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गणचिह्ववाद या टोटम प्रथा

Totem गणचिह्ववाद या टोटम प्रथा (totemism) किसी समाज के उस विश्‍वास को कहतें हैं जिसमें मनुष्‍यों का किसी जानवर, वृक्ष, पौधे या अन्य आत्मा से सम्बन्ध माना जाए। ‘टोटम’ दृाब्द ओजिब्वे (Ojibwe) नामक मूल अमरीकी आदिवासी कबीले की भाशा के ओतोतेमन (ototeman) से लिया गया है, जिसका मतलब अपना भार्इ-बहन रिश्‍तेदार है। इसका मूल शब्द ‘ओते‘ (ote) है जिसका अर्थ एक ही माँ के जन्में भार्इ-बहन हैं जिनमें खून का रिश्‍ता है और जो एक-दूसरे से विवाह नहीं कर सकते। अक्सर टोटम वाले जानवर या वृक्ष का उसे मानने वाले कबीले के साथ विोश सम्बन्ध माना जाता है और उसे मारना या हानि पहुँचाना वर्जित होता है, या फिर उसे किसी विोश अवसर पर या विोश विधि से ही मारा जा सकता है।

 पशु-पक्षी, वृक्ष-पौधों पर व्यक्ति, गण, जाति या जनजाति का नामकरण अत्यंत प्रचलित सामाजिक प्रथा है जो सभ्य और असभ्य दोनों प्रकार के समाजों में पार्इं जाती है। असभ्य समाजों में यह प्रथा बहुत प्रचलित हैं और कहीं कहीं इसे जनजातीय धर्म का स्वरूप भी प्राप्त है। उत्तरी अमरीका के पचिमी तट पर रहनेवाली हैडा, टिलिगिट, क्वाकीटुल आदि जनजातियों में पु आकार के विााल और भयानक खंभे पाए जाते हैं, जिन्हें इन जातियों के लोग देवता मानते हैं। इनके लिए इन जातियों में टोडेम, ओडोडेम आदि दृाब्दों का प्रयोग होता है, जिसकी ध्वनि टोटेम दृाब्द में हैं। मध्य आस्ट्रेलिया के अरुंटा आदिवासी, अफ्रीका के पूर्वी मध्य प्रदेाों तथा भारत की जनजातियों में यह प्रथा प्रचलित हैं।

संसार के विभिन्न प्रदेाों में इस प्रथा का विभिन्न रूप पाया जाता है। परंतु इतिहासकारों का ऐसा मत है कि प्राचीन काल में कभी टोटेमीयुग रहा होगा, जिसके अवोश आज के टोटेमी रीति-रिवाज है। ऐसे इतिहासकारों में रार्इनाख और मैकलैनन के नाम उल्लेखनीय हैं। इस प्रकार की विचार धारा के अनुसार रार्इनाख ने (1900 र्इ. में) टोटेमिज्म के प्रधान लक्षणों की एक तालिका प्रस्तुत की। इस तालिका के अनुसार -
(1) कुछ पु मारे या खाये नहीं जाते और ऐसे पुओं को उन समुदायों में व्यक्ति पालते हैं।
(2) ऐसा कोर्इ पु यदि मर जाय, तो उसकी मृत्यु दृाोक मनाते हैं। मृतक पु का कहीं-कहीं विधिवत् संस्कार भी किया जाता है।
(3) कहीं-कहीं पु मांस भक्षण पर निोध वििाश्ट पु के वििाश्ट अंग पर होता है।
(4) ऐसे पु को यदि मारना या बलि देना पड़ जाए तो प्रार्थना आदि के साथ निशेध का उल्लंघन विधिपूर्वक किया जाता है।
(5) बलि देने पर भी उस पु का दृाोक मनाया जाता है।
(6) त्यौहारों पर उसे पु की खाल आदि पहनकर उसका स्वाँग भरा जाता है
(7) गण और व्यक्ति उस पु पर अपना नाम रखते हैं।
(8) गण के सदस्य अपने झंडों और अस्त्रों पर पु का चित्र अंकित करते हैं या उसे अपने दृारीर पर गुदवाते हैं।
(9) यदि पु खूँखार हो तो भी उसे मित्र और हितैाी मानते हैं।
(10) विवास करते हैं कि टोटेम-पु उन्हें यथा समय चैतन्य और सावधान कर देगा।
(11) पु गण के सदस्यों को उनका भविश्य बताकर उनका मार्गर्दान करता है, ऐसी उनकी धारणा है।
(12) टोटेमवादी उस पु से अपनी उत्पत्ति मानते हैं और उससे घनिश्ठ संबंध बनाये रखते हैं।
    संसार में गणचिह्ववाद (टोटेमिज्म) के लक्षण सब कहीं एक से नहीं पाये जाते। उदाहरणत: हैडा तथा टिलिंगिट जातियों में गणचिह्ववाद सामाजिक प्रथा हैं, परंतु उसका धार्मिक स्वरूप विकसित नहीं है। मध्य आस्ट्रेलिया की अरुन्टा जाति में टोटेम-धर्म और रीतियाँ पूर्ण विकसित हैं। टोटेमी पु की नकल या स्वाँग नहीं उतारते। अफ्रीका की बंगडा जाति में गणचिह्ववाद का धार्मिक रूप अप्राप्य है। भारत की मुंडा, उराँव, संथाल आदि जातियों में टोटेम केवल गणनाम और गणचिह्व के रूप में प्रयुक्त होता हैं। वहाँ टोटेम-बलि और टोटेम-पूजा की परंपराएँ नहीं पार्इ जातीं।
    आदिवासी कला पर गण का प्रभाव प्रचुर मात्रा में मिलता है। छोटानागपुर तथा मध्य प्रदेा में घरों की दीवारों पर टोटेम के चित्र देखने में आते हैं। न्यूजीलैंड के माओरी, अपनी नौकाओं पर अपने टोटेम का चित्र उकेर देते हैं। कर्इ अन्य जनजातियों में पहनने के वस्त्र, दृास्त्र, उपकरण और झंडे सब पर टोटेम चित्रित रहता है। विोशत: उत्तरी अमरीका और आस्ट्रेलिया की आदिवासी कला पर गणचिह्व का प्रभाव बहुत गहरा है।
    टोटेमगण के सदस्य अपने को टोटेम की अलौकिक और मानसिक संतान मानते हैं। वे अपने गण में विवाह नहीं करते। इस प्रकार टोटेमवादी समाजों में बहिर्विवाह की रीति मान्य होती है। सर जेम्स फ्रेजर का विचार है कि टोटेमवाद और बहिर्विवाह में कार्यकरण का संबंध है और वे सदैव साथ-साथ पाए जाते हैं। टोटेम को अलौकिक रूप से गणचिह्व मानने के कारण टोटेमी गण के सदस्य आपस में रक्तसंबध मानते हैं और इस कारण परस्पर विवाह नहीं करते।
    भारत में अनेक टोटेमी जातियाँ हैं। उराँव (कुँड़ुख), संथाल, गोंड, भील, मुंडा, हो इत्यादि जाति में सौ से अधिक ऐसे गण है जिनके नाम पु-पक्षी और वृक्ष पर रखे जाते हैं। उदाहरण के लिए देखा गया है कि महाराट्र में ताम्बे का पारिवारिक नाम रखने वाले लोग नाग को अपना कुल देवता मानते हैं और कभी भी नाग नहीं मारते। 19वीं सदी में सतपुड़ा के जंगलों में रहने वाले भील लोगों में देखा गया कि - हर गुट का एक टोटम, जानवर या वृक्ष था। जैसे कि पतंगे, सांप, दृोर, मोर, बांस, पीपल आदि। एक गुट का टोटम गावला नाम की एक लता थी जिस पर अगर उस गुट के किसी सदस्य का गलती से पैर पड़ जाए तो वह उसको सलाम करके उस से क्षमा-याचना करता था। अगर दो गुटों का एक ही टोटम हो तो उनमें आपस में विवाह करना वर्जित था क्योंकि वह एक ही पूर्वज के वंाज माने जाते थे। मोरी नामक भील गुट का टोटम मोर (पक्षी) था। इसके सदस्यों को मोर के पद-चिह्वों पर पैर डालना मना था। अगर कहीं मोर दिख जाए तो मोरी स्त्रियाँ उस से पर्दा कर लेती थीं या फिर दूसरी तरफ मुंह कर लेती थीं। इसी प्रकार झारखण्ड की ही जाति में लगभग पचास ऐसे टोटेमी गण है। राजस्थान और खानदेा के भील 24 गणों में विभाजित हैं, जिनमें से कर्इ के नाम पु-पक्षियों तथा वृक्षों पर आधारित लगते है। महाराश्ट्र के कतकरी, मध्यप्रदेा के गोंड और राजस्थान के मीना, मिलाला आदि जातियों में भी गणों के नाम उनके प्रदेा में पाए जानेवाले पु-पक्षियों पर रखे जाते हैं। इन सभी जातियों में, टोटेमी गण नाम के साथ-साथ टोटेमवाद के कर्इ लक्षण भी वर्तमान है। जैसे टोटेम को अलौकिक पितृ दृाक्ति मानना, टोटेम के दृारीर की वस्तुओं (जैसे पंख, खाल, पत्तियाँ या लकड़ी) और टोटेम के चित्र तथा संकेतों को भी पवित्र मानकर उनको पूजा जाता है और टोटेम को नश्ट करने पर कठोर प्रतिबंध होता है। साथ ही भारत में ऐसी अनेक जातियाँ हैं जो टोटेम पर अपने गण अथवा समुदाय का केवल नाम रखती है। बहुत सी ऐसी जातियाँ हैं जो केवल टोटेम को पूजती भर हैं।
    लगभग 6000 र्इ.पू. जब कबीलों से निकलकर गाँव या गण या नार व्यवस्था की दृाुरुआत भी टोटेम के आधार पर ही की गर्इ, अर्थात गांवों की निर्माण अलग-अलग किली (गोत्रों, टोटेम) पर ही की गर्इ। जिन्होंने, जंगलों को साफ कर गावों को स्थापित किया वे ही खूंटकटी कहलाये। अत: वही लोग भारत मे जमीन के असली मालिक हैं इसलिए आज भी उनके जमीन की मालगुजारी (लगान रसीद) पांच वर्शीय सरकारों को नहीं दी जाती है। इनके द्वारा बनाए गए किली, गोत्र, टोटेम आधारित गाँव व्यवस्था को ही परम्पारिक ग्राम सभा बोला जाता है। अत: वे उक्त गांव में सभी एक ही परिवार के वंाावली हैं। इसलिए प्राासनिक व्यवस्था को संचालित करने की दृाक्ति भी ऊक्त गांव में विोश टोटेम के वंाावली को ही है और गाँव परिवार के लिए नियम कानून बनाना, उसे प्रचार-प्रसार करना और लागू करना भी उन्हीं के द्वारा होना है।
    झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओड़िसा, बिहार, मध्यप्रदेा आदि राज्यों के पहाड़ी भ्ाूभाग में निवास करने वाली कुँड़ुख़ (उराँव) जनजाति के बीच टोटेम या गणचिह्व व्यवस्था काफी प्रचलित है। लोग, अपने टोटेम या गणचिह्व का सम्मान करते हैं। अपनी भाशा में इसे लोग गोत्र या गोतर कहते हैं। गोत्र को अंगरेजी में बसंद (क्लान) तथा गोत्रचिह्व या गणचिह्व को जवजमउ (टोटेम) कहा जाता है। जैसे - लकड़ा गोत्र का गोत्रचिह्व बाघ है, उसी तरह बड़ा गोत्र का गोत्रचिह्व बरगद का पेड़ है। समान गोत्र में दृाादी वर्जित है। यह गोत्र, पुरूश वंा परम्परा पर आधार पर स्वभाविक रूप से तय माना जाता है। बच्चे का जन्म जिस गोत्र-वंा में  होता है, उस बच्चे का गोत्र, स्वभाविक रूप से पिता के गोत्र-वंा से नामित होता है। पूजा अनुश्ठान अथवा मृत्यु संस्कार के समय लोग अपने गोत्र-वंा के अनुसार ही कार्य सम्पन्न करते हैं, किन्तु विवाहित महिला को पूजा अनुश्ठान अथवा मृत्यु संस्कार के समय अपने पति के गोत्र-वंा के अनुसार कार्य करना पड़ता है। इस तरह विवाहित महिला को, जन्म आधारित गोत्र तथा समाज द्वारा निर्धारित गोत्र यानि पति का गोत्र, दोनों को याद रखना पड़ता है। समाज में, जब अपने जन्म आधारित गोत्र वाले व्यक्ति से मिलता है तो वह अपने पिता के वंा अथवा रिस्ते का माना जाता है और माताएँ अपने बच्चों को मामा-मामी, मुसी-मोसा, नाना-नानी आदि रिस्ते से पुकारने के लिए सिखलाती है तथा अपने पति के गोत्र के व्यक्ति से मिलने पर काका-काकी, ताची-मामु, अज्जी-अज्जो रिस्ते से पुकारने को कहती हैं। 
    उराँव समाज में परम्पारिक तरीके से चले आ रहे ग्राम सभा (पद्दा पचोरा) में - पहान, पुजार, महतो, करठा, कोटवार आदि के नाम से गाँव में उनके पद के अनुसार जमीन निर्धारित किया गया है। यह खेत या जमीन, गाँव में पूजा-पाट करने अथवा गाँव चलाने के लिए मेहनताना या किये जाने वाले खर्च की भरपार्इ के लिए है। एस.सी.राय की पुस्तक ‘‘उराँव ऑफ छोटानागपुर’’ में कहा गया है - ‘‘पहान गाँव बनाता है और महतो गाँव चलाता है।’’ परम्पारिक रूप से पहान चुनने का दो तरीका है - पहला, वंावाद, अर्थात पहान का बेटा ही पहान बनेगा तथा दूसरा, दैववाद अर्थात दैवीय दृाक्ति जिसे चुन ले। दूसरा तरीका का इस्तेमाल तब होता है, जब गाँव या समाज में कोर्इ विवाद हो। इसके लिए गाँव के पहान-पुजार एवं गाँव के लोग, दैवीय दृाक्ति का आह्वान एवं अनुश्ठान करते हैं और इस विधि से जो चुना जाता है वह सर्वमान्य होता है। इस विधि को ‘‘पाय चोरगअ्ना’’ या ‘‘पाय रेंगवाना’’ विधि कहते हैं। गाँव प्राासन के लिए ग्राम सभा (पद्दा पचोरा) में किसी मामले का निपटारा नहीं हो पाने की स्थिति में उस मामले को ‘‘पड़हा’’ स्तर पर सुलझाया जाता है और पड़हा स्तर पर विवाद नहीं सुलझने पर, उस मामले की सुनवार्इ बिसुसेन्दरा में किया जाता रहा है। इस बिसुसेन्दरा में परम्पारिक रूप से गठित पदाधिकारियों, जैसे - पडह़ा बेल, पड़हा देवान, पड़हा कोटवार आदि के द्वारा निर्णय किया जाता है। बिसुसेन्दरा के पदाधिकारी परम्पारिक रूप से चुने जाते हैंं तथा इसका निर्णय सर्वोच्च माना जाता है। 
    अत: परम्पारिक गाँव अथवा किली पड़हा, एक परिवार का हिस्सा होने के कारण, पुलिस या बाहरी व्यक्तियों को उनके गाँव या परिवार में दखलंदाजी बिना अनुमति नहीं की जा सकती हैं। परम्पारिक गांवों में गाँव प्रमुख ही सभी परिवारों का मुखिया होने के नाते ही उनके पास कार्यापालिका, न्यायपालिका और विधायिका की तीनों ही ाक्ति प्राप्त हैं इसलिए परम्पारिक गांव में उनके रुढी प्रथाओं मान्यताओं को विधि का बल प्राप्त हैं। लेकिन पंचायती कानून ग्राम सभा विशेा टोटेम या गोत्र या किली आधारित न होकर मिक्स टोटेम या एक से अधिक गोत्रों को मिलाकर बनार्इ हुर्इ ग्राम सभा है जो परम्पारिक न होकर मानव निर्मित हैं, इसलिए इसे विधि का बल प्राप्त नहीं हैं।

विजय कुजुर 
- ए.सी. विजय कुजूर
(लेखक एक इंजिनियर हैं और आदिवासी चिंतक तथा सामाजिक कार्यकर्ता। यह उनका व्यक्तिगत विचार है।)

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