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धुमकुड़िया कोरना अरा पूरना उल्ला (धुमकुड़िया प्रवेश तथा पूर्णता दिवस)

बअ़नर माघ चन्ददो नु ख़द्दारिन धुमकुड़िया मंक्खा लगियर अरा ख़द्दर माघ चन्द्दो नु धुमकुड़िया कोरआ लगियर। एन्नेम माघ पुनई 
गेम जोंख़ रअ़उर गही माघ पूरआ लगिया दरा पुना अड्डा नु मलता पुना चान नु माघ पुनई ख़ोःख़ा ती जोंख़ रअ़ना ओरे मना लगिया।

1. धुमकुड़िया एन्दरा तली ? (धुमकुड़िया क्या है ?)
   उत्तर - धुमकुड़िया, कुँड़ुख़ (उराँव) आदिवासी समाज की एक परम्पारिक सामाजिक पाठशाला है। प्राचीन काल में कुँड़ुख़ (उराँव) गांव में 
यह एक शिक्षण-शाला के रूप में कार्य करता था, जो गाँव के लोगों द्वारा ही चलाया जाता था। समय के साथ यह परम्पारिक ग्रामीण
 पाठशाला विलुप्त होने की स्थिति में है। कुछ दशक पूर्व तक यह संस्था किसी-किसी गाँव में दिखलाई पड़ता था किन्तु वर्तमान शिक्षा 
पद्धति के प्रचार-प्रसार के बाद यह इतिहास के पन्ने में सिमट चुका है। कुछ लेखकों ने इसे युवागृह कहकर यौन-शोषन स्थल के रूप में 
पेश किया, तो कई मानव शास्त्री इसे असामयिक बतलाये, किन्तु अधिकतर चिंतकों ने इसे समाज की जरूरत कहते हुए सराहना की। 
आदिवासी परम्परा में मान्यता है कि - धुमकुड़िया, लयवद्ध तरीके से सामाजिक जीवन जीने की कला सीखने एवं सभी व्यक्तियों का 
कौशल विकास करने का केन्द्र स्‍थल है। (It is a traditional social rhythmic learning system and skill development 
center among Oraon tribe.)

कुँड़ुख़ (उराँव) आदिवासी समाज में धुमकुड़िया एक ऐसी शास्वत व्यवस्था थी जो सभी गांव एवं सभी टोला में हुआ करता था, जहां 
गांव-टोला के सभी लड़के-लड़की बच्चे (लिंग भेद रहित) शामिल होते थे। ऐसा उदाहरण किसी भी देश या समुदाय में सामान्य रूप से 
नहीं दिखता है। वैसे भारतीय इतिहास में पुराने राजा-महाराजाओं के राजपाट में गुरूकुल नामक संस्था हुआ करता था, जिसमें सिर्फ 
शासक वर्गों के पुरूष बच्चे ही प्रवेश पाते थे। जन-साधारण के लिए वहाँ प्रवेश नहीं था अथवा वर्जित था। आदिवासी उराँव समाज में 
बढ़ते उम्र के साथ जब किसी लड़के या लड़की का बेंज्जा (विवाह) निर्धारित होता था, तब उस लड़के या लड़की को धुमकुड़िया से 
विदाई किया जाता था। 

यहाँ पठन-पाठन का कार्य कोहाँ तूड़ (सिनियर वर्ग) के लड़के-लड़कियों द्वारा ही किया जाता था। परन्तु वर्तमान में यहां एक अनु शिक्षक
(पारा शिक्षक) के तौर पर किसी जानकार व्यक्ति को ग्राम सभा द्वारा चयनित किया जा सकता है। वर्तमान में समय की मांग के 
अनुसार सभी सदस्यों को यह आजादी होगी कि वे शनिवार एवं रविवार को छोड़कर अपने सुविधा के अनुसार ही धुमकुड़िया में शामिल 
होंगे।               

2. धुमकुड़िया कोरना एन्दरा तली ? (धुमकुड़िया प्रवेश क्या है ?)
   उत्तर - प्राचीन समय में, कुँड़ुख़ (उराँव) समाज में धुमकुड़िया में प्रवेश के लिए एक उम्र सीमा निर्धारित थी। गांव में बच्चे के 7वें वर्ष 
में धुमकुड़िया प्रवेश कराया जाता था। बच्चे के माता पिता बच्चे के बैठने के लिए चटाई, दीया जलाने के लिए करंज तेल आदि लेकर 
माघ महीने के शुक्ल पक्ष (बिल्ली पक्ख / इंजोरिया पक्ष) में प्रवेश कराया जाता था। बच्चे के माता पिता सहर्ष धुमकुड़िया से जोड़ने 
मानव जीवन जीने की कला सीखने हेतु प्रवेश कराया करते थे। 

3. माघ पूरना एन्दरा तली ? (माघ पूर्ण होना क्या है ?)
   उत्तर - पूर्व में, कुँड़ुख़ (उराँव) समाज में खेती-किसानी के लिए किसी दूसरे घर के नवजवान को एक खाश समय तक के लिए काम के
बदले आनाज या उसके समतुल्य कोई वस्तु निर्धारित देनदारी तय कर लाया जाता था जिसे जोंख़ रअ़ना कहा जाता है। नागपुरी में 
इसे धांगर रहना कहा जाता है जो एक Labour deal की तरह हुआ करता है। यह एक गरीब एवं मजबूर व्‍यक्ति के लिए जीवन यापन 
का एक तरीका भी था। इन कमियाँ व्यक्ति (दूसरे परिवार से कृषि कार्य के लिए लाये गये व्यक्ति) का कार्यकाल माघ महीने तक तय 
होता था। किसी-किसी गांव या परिवार में इस कमियाँ व्यक्ति के आने पर पयसरी नेग पूजा-पाठ किया जाता था तथा गांव एवं अपने 
देव-पितर से एक सदस्य की तरह परिचय कराया जाता था और उसके स्वस्थ्य जीवन की कामना की जाती थी। उसे परिवार के व्यक्ति 
की तरह उसका खाना-कपड़ा का ध्यान रखा जाता था। यह प्रथा अथवा व्यवस्था आज तक भी कहीं-कहीं चल रहा है। इस तरह खेती-बारी 
कार्य में आगे बढ़ते हुर धान कटनी-मिसनी कार्य अगहन-पूस तक समाप्त हो जाता है तथा पूस महीने में कुण्डी काना (हड़गड़ी)
नेग होता था। इस महीने में किसी का बिदाई या अदाई नहीं किया जाता था। इस प्रकार खेती-बारी कार्य का एक फसल चक्र माघ महीने 
में पूरा होता था। इसी तरह जब किसी नये कामगार को लाये जाने या उसके अवधि विस्तार किये जाने का कार्य भी माघ महीने में 
तय कर लिया जाता था। फागुन महीने में गांव का नया दामाद तथा नया कामगार को गांव के फग्गु सेन्दरा में शिकार खेलने के
लिए ले जाया जाता था। फागुन पूर्णिमा को फग्‍गु कटता था तथा दूसरे दिन चैत पइरबा को धूली हींड़ना (धूरहेंड़) होता था तथा तीसरे 
दिन जरजरी बेःचना (सामुहिक शिकार का रूप) के बाद करमा त्योहार तक के लिए शिकार खेलना मनाही हो जाता था। खाशकर हरियनी 
पूजा से करम पूजा तक जंगल में दतुन-पतई भी करना मनाही था। चैत महीने में सरहुल होता है, जिसे ख़ेख़ेल बेंज्जा (धरती की 
शादी) भी कहा जाता है। इस ख़ेख़ेल बेंज्जा (धरती की शादी) के बाद ही खेत में धान बीज डालने का कार्य आरंभ किये जाने का रिवाज 
था और अभी भी यह मान्यता है।

4. पेल्लो एड़पा एन्दरा तली ? (किशोरी गृह क्या है?)
   उत्तर - धुमकुड़िया में छोटे उम्र के बच्चे-बच्चियों (कुक्कोस-कुकोय) के शिक्षण में लिंग भेद नहीं होता है। परन्तु जैसे-जैसे उम्र बढ़ता है 
वैसे-वैसे सामाजिक जिम्मेदारी भी बढ़ती है। बड़े उम्र के लड़कियों के लिए पेल्लो एड़पा की अलग व्यवस्था हुआ करती थी, जहाँ लड़को 
या मर्दों का प्रवेश वर्जित माना जाता था। पेल्लो, वैसे बच्चियों को कहा जाता है जिसका मासिक धर्म शुरू हो गया हो और शारीरिक 
विकास की दृष्टि से एक पूर्ण नारी के गुण विकसित होने लगा हो। पूर्व में वैसे किशोरियों के लिए एक समारोह या अनुष्ठान के माध्यम से 
से पेल्लो एड़पा मंक्खना (किशोरी गृह प्रवेश) नेग किया जाता था। यह पेल्लो एड़पा धुमकुड़िया कैम्पस में अलग से एक व्यवस्था होती 
थी। कहीं-कहीं यह घर किसी विधवा औरत के घर पर हुआ करता था जिससे उस वृद्धा को लोगों का सहारा भी मिलता था। इसी तरह 
लड़कियों के लीडर को पल्लो कोटवार तथा लड़कों के लीडर को जोंख़ कोटवार कहा जाता है। धुमकुड़िया में लड़के एवं लड़कियाँ 
समान रूप से सहभागी हैं परन्तु पेल्लो एड़पा में उम्र के दृष्टिकोण से एक अनुशासनात्मक अलगाव है, जो सामाजिक सुरक्षा की नियम
 से अनुचित नहीं है।

 यूं तो किशोरी गृह या पेल्लो एड़पा (किशोरी गृह) या जोंख़ एड़पा (किशोर गृह) कोई अलग-अलग घर नहीं बल्कि यह एक मानक 
व्यवस्था एक मानक रेखा है जो बडे उम्र के किशोर-किशोरियों के बीच एक अनुशासन बनाये रखता है।  

5. जोंख़ एड़पा एन्दरा तली ? (किशोर गृह क्या है?)
   उत्तर - जैसा कि हम सभी जानते हैं कि बच्चे-बच्चियों (कुक्कोस-कुकोय) का 7वें वर्ष में धुमकुड़िया प्रवेश करवाया जाता था, परन्तु 
धुमकुड़िया के सामने यदि छोटा बच्चा आए तो उसे दूर नहीं किया जा सकता है। अतएव उसे Nursery या Pre nursery की 
तरह लेदका तूड़ की गिनती में रखा जाएगा। छोटे उम्र के बच्चे-बच्चियों (कुक्कोस-कुकोय) के शिक्षण के आरंभिक दौर में धुमकुड़िया में 
लिंग भेद नहीं होता है। परन्तु जैसे-जैसे उम्र बढ़ता है वैसे-वैसे सामाजिक जिम्मेदारी भी बढ़ती है। बड़े उम्र के लड़कियों के लिए पेल्लो 
एड़पा की अलग व्यवस्था हुआ करती थी, जहाँ लड़को या मर्दों का प्रवेश वर्जित माना गया है। पेल्लो, वैसे बच्चियों को कहा जाता है 
जिसका मासिक धर्म शुरू हो गया हो और शारीरिक विकास की दृष्टि से एक पूर्ण नारी के गुण विकसित होने लगा हो। पूर्व में वैसे 
किशोरियों के लिए एक समारोह या अनुष्ठान के माध्यम से पेल्लो एड़पा मंक्खना (किशोरी गृह प्रवेश) नेग किया जाता था। यह पेल्लो 
एड़पा धुमकुड़िया कैम्पस में अलग से एक व्यवस्था होती थी। कहीं-कहीं यह घर किसी विधवा औरत के घर पर भी हुआ करता था 
जिससे उस वृद्धा को लोगों का सहारा भी मिलता था। इसी तरह लड़कियों के लीडर को पल्लो कोटवार तथा लड़कों के लीडर को जोंख़ 
कोटवार कहा जाता है। कई लेखक धुमकुड़िया को युवागृह कहते हैं, पर यह सही नहीं है क्‍योंकि युवा शब्‍द का प्रयोग 18 से 40 वर्ष तक के लोगो लिए भी होता है। धुमकुड़िया में लड़के एवं लड़कियाँ 
भी किया जाता है। धुमकुड़िया में लड़के एवं लड़कियाँ समान रूप से सहभागी हैं परन्तु पेल्लो एड़पा में उम्र के दृष्टिकोण से एक 
अनुशासनात्मक सांकेतिक अलगाव है, जो सामाजिक सुरक्षा की नियम से अनुचित नहीं है। यूं तो किशोरी गृह या पेल्लो एड़पा 
(किशोरी गृह) या जोंख़ एड़पा (किशोर गृह) कोई अलग-अलग घर नहीं बल्कि यह एक मानक व्यवस्था एक मानक रेखा है जो बडे उम्र 
के किशोर-किशोरियों के बीच एक अनुशासन बनाये रखता है। 

6. धुमकुड़िया कोरना तथा पूरना उल्ला एन्दरा तली ? (धुमकुड़िया प्रवेश तथा पूर्णता दिवस क्या है?)
   उत्तर - कुँड़ुख़ समाज में सामाजिक जीवन जीने के लिए षिक्षण-प्रषिक्षण के जैसा धुमकुड़िया नामक एक सामाजिक पाठशाला हुआ 
करता था, जो वर्तमान में शिथिल है। यह सदियों से समाज द्वारा संचालित हुआ करता था। इसमें प्रवेश के लिए बच्चे का 7वां वर्ष 
उम्र सीमा होती थी। देर होने पर अधिक उम्र में भी प्रवेष होता था। इसमें प्रवेष के लिए माघ महीना निर्धारित था। इसी तरह खेती 
किसानी कामगार का तय समय का समापन माघ महीना ही होता था। खेती किसानी कामगारों के लिए निर्धारित समय सीमा पूरा 
होने की स्थिति को माघ पूरना भी कहा जाता है। इस तरह बच्चों के लिए प्रवेष दिवस तथा जो नवजवान धुमकुड़िया षिक्षा पूर्ण कर 
चुकने वाले के लिए समापन दिवास होगा। 

7. धुमकुड़िया कोरना अरा पूरना उल्ला माघ पुनई गेम एन्देर गे ? (धुमकुड़िया प्रवेश एवं पूर्णता दिवस माघ पूर्णिमा को क्यों ?)
   उत्तर - वर्तमान समय में आधुनिक शिक्षा विकास के साथ गांव की दिशा दिनों दिन असमान्य होते जा रही है। गांव की उर्जा शहर 
की ओर जाकर वहीं रूक जा रही है। नतीजा यह हो रहा है कि गांव में ज्ञान का राह दिखाने वाला नहीं मिल रहा है। शहर में रहने वाले 
से भी उनका खतियानी निवास पूछा जा रहा है, वैसे में आदिवासी समाज करे तो क्या करे? अब समय आ गया है कि आदिवासी समाज 
अपने बच्चों को बचपन से ही समाज के बारे में बतलाये। कुँड़ुख़ समाज में धुमकुड़िया एक सामाजिक पाठशाला है, जो सदियों से समाज
 द्वारा संचालित किया जाता रहा था। इस सामाजिक पाठशाला के द्वारा भाषा तथा संस्कृति संचारित होती थी किन्तु आधुनिक 
पाठशाला के आने के बाद यह पम्परागत पाठशाला विलुप्ति की कगार पर है। बताया जाता है कि धुमकुड़िया प्रवेश माघ महीने में होता 
था तथा कामगार सेवकों की विदाई (अर्थात माघ पूरना) भी माघ महीने में ही होता था। इस तरह यदि आधुनिक स्कूल तथा शिक्षकों 
को साथ लेकर माघ महीने का पूर्णिमा का दिन एक उपयुक्त समय है क्योंकि माघ पूर्णिमा को सरकारी छुट्टी होती है। वैसे में गांव में 
रहने वाले तथा रोजगार के लिए गांव से बाहर रहने वाले, सभी गांव आकर अपने पूर्वजों के खतियानी निवास को देखा करेंगे। यही 
सोचकर धुमकुड़िया कोरना-पूरना उल्ला को माघ पुनई में निर्धारित किया गया है। 

8. एन्देर, इन्नेलता बेड़ा नु धुमकुड़िया कोरना अरा पूरना उल्ला मना बअ़ना गही दरकार रअ़ई ? (क्या, आधुनिक समय में धुमकुड़िया 
प्रवेश एवं पूर्णता दिवस मनाने का आवश्‍यकता है?)
    उत्तर - हाँ, आवश्‍यकता है। केन्द्र एवं राज्य सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, वर्ष 2022 से लगा दी जाएगी, जिसके तहत 
झारखण्ड में 5 आदिवासी भाषाएं पढ़ाई जाएंगी। इस नीति के तहत स्कूल पूर्व शिक्षा की जिम्मेदारी आंगनवाड़ी केन्द्र Anganwari को 
दिये जाने की सरकार की योजना है। यहाँ तथ्य है कि सभी आंगनवाड़ी सेविका आदिवासी भाषा नहीं जानती हैं, वैसी स्थिति में बच्चों को 
आदिवासी भाषा नहीं जानने वाले के जिम्मे बच्चों को सौंपना पड़ेगा, जो बच्चों के भविष्‍य के लिए हितकर नहीं है। इस स्थिति में 
पम्परागत सामाजिक पाठशाला धुमकुड़िया को फिर से जागृत तथा विकसित करना पड़ेगा और अभी के समय में धुमकुड़िया में श्रुति 
साहित्य के साथ लिखित साहित्य को पाठ्यक्रम में शामिल करना ही पड़ेगा। ऐसा करने पर गांव में रहते हुए आदिवासी भाषा पर 
आधारित रोजगार में भी आगे बढ़ा जा सकता है। इसी तरह के उदेश्‍य की पूर्ती हेतु धुमकुड़िया कोरना एवं पूरना उल्ला को माघ पुनई में
 मनाये जाने की आवश्‍यकता है और हमें इस ओर आना ही पड़ेगा।

9. बरा नाम धुमकुड़िया कोरना-पूरना उल्ला नु ख़द्दर गने संग्गे मनोत ! (आइये हम सभी धुमकुड़िया प्रवेष तथा पूर्णता दिवस में बच्चों 
के साथ रहें !)
   उत्तर - आइये, हम सभी अपनी भाषा संस्कृति एवं रूढ़ी परम्परा की सुरक्षा तथा अपने बच्चों के जीवन संवारने में अपनी सहभागिता 
निभाएँ।

आलेख :-
डॉ. नारायण उराँव
संयोजक - अद्दी अखड़ा, राँची
झारखण्ड, मो0: 9771163804 
दिनांक : 16 जनवरी 2022

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