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'विहिप का बयान अमर्यादित एवं मानसिक शोषण का प्रतीक'

दिनांक 19.11.2021 को विश्व हिन्दु परिषद के प्रांत मंत्री डॉ. बिरेन्द्र साहु द्वारा प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कहा गया कि हिन्दुओं का 16 संस्कार को आदिवासी भी मानते हैं‚ तो अलग से सरना धर्म कोड क्यों ॽ उन्होंने यह कहा कि संविधान में जनजाति समुदाय को हिंदू धर्म की श्रेणी के अंतर्गत रखा गया है। सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955‚ हिंदू विवाह अधिनियम 1955‚ हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956‚ हिंदू दत्तक तथा भरण पोषण अधिनियम 1956‚ हिंदू ऑप्राप्त व्यता और संरक्षक ता अधिनियम 1956 तथा अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 उपरोक्त सभी अधिनियमों में जनजाति समाज को हिंदू माना गया है। जनजाति समाज के शिक्षाविद डॉक्टर करमा उरांव पर आरोप लगाते हुए उन्होंशने कहा कि डा. करमा उरांव केवल अपना व्यक्तिगत बात को बोलें‚ पूरे समाज के विषय में बोलने का हक नहीं है। डॉक्टर करमा उरांव जनजाति समाज को दिग्भ्रमित कर रहे हैं। इसे कभी सफल नहीं होने दिया जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि सरना‚ धर्म नहीं बल्कि पूजा स्थल का नाम है। जनजाति समाज में पूजा स्थलों का भिन्न–भिन्न नाम है। उरांव में चाला टोंका‚ मुंडा में जाहेर‚ संताल में जाहेर थान‚ हो में जाहेरा वगैरा–वगैरा 32 जनजातियों में भिन्न–भिन्न नाम है। 
विश्व हिन्दु परिषद के प्रांत मंत्री डॉ. बिरेन्द्र साहु का यह बयान परम्परागत आदिवासियों के लिए अपमान जनक बयान है जो अमर्यादित एवं मानसिक शोषण का प्रतीक है। एक जागरूक तथा शिक्षित आदिवासी डा. करमा उरांव अपनी भाषा–संस्कृति एवं परम्पारिक आस्था–विश्वास को संरक्षित तथा सुरक्षित करने के लिए लोगों का मनोबल बढ़ा रहे हैं। तब विहिप के प्रांत मंत्री जो स्वयं एक गैर आदिवासी हैं‚ वे कहते हैं कि डॉक्टर करमा उरांव जनजाति समाज को दिग्भ्रमित कर रहे हैं। इसे कभी सफल नहीं होने दिया जाएगा। क्या‚ प्रांत मंत्री डॉ. बिरेन्द्र साहु को आदिवासी समाज के बारे में बोलने का हक दिया गया हैॽ क्या‚ प्रांत मंत्री‚ आदिवासी समाज का वक्ता हैंॽ और नहीं तो वे किस हक से एक जनजाति समाज के व्याक्ति‍ को बोलने से रोक रहे हैंॽ 

विश्व हिन्दु परिषद के प्रांत मंत्री कहते हैं कि हिन्दुओं के 16 संस्कार को आदिवासी मानते हैं। ऐसा भद्दा बयान देने से पहले डॉ. साहु को परम्परावादी आदिवासी समाज के बीच अध्ययन करना चाहिए और वैसे व्यक्ति‍ जो स्वयं आदिवासी नहीं है वे आदिवासियों के बारे में गलत बयानी क्यों कर रहे हैंॽ क्या  यह अत्याचार निवारण अधिनियम का मामला नहीं हैॽ आदिवासी समाज में भी दूसरे सभ्य समाज की तरह जन्म से लेकर मत्यु तक कई अनुष्ठान किये जाते हैं। ये नेगचार आदिवासी समाज में पीढ़ी दर पीढ़ी अपने पूर्वजों से हस्तांतरित हैं। मानव सभ्यता के वर्तमान दौर में भी परम्परागत आदिवासी समाज अपने सभी अनुष्ठान घड़ी की विपरित दिशा (Anti clockwise direction) में सम्पन्न करते हैं‚ जबकि हिन्दु समाज अपने सभी अनुष्ठान घड़ी की दिशा (Clockwise direction) में सम्पन्न करते हैं। इसी तरह हिन्दु संस्कार में ब्राह्मण पुजारी अनुष्ठान कर्ता हुआ करते हैं‚ परन्तु परम्परागत आदिवासियों के पूजा नेगचार में ब्राह्मण नहीं होते है। साथ ही हिन्दुओं के बीच पूजा अनुष्ठान में संस्कृत से मंत्र पढ़े जाते हैं‚ जबकि आदिवासी समाज के लोग अपनी भाषा में पूजा अनुष्ठान करते हैं। हिन्दुओं के 16 संस्कार में से यज्ञोपवीत‚ वेदारंभ‚ केशान्ति‚ समावर्तन संस्कार गैर ब्राह्मणों एवं गैर क्षत्रि‍यों के लिए गैर उपयोगी है‚ क्योंकि हिन्दु धर्म शास्रों में यज्ञोपवीत (जनेउ संस्कांर) तथा वेदारंभ संस्कार ब्राह्मण एवं क्षत्रि‍य के लोगों के लिए निर्धारित किया गया है और जहां यज्ञोपवीत और वेदारंभ का अधिकार न हो वहां केशान्ति‚ समावर्तन संस्कार का क्या अर्थॽ यहां गौर करने वाली बात है कि झारखण्डी क्षेत्र के गांव में 1932 का खतियान कैथी लिपि में लिखा हुआ है जबकि संस्कृत तथा हिन्दी की देवनागरी लिपि (देवों की नागरी लिपि) का भारत देश की आजादी के बाद सरकारी करण हुआ है।  

इसी तरह संविधान प्रदत्त नियमों का गैर संवैधानिक तरीके से व्याख्या करते हुए विहिप प्रांत मंत्री कहते हैं कि हिन्दु विवाह अधिनियम 1955‚ हिन्दु उत्तराधिकार अधिनियम 1956 तथा हिन्दु दत्तक तथा भरण पोषण अधिनियम 1956 में जनजाति को हिन्दु माना गया है। माननीय महोदय का यह बयान संविधान प्रदत्त शक्तियों का व्याभिचार है। अगर इन कानूनों में जनजातियों को हिन्दु माना गया होता तो संसद द्वारा वर्ष 1996 में पेशा कानून क्यों पारित किया गया। पेसा कानून ने जनजातियों की रूढ़ीप्रथा को कानूनी मान्यता प्रदान किया है। हिन्दु उत्तराधिकार कानून यह नहीं कहता कि सभी जनजाति‚ हिन्दु के अन्तर्गत हैं। माननीय उच्च न्यायालय‚ रांची ने प्रथम अपील संख्या 124/2018 के आलोक में दिनांक 08 अप्रील 2021 को पारित आदेश में परिवार न्यायालय को दिशा–निर्देश देते हुए कहा है कि आदिवासी (उरांव) मामले को उनके कस्टम के अनुसार निर्णय लिया जाय। उच्च न्यायालय ने ऐसा कभी नहीं कहा कि सभी जनजाति हिन्दु के अन्तर्गत हैं।
 विहिप के प्रांत मंत्री यह भी कहते हैं सरना‚ धर्म नहीं है। सरना एक पूजा स्थल का नाम है। इतने जिम्मेदार व्यक्ति के इस वक्तव्य का‚ परम्परागत आदिवासी  समाज खण्डन एवं निंदा करता है। सरना‚ सिर्फ पूजा स्थल नहीं बल्कि सरना एक आदिवासी जीवन दर्शन है‚ एक जीवन धारा है। सरना शब्द का सरोकार सारजोम से है जिसे हिन्दी में साल या सखुवा कहा जाता है। सरना जीवन दर्शन के  तीन स्तंभ हैं – परमेश्वर‚ प्रकृति और पूर्वज जिसे कुंड़ुख़ भाषा में – धरमे (परमेश्वर) धरती अयंग (प्रकृति) अरा धरमी सवंग (जीवात्मा एवं पवित्र आत्मा) कहा एवं समझा जाता है। हिन्दु समाज में पूर्वजों के मोक्ष के लिए पिंड दान किया जाता है‚ परन्तु आदिवासी समाज में अपने पितरों की आत्मा को अपने घरों में स्थान दिया जाता हैं और अपने बच्चों को देखभाल करते रहने का आह्वान किया जाता हैं। पर्व त्योंहारों में पकवान अर्पित जाता किया है। इसी तरह हिन्दु दर्शन में प्रकृति अचेतन है‚ परन्तु आदिवासी दर्शन में तो प्रकृति को चेतन माना जाता है। दूसरी ओर भारतीय दर्शन में कहा जाता है - There are six class of Indian Philosophy परन्तु आदिवासी दर्शन को स्वीकार करते हुए अब कहना चाहिए - There are seven class of Indian Philosophy तभी भारतीय दर्शन पूरा होगा। कुंड़ुख़ भाषा का यह महामंत्र – ‘सरनन सा:रना दिम सरना’ पूरे रूढ़ीगत आदिवासी दर्शन को प्रतिविम्बित करता है। जरूरत है इसे समझने और आत्मसात करने की। 

विश्व हिन्दु परिषद तो आदिवासियों को वनवासी कहना पसंद करता है तथा झारखण्ड को वनांचल। साथ ही विहिप के कार्यकर्ताओं को चुभन होती है आदिवासियों‚ को आदिवासी कहते हुए‚ क्योंकि आदिवासी कहने से हिन्दी भाषा में आदिकाल से निवास करने वाले लोग का बोध होता है। आदिवासी नाम भी तो बहुसंख्यक समाज ने ही दिया है‚ उनको चिढ़ाने के लिये। पर अपने में मग्न रहने वालों को क्या फर्क पड़ता है कि कोई उन्हें जंगली कहे या वानर। 

विश्व हिन्दु परिषद के लोगों को भी क्या फर्क पड़ता है‚ आदिवासियों को सम्मान मिले या ना मिले। उन्हें तो अपना अनुयायी तैयार करना है जो सिर्फ उनकी बात बोले और उनके पीछे दुम हिलाते चले। एक आदिवासी जब किसी अस्पताल में जाता है तो उसके उम्र के साथ धर्म का कॉलम भरना पड़ता है। इसी तरह कोई आदिवासी जब कोर्ट में गवाही देने जाता है तब जज के सामने उन्हें अपने नाम के साथ अपना धर्म भी बतलाने को कहा जाता है। तब वह आदिवासी क्या करेॽ अब तक तो भारत सरकार ने उसके आस्था विस्वास का कोई नाम नहीं दिया है। क्या‚ यह जिम्मेदारी भारतीय संसद या राष्ट्रपति या भारत सरकार की नहीं हैॽ क्या‚ देश के बहुसंख्यक समाज आदिवासियों के आस्था विस्वास को एक नाम दिये जाने के स्थान पर अपने समूह अर्थात हिन्दु समाज में पूर्ण रूप से मिलाने के लिए कटिवद्ध हैं‚ दूसरी ओर तथ्य है कि हजारों आदिवासी परिवार हिन्दु धर्म आस्था  के अनुसार अपना जीवन यापन कर रहे हैं। इसी तरह हजारों आदिवासी परिवार इसाई धर्म आस्था के अनुसार तथा हजारों परिवार इस्लाम कबूल कर उसी धर्म आस्था के साथ अपना जीवन बिता रहे हैं। परन्तु अभी भी लाखों लोग अपनी रूढ़ी परम्परा के अनुसार जीवन जी रहे हैं जिनके आस्था विस्वास का अपने ही देश में कोई नाम नहीं मिला और वे बेनामी हैं। क्या‚ भारतीय परम्परा में पौराणिक चीजों को नाम देने का रिवाज नहीं हैॽ इस तरह के कई सवाल हैं जिसका जवाब मिलना चाहिए।

वैसे इन दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख यह कहते नहीं थकते कि हिन्दु कोई धर्म नहीं‚ यह एक जीवन शैली है या फिर भारत में रहने वाले सभी हिन्दु हैं। यदि ऐसा ही है तो सभी समुदाय के लिए अलग–अलग अधिनियम क्यों बने हैंॽ और यदि सभी समुदाय एवं पंथ की मान्यता सही है तो आदिवासी भी अपने जीवन जीने के तरीके का कोई एक सम्मानित नाम दिये जाने हेतु भारत सरकार से मांग कर रहा है तो लोग बेवजह क्यों अपनी टांग अड़ा रहे हैंॽ

Dhuma Oraon

आलेख – 
धुमा उरांव (सेवानिवृत शिक्षक)
अध्यक्ष, परम्पयरागत पड़हा जागरना मंच‚ सिसई‚ गुमला।

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