत में लगभग 550 से अधिक अनुसूचित जनजातियाँ हैं। वर्ष 2011 की जनगनणा के अनुसार अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या लगभग 10,42,81,034 है जो देा की कुल आबादी का 8.6: है। नवोदित राज्य झारखण्ड में कुल 32 अनुसूचित जनजातियाँ निवासरत हैं। वर्ष 2011 की जनगनणा के अनुसार इनकी कुल आदिवासी जनसंख्या लगभग 86,45,042 है जो पूरे राज्य की जनसंख्या का 26.2: है। वे स्वंय को आदिवासी कहलाना अधिक पसंद करते हैं। सभी आदिवासियों की अपनी वििाष्ट सांस्कृतिक पहचान तथा उनकी आदिकालीन पारम्परिक रीतिरिवाज एवं पृथक भाषा है। उनका भौगोलिक अलगाव एवं अन्य समुदायों के साथ अलगाव भी कर्इ वििाष्ट पहलुओं में से है। इन्हीं कर्इ मापदण्डों के आधार पर संविधान में इन्हें विोष अवसर प्रदान किया गया है, जो भारतीय संविधान के पाँचवीं अनुसूची के अन्तर्गत है। प्रकृति के साथ इनका अटूट संबंध है। प्रकृति के साथ वे अपनी र्इवर भक्ति की परिकल्पना करते हैं। वे अपने जीवन जीने के तरीके प्रकृति से ही सीखे होते हैं। जब वे गाना गाते हैं तो सर्दी, गर्मी और बरसात, अलग-अलग मौसम में उनका अलग-अलग मौसमी गीत होता है। उनके समूह में नृत्य करने की परम्परा अनूठी है। दृाायद यह प्रकृति और संस्कृति का यह अनोखा संगम है। वे जंगल के पेड़-पौधे एवं जड़़ी-बूटी से भली-भांति परिचित हैं। कुछ पेड़ों के फूल-पत्ते उनके लिए पोषाहार हैं, तो कुछ हानिकारक, तो कुछ औषधी। इनके गुण-अवगुण को वे जानते एवं पहचानते हैं। वे अपने सगे संबंधियों के साथ साहचर्य जीवन व्यतीत करने में विवास करते हैं। गाँव की हर अबला का जीवन इसी मदर्इत-पसरी कार्यौली से खुाहाल बीत रहा है। सामूहिक निर्णय लेना इनकी परम्परा है। पड़हा-पंच, मानकी-मुण्डा, मांझी-परगना, डोकलो-सोहोर आदि इनकी परम्परागत प्रशासनिक व्यवस्था है।
ब्मदेने वि प्दकपं . 2011 ;स्पदहनपेजबद्ध के अनुसार भारत में कुल 121 अनुसूचित तथा गैर अनुसूचित भाशाओं को 05 भाशा परिवार के समूहो में वर्गीकृत किया गया है। इनमें से 22 भाशाओं को 8वीं अनुसूची में स्थान प्राप्त हुआ है। इन 22 में से 15 इंडो-यूरोपियन, 01 आश्ट्रो-एिायाटिक, 02 तिब्बतो-बर्मिज एवं 04 द्रविड़यन भाशा परिवार से हैं। वर्गीकरण निम्न प्रकार है :-
                 1. इंडो-यूरेपियन ;प्छक्व्.म्न्त्व्च्म्।छद्ध                                (क) इंडो-आर्यन ;प्छक्व्.।त्ल्।छद्ध                                (ख) इरानियन    ;प्त्।छप्।छद्ध                                    (ग) जर्मेनिक ;ळम्त्ड।छप्ब्द्ध                                 2. द्रविडयऩ ;क्त्।टप्क्ल्।छद्ध                                 3. आश्ट्रो-एिायाटिक ;।न्ैज्त्व्.।ैप्।ज्प्ब्द्ध                        4. तिब्बतो-बर्मिज ;ज्प्ठम्ज्व्.ठन्त्डम्ैम्द्ध                            5. सेमीटो-हमीटिक ;ैम्डप्ज्व्.भ्।डप्ज्प्ब्द्ध 

झारखण्ड की भाशाएँ प्रथम तीन भाशा परिवार में से है। इंडो-आर्यन भाशा परिवार में से - संस्कृत, हिन्दी, बंगला, ओड़िया, असमी, पंजाबी, मगही, भोजपुरी, मैथिली, सादरी या नागपुरी, खोरठा, पंचपरगनियाँ, कुरमाली आदि। आश्ट्रो-एिायाटिक भाशा परिवार में से - मुण्डारी, संताली, हो, खड़िया आदि। द्रविड़ भाशा परिवार में से - कुँड़ुख़ एवं मालतो है। कुँड़ुख़ एवं मालतो को उतरी द्रविड़ भाशा कहा गया है। दक्षिण द्रविड़ भाशा परिवार की मुख्य भाशाओं में से - तमिल, तेलगु, मलयालम, कन्नड़ आदि है। इस रिर्पोट के अनुसार अपने देा भारत में कुँड़ुख़/उराँव को उवजीमत जवदहनम दर्ज करने वालों की संख्या 19,88,350 है, जिनमें से 9,93,346 पुरूश तथा 9,95,004 महिलाएँ हैं। यहाँ लिंग अनुपात में महिलाएँ अधिक हैं। साथ ही यह तथ्य प्रकाा में आया कि देा के सभी राज्यों एवं केन्द्र ाासित प्रदेाों में रहकर कुँड़ुख़ भाशी कमोवेा अपनी मातृभाशा, कुँड़ुख़/उराँव दर्ज करवाये हैं। संख्या की दृश्टि से कुँड़ुख़ को मातृभाशा दर्ज करने वालों में सबसे अधिक संख्या झारखण्ड से है। उसके बाद क्रमवार छत्तीसगढ़, प0बंगाल, ओड़िसा, बिहार, असम, अंडामन-निकोबार आदि है। जनसंख्या सूचकांक के मानक संख्या के आधार पर 10,000 (दस हजार) से अधिक वाले प्रदेा की सूची में 6 (छ:) राज्य एवं 01 (एक) केन्द्र दृाासित प्रदेा है तथा 1,50,000 (डेढ़ लाख) से अधिक संख्या वाला प्रदेा मात्र 03 (तीन) है, जिसमें झारखण्ड, छत्तीसगढ़ एवं पचिम बंगाल राज्य है।  

जनजातीय समाज की ये प्राचीन पारम्परिक सांस्कृतिक धरोहर एवं वौद्धिक सम्पदा अब प्राकृतिक मौत ;छंजनतंस कमंजीद्ध की ओर अग्रसर है। पढ़-लिखकर दृाहर में रह रहे आदिवासी लोगों के परिवार में भाषा के प्रति लगाव हट सा गया है। पढे़-लिखे लोगों को देखकर गाँव के लोग भी भाषा के प्रति उदासीन है। स्कूली शिक्षा में आदिवासी भाषाओं को उचित स्थान न मिल पाने के चलते स्कूल के बच्चों में अपनी मातृभाषा के प्रति उत्साह कम होता दिख रहा है और आज स्थिति गंभीर बन गर्इ है। यदि इन्हें राजकीय प्राासन अथवा राज्य सरकार द्वारा सुरक्षा प्रदान नहीं किया गया तो निचित रूप से यह वौद्धिक सम्पदा सिर्फ इतिहास के पन्नों में रह जाएंगी। समाचार पत्रों में छपे एक रिर्पोट के अनुसार पूर्व में दुनियाँ में लगभग 16,000 भाषाएँ बोली जाती थीं जो घटकर अब मात्र 6,900 दृोष रह गयी हैं। (हिन्दी दैनिक, जनसत्ता, दिनांक 23.5.1997)। अंतर्राश्ट्रीय मातृभाशा दिवस, दिनांक 21 फरवरी 2012 को दैनिक समाचार पत्र प्रभात खबर में एक खबर छपी - दुनियाँ में 3500 भाशाएँ विलुप्ति की कगार पर। रिर्पोट के मुताबिक, दुनियाँ में 6900 भाषाएँ बोली जाती हैं, लेकिन इनमें से 3500 भाषाओं को चिंताजनक स्थिति वाली भाषाओं की सूची में रखा गया है। इस दृाीर्शक के माध्यम से कहा गया है कि - यूनेस्को ने वर्श 1999 में विव की उन संकटग्रस्त भाषाओं के संरक्षण एवं संवर्द्धन की ओर दुनियाँ का ध्यान आकृश्ट करने के लिए हर वर्श 21 फरवरी को अंतर्राश्ट्रीय मातृभाशा दिवस मनाने का निचय किया है।  

        कहा जाता है - ‘‘संस्कृति का वाहक, भाषा है तथा संस्कृति, भाषा का पोषक’’ अर्थात संस्कृति को बचाने के लिए भाषा को बचाना जरूरी है। इस प्रकार भाषा ही वह मूल स्तंभ है जिसके माध्यम से पारम्परिक आदिवासी सांस्कृतिक धरोहर एवं वौद्धिक सम्पदा को संरक्षित एवं सुरक्षित रखा जा सकता है। आदिवासी समाज द्वारा अपनी भाषा-संस्कृति को बचाने के लिए उतने अच्छे प्रयास नहीं हो पाये, जिससे वे अपनी इन धरोहरों एवं विरासत को आने वाली पीढ़ी तक संजोकर पहुँचाया पाएँ। इसके लिए उन्हें वर्तमान परिवेा में नये तरीके ढू़ढ़ने होंगे और उसे अपने दैनिक जीवन के साथ जोड़ने होंगे। 

झारखण्ड की आदिवासी भााा और मातृभााा में शिक्षा :- झारखण्ड राज्य, एक लम्बे भाशायी तथा सांस्कृतिक आन्दोलन के बाद गठित हुआ। इस नये राज्य के गठन का आधार सांस्कृतिक धरोहर को बचाना तथा इस धरोहर को आनेवाली पीढी तक पहुँचना रहा है। ज्ञात हो कि किसी समाज का सांस्कृतिक धरोहर का मूलाधार उसका समाज का विशिश्ट भाशा है। अतएव भाशा बचाव हेतु उसे औपचारिक शिक्षा से बांधना जरूरी है साथ ही उस भाशा का लिखित स्वरूप जिसका आधार सांस्कृतिक धरोहर हो (लिपि) के बिना भाशा को संरक्षित किया जा सकना मुकिल है। इसलिए समाज एवं सरकार को, आदिवासी भाशाओं की पढ़ार्इ किये जाने तथा इस पर पाठ्यक्रम तैयार किये जाने पर जोर दिया जाना चाहिए। साथ ही 8वीं कक्षा तक शिक्षा का माध्यम के रूप में तथा 9वीं से 11वीं तक एक विशय के रूप में और विवविद्यालय स्तर में स्वैच्छिक साहित्यिक विशय के रूप में स्थापित होना ही चाहिए। इन मुद्दों पर कर्इ वििाश्ट लोगों ने अच्छे सुझाव दिये :-

(क) जादवपुर यूनिवर्सिटी, कोलकता के प्रोफेसर, भाशाविद् डॉ0 मॉहिदास भट्टाचार्य का कहना है - ‘‘किसी भाशा के सम्पूर्ण विकास के लिए उसके सांस्कृतिक धरोहर को बचाकर रखना आवयक है। साथ ही उस भाशा का नेत्र ग्राह्य रूप यानि उस भाशा की लिपि का होना भी आवयक है। वर्तमान भ्ाूमण्डलीकरण के दौर में यूनिवर्सल सिस्टम को अपनाते हुए, अपनी सांस्कृतिक धरोहर को बचाये रखने हेतु मातृभाशा की शिक्षा जरूरी है, किन्तु भाशा एवं लिपि के विकास के क्षेत्र में कार्य करने के लिए समाज को स्वयं आगे आना पड़ता है, सरकार इसमें मदद करती है।’’ दिनांक 06.07.2016 को हुर्इ परिचर्चा के दौरान प्रोफेसर भट्टाचार्य ने उक्त बातें कही।

 (ख) ‘‘जनजातीय भाशाओं की लिपि का विकास करे राँची विवविद्यालय :- जनजातीय भाशा को लेकर मिली िाकायत के बाद राज्यपाल सह कुलाधिपति माननीय द्रौपदी मुर्मू ने कहा है कि राँची विवविद्यालय, जनजातीय भाशाओं की लिपि के विकास का कार्य करे, ताकि अपनी लिपि में ही छात्र परीक्षा दे सकें। साथ ही स्नातकोत्तर जनजातीय व क्षेत्रीय भाशा विभाग के सभी नौ भाशाओं के लिए अलग- अलग विभाग खोले जाएँ। सबसे पहले कुँड़ुख़, मुण्डारी एवं नागपुरी में छात्रों की संख्या को देखते हुए तत्काल इन भाशाओं के लिए अलग विभाग खोलने की कारवार्इ की जाये। श्रीमती मुर्मू राजभवन के सभाकक्ष में जनजातीय भाशा विभाग के विकास को लेकर दिनांक 06.09.2017 को बैठक कर रही थीं।

(ग) ‘‘राँची विवविद्यालय का स्नातक जब पड़ोसी राज्य में जाता है तो उसे मान्यता नहीं मिलती है। इसलिए अब यहाँ भी आदिवासी भाशा की लिपि की पढ़ार्इ होगी।’’ यह वक्तब्य राँची विवविद्यालय, राँची कुलपति डॉ0 रमेा कुमार पाण्डेय द्वारा केन्द्रीय पुस्तकालय में आयोजित दिनांक 04.10.2016 को सम्पन्न एक सेमिनार में दिया गया।

(घ) ‘‘जनजातीय भाशाएँ विरासत हैं, इनका संरंक्षण जरूरी : हार्इकोर्ट।’’ जिन स्कूलों में जनजातीय भाशा पढ़ार्इ हो रही हैं वहाँ निर्बाध रूप से पढ़ार्इ जारी रहे, ताकि विद्यार्थी उच्च शिक्ष प्राप्त कर सकें।  (प्रभात ख़बर, पेज न. 7, दिनांक 02.09.2017) ।

 (ङ) ‘‘पद्मश्री डॉ0 रामदयाल मुण्डा जी का अमेरिका से झारखण्ड प्रदेा आना और जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाशा विभाग स्थापित करवाया जाना।’’ उनका कहना था - जे खन हामर जगन प्रस्ताव आलक, जनजातीय भाशा विभाग कर अध्यक्ष/निदेाक कर रूप में विभाग चलायक ले, से खन एके गो बात हामर मन में सुझलक कि एखने आपन देा, माटी आउर आदिवासी समाज कर श्रृण चुकाएक कर मोका हय। र्इ बेरा, झारखण्ड आन्दोलन के जगाएक कर बेरा हय। आउर इकर ले नवजवान मनकर ग्रेजुएट फौज तेयार करेक होवी। जोन खन हमर आदमी ग्रेजुएट होय जाबँय, से खन उ मन आपन बात बोलेक सीखबँय, तब अलग रार्इज कर आन्दोलन मजबूत होवी अउर नया रार्इज मिलले, उ मन रार्इज चलाय ले अगुवा बनबँय। एसन सोर्इच के हम अमेरिका कर नौकरी के छोर्इड़ के चर्इल आली। तले झारखण्ड क्षेत्र कर दौरा कर्इर के 5 गो आदिवासी भाशा और 4 गो क्षेत्रीय भाशा के मिलाय के जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाशा विभाग कर गठन करल गेलक।
  
आदिवासी भाााओं की नर्इ लिपि हो या न हो ?:- आदिवासी भाशाओं की नर्इ लिपि हो अथवा नहीं इस संबंध में कुछ लोगों का कहना है कि यूरोप में लोग सभी भाशा को रोमन लिपि से ही लिख-पढ़ रहे हैं। इस प्रन के उत्तर में डॉ. रामदयाल मुण्डा कहा करते थे - लोग यूरोप की बात नहीं जानते हैं। वहाँ एक देा, एक भाशा, एक लिपि की स्थिति है। पर भारत में, एक देा, अनेक भाशा एवं अनेक लिपि स्थापित हैं। अतएव यहाँ अपनी वििाश्ट भाशा एवं संस्कृति के संरक्षण तथा संवर्द्धन के लिए अलग लिपि आवयक है। गूगल से मिली जानकारी है कि वैविक स्तर पर 146 प्रकार की लिपियाँ प्रयोग में लायी जाती हैं तथा 13 लिपियाँ, आर्इ.एस.ओ. मार्क लगने के कतार में है। उक्त 146 में से 37 भारतीय परिवार, 08 यूरोपियन परिवार, 19 अफ्रिकन परिवार, 04 अमेरिकन परिवार, 16 र्इस्ट एिायन परिवार, 17 साउथ एिायन परिवार, 10 र्इन्सुलेट साउथर्इस्ट एिायन परिवार, 08 मिडिल र्इस्टर्न परिवार, 02 सेन्ट्रल एिायन परिवार की लिपियाँ है। लंबित 13 की कतार में तोलोङ सिकि भी है। इन 146 लिपियों का यूनीकोड तैयार हो चुका है।  
      
शिक्षा विभाग और स्वयं सेवी संस्थाएँ :- राज्य स्तर पर शिक्षा विभाग के अन्तर्गत माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा निदेाालय है। इन निदेाालयों के मार्ग र्दान पर प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा संचालित हो रहीं हैं। साथ ही शिक्षा अनुसंधान एवं प्रशिक्षण विभाग भी है। सभी विभाग के कार्य अलग-अलग हैं।
 (क) मानव संसाधन विकास विभाग :- यह विभाग दो भागों में विभक्त है - ;पद्ध  माध्यमिक शिक्षा विभाग ;पपद्ध उच्च शिक्षा विभाग।       वर्तमान में मानव संसाधन विभाग का ही दो और दृााखा है - ;पद्ध  झारखण्ड िा़क्षा परियोजना एवं  ;पपद्ध  झारखण्ड शिक्षा अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिशद (जे.सी.र्इ्र.आर.टी.)। शिक्षा का पाठ्यक्रम तैयार करने की जिम्मेदारी जे.सी.र्इ.आर.टी. विभाग को है। इस विभाग द्वारा 25 अप्रैल 2019 में एक अधिसूचना जारी किया गया जिसमें आदेिात है कि विद्यालयों में पाठ्य पुस्तकों के चुनाव में जे.सी.र्इ.आर.टी. की सहमति जरूरी है।

 (ख) कल्याण विभाग :- झारखण्ड सरकार, कल्याण विभाग द्वारा प्रकािात पत्रक के अनुसार विभाग द्वारा 175 विद्यालय चलाये जा रहे है जिनमें 143 विद्यालय आवासीय विद्यालय है तथा 32 पहाड़िया विद्यालय है। ये सभी विद्यालय आदिवासी छात्र-छात्राओं की शिक्षा के लिए चलाये जा रहे है। परन्तु इन विद्यालयों में भी आदिवासी भाशा के माध्यम से पढ़ार्इ करवाये जाने की जानकारी नही मिली है।

(ग) अल्पसंख्यक विद्यालय :- संविधान की धारा 30 के अन्तर्गत चलाये जा रहे अल्पसंख्यक विद्यालयों की संख्या झारखण्ड के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में काफी अधिक है। परन्तु आदिवासी भाशा के माध्यम से इन विद्यालयों में प्राथमिक शिक्षा दिये जाने की प्रक्रिया को अबतक गति नहीं दिया जा सका है।

(घ) गैर सरकारी विद्यालय एवं सी.बी.एस.सी. बोर्ड :- सी.बी.एस.सी. बोर्ड द्वारा संचालित अंगरेजी माध्यमों के विद्यालयों में आदिवासी भाशा के माध्यम से प्राथमिक शिक्षा दिये जाने पर कार्य अबतक नये झारखण्ड प्रदेा में आंंरंभ नहीं किया गया है। इन विद्यालयों में राश्ट्रीय शिक्षा नीति के त्रिभाशा सूत्र पर हिन्दी, अंगरेजी तथा संस्कृत भाशा विशय लागू है।

 (ङ) गैर सरकारी विद्यायल एवं जैक बोर्ड :- जैक (श्र।ब्) बोर्ड द्वारा प्रस्वीकृति प्राप्त विद्यालय के. के. के. लूरएड़पा, लूरडिप्पा, भगीटोली, गुमला में 1-3 कक्षा तक सिर्फ कुॐड़ुख़ भाशा में पढ़ार्इ होती है। उसके बाद 4थी कक्षा से हिन्दी, अंग्रेजी एवं एक विशय के रूप में कुँड़ुख़ भाशा पढ़ार्इ जाती है। मैट्रिक तक पहुँचते-पहुँचते यह इंगलिस मिडियम स्कूल बन जाता है। इस शिक्षा यात्रा में वहाँ के छात्र इंगलिस, हिन्दी के अतिरिक्त कुँड़ुख़ अर्थात तीन भाशा तथा तीन लिपि में पठन-पाठन करके निकलते हैं। इसी तरह विकास भारती विुनपुर (गुमला) द्वारा संचालित उच्च विद्यालय में 1010 छात्रों में से 700 छात्र कुड़ुख़ भाशा पढ़ते है और वहाँ से मैट्रिक में कुँड़ुख़ भाशा विशय की परीक्षा लिख रहे है।

(च) टार्इबल कल्चरल सोसार्इटी, टाटा स्टील, जमशेदपुर एवं आदिवासी भााा शिक्षा :- टार्इबल कल्चरल सोसार्इटी, टाटा स्टील, जमोदपुर की एक बैठक दिनांक 29.01.2020 को सम्पन्न हुर्इ। इस बैठक में बतलाया गया कि टाटा स्टील की ओर से पूर्वी एवं पचिमी सिंहभ्ाूम जिला क्षेत्र में कर्इ सामाजिक विकास योजनाएँ चल रही हैं। जिनमें से आदिवासी भाशा एवं लिपि के माध्यम से शिक्षा दिये जाने हेतु अनेकानेक केन्द्र चलाये जा रहे हैं। इन केन्द्रों में से -              ;पद्ध संताली भाशा के 180, ;पपद्ध हो भाशा के 227, ;पपपद्ध मुण्डा भाशा के 10, ;पअद्ध भ्ाूमिज भाशा के 20, ;अद्ध कुँड़ुख़ (उराँव) भाशा के 18 तथा ;अपद्ध बिरसायत के 2 केन्द्र चल रहें हैं। इन केन्द्रों में पठन सामग्री तथा शिक्षकों का मानदेय आदि टी.सी.एस. के देखरेख में संचालित किया जा रहा है। यहाँ प्रशिक्षित अपने भाशा के जानकार विभाग से अनुमति लेकर सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों को मदद करने के उदेय से पढ़ाया करते हैं।

(छ) आदिवासी समाज द्वारा संचालित गैर सरकारी विद्यालय :- यह तथ्य है कि गुमला, लोहरदगा एवं राँची जिला क्षेत्र में लगभग 25-30 ऐसे विद्यालय है जिसे शिक्षा विभाग या कल्याण विभाग या अल्पसंख्यक कल्याण विभाग, आदि से कोर्इ वित्तीय सहायता न मिलते हुए भी समाज, संस्कृति एवं भाशा-लिपि के संरक्षण एवं संवर्द्धन हेतु ग्रामीणों द्वारा प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालय चलाये जा रहे है। जहाँ हिन्दी एवं अंग्रेजी के साथ कुड़ुख (उराँव) भाशा विशय की पढ़ार्इ-लिखार्इ करायी जाती है। इसी तरह संताली भाशी क्षेत्रों में कर्इ सामाजिक संगठन, ग्राम स्तर पर संताली माध्यम से कक्षा चला रहे हैं।

(ज) आदिवासी समाज द्वारा उत्साह वर्द्धक प्रयास :- आदिवासी भाशा के माध्यम से शिक्षा दिये जाने के क्षेत्र में आदिवासी समाज पूरजोर कोिाा कर रहा है। इसी के तहत झारखण्ड के खूंटी जिला क्षेत्र में मुण्डारी भाशा से माध्यम शिक्षा दिये जाने की बात भी उठती है। पर राज्य सरकार इस दिाा में कारगर कार्य नहीं कर पायी है। नियमावली तो बन गर्इ कि हिन्दी, अंगरेजी और मातृभाशा का अर्थात तीन भाशा विशय लेकर पढ़ार्इ करनी है, किन्तु प्रार्इमरी स्तर पर कौन पढ़ाएगा ? शिक्षकों की बहाली तो हुर्इ नहीं। यहीं पर मामला फंस जाता है। इस तरह प्रार्इमरी स्तर पर आदिवासी भाशा में शिक्षा दिये जाने का कार्य सरकारी स्कूलों में भाशा शिक्षकों की कमी के चलते रूक गया है। ऐसी स्थिति में भी गांव-समाज के नौजवान अपनी भाशा के माध्यम से पठन-पाठन हेतु कार्य कर रहे हैं। मैट्रिक स्तर पर बतलाया जा रहा है कि संताली में लगभग 20,000 से अधिक, हो भाशा में 10,000 से अधिक तथा मुण्डारी एवं कुँड़ुख़ भाशा में 4000-5000 हजार विद्यार्थी विशयवार परीक्षा दे रहे हैं। वैसे राज्य सरकार की घोशणा है कि स्कूल में मुफ्त किताबें दी जाएंगी और आदिवासी भाशा विशय को छोड़कर दूसरी किताबें उपलब्ध हैं, पर आदिवासी भाशा की किताब की बातें अबतक गौन हैं। सरकार को इस ओर भी घ्यान देना चाहिए। इन प्रयासों के बाद भी अबतक च्तपउंतल म्कनबंजपवद जीतवनही उवजीमत जवदहनम (मातृभाशा से प्राथमिक शिक्षा) का नारा अबतक झारखण्ड में भी चरितार्थ नहीं हो पाया है और बच्चों के लिए शिक्षा में समान अवसर मिलने के मौलिक सिद्धांत को जमीन पर उतरा नहीं जा सका है।
      
केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकार की विशेा पहल की घोाणा :- केन्द्र सरकार ने नर्इ शिक्षा नीति 2020 पारित कर दिया है। झारखण्ड सरकार में भी मुख्यमंत्री श्री हेमंत सोरेन द्वारा 1ली कक्षा से 5वीं कक्षा तक चार आदिवासी भाशाओं की पढ़ार्इ कराये जाने की घोशणा किया गया है। उम्मीद किया जाता है कि परिणाम बेहतर होंगे।
  
उपसंहार :- उपरोक्त विशयों एवं सरकारी तथा गैर सरकारी प्रयासों के आधार पर कहा जा सकता कि आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार, मातृभाशा के माध्यम से हो और खााकर आदिवासी भाशा की पढ़ार्इ अवय हो। अन्यथा एक ठेठ आदिवासी बालक, गाँव से निकलकर अंग्रेजी एव हिन्दी के विद्यार्थियों के साथ मुकाबला कैसे कर पाएगा? इसके लिए आवयक है - आदिवासी बच्चे को उसकी मातृभाशा में प्राथमिक शिक्षा दिये जाएँ तथा 8वीं तक एक आदिवासी भाशा आवयक रूप से पढ़ने का अवसर दिया जाए। 9वीं कक्षा में व्यवसायिक विशय की पढ़ार्इ आरंभ होती है। अतएव 9वीं से विवविद्यालय तक एक भाशा विशय के रूप में समाज एवं राज्य सरकार मिलकर छात्रों को अवसर प्रदान करावें तथां पाठ्यक्रम सह पाठ्यपुस्तक उपलब्ध करायें। वैसे, झारखण्ड में हिन्दी, अंग्रेजी और मातृभाशा का पाठ्यक्रम लागू है, पर अबतक जहाँ हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत एवं उर्दू पहुँचा है वहाँ आदिवासी भाशा को स्थान नहीं मिला, क्योंकि किसी उच्च विद्यालय में चार भाशा शिक्षक को पदस्थपित किये जाने का सरकारी आदेा है। इस तरह झारखण्ड जैसे बहुभाशी आदिवासी क्षेत्र में तथा 5वीं अनुसूची वाले क्षेत्र के आदिवासियों की शिक्षा एवं मातृभाशा विकास किसी अदृय मक्कड़ जाल से बाहर निकल नहीं पा रहा है। 
संदर्भ :-     1. गूगल.
2. बिहार राज्य प्रारम्भिक शिक्षा विधि एवं विधान. 
3. बक्कहुही, त्रैमासिक कुँड़ुख़ पत्रिका, अंक : 6.
4. झारखण्ड सरकार, कल्याण विभाग द्वारा प्रकािात पत्रक.
5. झारखण्ड सरकार, विभागीय अधिसूचना एवं पत्रक.

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- डॉ. नारायण उराँव ‘सैन्दा’
(लेखक, एक चिकित्सक हैं। यह उनका स्वतंत्र विचार हैं) 

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