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क्या है सरना धर्म ?

सरना धर्म क्या है ? यह दूसरे धर्मों से किन मायनों में जुदा है ? इसका केन्द्रीय आर्दा और र्दान क्या है? अक्सर इस तरह के सवाल पूछे जाते हैं। कर्इ सवाल सचमुच जिज्ञााा के पुट लिए होते हैं और कर्इ बार इसे दृारारती अंदाज में भी पूछा जाता है, कि गोया तुम्हारा तो कोर्इ धर्मग्रंथ ही नहीं है, इसे कैसे धर्म का नाम देते हो ? लब्बोलुआब यह होता है कि इसकी तुलना और कसौटी किन्हीं किताब पर आधारित धर्मों और उसकी कट्टरता के सदृय बिन्दुवार की जाए।

1. सच कहा जाए तो सरना एक धर्म से अधिक, आदिवासियों के जीने की पद्धति है जिसमें लोक व्यवहार के साथ आध्यमिकता या अध्यात्म भी जुडा हुआ है। आत्मा और परम-आत्मा का आवधारणा और इसका आराधना लोक जीवन से इतर न होकर लोक और सामाजिक जीवन का ही एक भाग है। धर्म यहाँ लोक जीवन से अलग और विोश स्वरूप और स्थल में आयोजित कर्म कांडीय गति- विधियों के उलट जीवन के हर क्षेत्र में सामान्य गति- विधियों में गुंफित रहता है।

2. सरना अनुगामी, प्रद्भति को ज्यों के त्यों पूजन करता है। वह प्रद्भति से अलग उसके किसी द्भत्रिम स्वरूप या प्रतीक का निर्माण नहीं करता है। वह घर के चुल्हा, बैल, मुर्गी, पेड़, खेत, खलिहान, चाँद और सूरज सहित सम्पूर्ण प्राद्भतिक प्रतीकों का उसके प्राद्भतिक रूप में ही पूजन करता है। वह पेड़ काटने के पूर्व पेड़ से क्षमा याचना करता है। गाय, बैल, बकरियों को जीवन सहचार्य होने के लिए धन्यवाद देता है। पूरखों को निरंतर मार्ग र्दान और आाीर्बाद देने के लिए भोजन करने, पानी पीने के पूर्व उनका हिस्सा भ्ाूमि पर गिरा कर देते हैं। धरती माता को प्रणाम करने के बाद ही खेतीबारी के कार्य दृाुरू करते हैं। उनके लिए खेत-खलिहान उत्पादन या आय प्राप्त करने का महज एक साधन नहीं है, बल्कि वह उसे अपने परिवार और समाज का अविभाज्य परिवार ;पदंसपमदंइसमद्ध का अंग मानता है। खेतों की पूजा और आराधना करना सरना के लिए एक अनिवार्य पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्य और उतरदायित्व है।

3. आदिवासियों ने सदियों से अपने धर्म को कोर्इ नाम नहीं दिया था। नामकरण तो तब अनिवार्य हो जाता है, जब एक से अधिक चीजें एक जगह होंती हैं और उसमें अंतर करने के लिए दोनों के नाम अलग-अलग किए जाते हैं। आदिवासी इलाकों में हजारों साल से दूसरा कोर्इ धर्म नहीं था, इसलिए जब दूसरे धर्म इन इलाकों में आए तो पहचान के लिए एक नाम रखना जरूरी हो गया और पूजा स्थल (सरना स्थल) के आधार पर प्रकति पूजा पद्धति को सरना धर्म का नाम दे दिया गया। यह बीसवीं सदी के उस काल में हुआ जब प्रद्भति का आराधना करने वालों के लिए एक नाम रखना जरूरी हो गया था, क्योंकि तब अनेक धर्म या आराधणा पद्धति का आगमन आदिवासी समाज में हो गया था। इसलिए इस नाम के साथ किसी प्राचीनता का बोध करना उचित नहीं है।  

4. सरना धर्म में पूजन पद्धति की परंपरा प्राचीन काल से है, लेकिन यह कहीं भी रूढ नहीं है। इसका एक कारण समाज में धर्म के प्रति कट्टरता की भावना का लोप होना है। कोर्इ भी सरना, लोक और परलोक के प्रतीकों में से किसी का भी पूजन कर सकता है और किसी का भी न करे तो भी वह सरना ही होता है। कोर्इ किसी एक पेड की पूजा करता है तो जरूरी नहीं कि दूसरा भी उसी पेड की पूजा करे। दिलचस्प और ध्यान देने वाली बात तो यह है कि जो आज एक विोश पेड़ की पूजा कर रहा है जरूरी नहीं कि वह कल भी उसी पेड की पूजा करे। यहाँ पेड किसी मंदिर, मस्जिद या चर्च की तरह रूढ़ नहीं है। वह तो विराट प्रद्भति का खरबों प्रतीक में से सिर्फ एक प्रतीक है और हर पेड़ प्रद्भति का जीवंत प्रतिनिधि-प्रतीक है, इसलिए किसी एक पेड़ को रूढ़ होकर पूजन करने का कोर्इ मतलब नहीं। अमूर्त दृाक्ति की उपासना के लिए एक मूर्त प्रतीक की सिर्फ आवयकता वा किसी पेड़ का पूजन करता है।

5. सरना धर्म किसी धार्मिक ग्रंथ और किताब का मोहताज नहीं है। किताब आधारित धर्म में अनुगामी को नियमों के खूँटी से बांधा गया होता है। जहाँ अनुगामी एक सीमित दायरे में अपने धर्म की प्रैक्टिस करता है। वह दायरे से बाहर नहीं जा सकता है। जहाँ वर्जनाएँ हैं, सीमा है, खास क्रिया क्रमों को करने के खास नियम और विधियाँ हैं, जिसका प्रिाक्षण खास तरीके से दिया जाता है। किताब में लिखित सिद्धांतों, नियमों की रखवाली करने वाले प्रिाक्षित धार्मिक सैनिकों की बाढ़ होती है, जो उसके अनुयायियों को अपने धर्म में चिपका कर रखने की वह सारे क्रियाकर्म करते हैं  जिससे वे बाहर न जा सकें। नयी आवधारणाओं पर बोध न कर सकें और उसे न अपना सकें। नियमों को न मानने या भंग करने पर अनुयायी को दण्डित किया जाता है। ध्यान देने की बात है कि किताब आधारित धर्म में दण्डित देने की व्यवस्था है लेकिन उसे बाहर निकालने की व्यवस्था नहीं है। क्योंकि वहाँ  धार्मिक वर्चस्व के लिए जनसंख्या का उपस्थित रहना जरूरी है, ताकि उन पर   धार्मिक रूप से दृाासन किया जा सके। 

6. किताब या पोथीबद्ध धर्म के इत्तर सरना धार्मिकता के उच्च व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देने वाला धर्म है। जहाँ सब कुछ प्राद्भति से प्रभावित है और सब कुछ प्रद्भतिमय है। कोर्इ नियम, वर्जनाएँ नहीं है। कोर्इ केन्द्रीय अवधारणा नहीं है, जिसे मानना अनिवार्य है। आप जैसे हैं वैसे ही बिना किसी द्भत्रिमता के सरना हो सकते हैं और प्राद्भतिक ढंग से इसे अपने जीवन में अभ्यास कर सकते हैं। जीवंत और प्राणमय प्रद्भति, जो जीवन का अनिवार्य तत्व है, आप उसके एक अंग है। आप चाहें तो इसे मान्यता दें या न दें। आप पर किसी तरह की धार्मिक बंदिा नहीं है। जन्म से लेकर मृत्यु तक आप किसी धार्मिक जंजीर से बंधे हुए नहीं हैं। आपके जन्म, दृाादी और मृत्यु के किसी भी संस्कार में धार्मिक रूप से आप पर नियंत्रण नहीं किया जाता है, न ही किसी संस्कार को करने के लिए किसी धार्मिक ऑथोरिटी से अनुमति प्राप्त करने की जरूरत है। 

7. आप प्रद्भति के प्रति अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति कहीं भी कर सकते हैं या कहीं भी न करें तो भी आपको कोर्इ मजबूर नहीं करेगा, क्योंकि हर व्यक्ति की भक्ति की दृाक्ति या दृाक्ति की भक्ति की अपनी अवधारणाएँ हैं। एक समूह का अंग होकर भी आपके “वैचारिक और मानसिक व्यक्तित्व“ समूह से भिन्न हो सकता है। अपने वैयक्तिक आवधारणा बनाए रखने और उसे लोक व्यवहार में प्रयोग करने के लिए आप स्वतंत्र है। यही सरना धर्म की अपनी विोशता और अनोखापन है। मानवीय वैचारिक स्वतंत्रता की ऐसी उर्वरा भ्ाूमि अन्य धर्म में मिलना मुकिल है।  

8. यह किसी रूढ़ बनाए या ठहराए गए धार्मिक, सामाजिक या नैतिक नियमों से संचालित नहीं होता है। आप या तो सरना स्थल में पूजा कर सकते हैं या जिंदगी भर न करें। यह आपके व्यक्तिगत स्वतंत्रता का भरपूर सम्मान करता है। आप चाहें तो अपने बच्चों को सरना स्थल में ले जाकर वहाँ प्रार्थना करना सिखाएँ या न सिखाएँ। कोर्इ आप पर किसी तरह की मर्जी को लाद नहीं सकता है। प्रत्येक धर्म में धार्मिक संस्कारों की एक सूची होती है, जिसे करना उसके अनुयायी के लिए अनिवार्य है, लेकिन सरना में ऐसी किसी भी तरह के बंधन, नियंत्रण और निर्देान कहीं नहीं है। आप यहाँ पर परम स्वतंत्र रूप से धार्मिक या अधार्मिक हो सकते हैं। धर्मनिरपेक्षता की आत्मा, सरना धर्म से प्रेरित है। 

9. आप धार्मिक, सामाजिक और ऐच्छिक रूप से स्वतंत्र हैं। आपको पकड़ कर न कोर्इ प्रार्थना रटने के लिए कहा जाता है, न ही आपको किसी प्रकार से मजबूर किया जाता है कि आप धार्मिक स्थल जाएँ और वहाँ अपनी हाजिरी लगाएँ और कहे गए निर्देाों का पालन करें । सरना धर्म के कर्मकांड करने के लिए कहीं किसी को न प्रोत्साहन किया जाता है न ही इससे दूर रहने के लिए किसी का धार्मिक और सामाजिक रूप से तिरस्कार और बहिश्कार किया जाता है। सरना धर्म किसी को धार्मिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक रूप से नियंत्रित नहीं करता है और न ही उन्हें अपने अधीन रखने के लिए किसी भी तरह के बंधन बना कर उन पर थोपता है।

10. सरना बनने या बने रहने के लिए कोर्इ नियम या सीमा रेखा नहीं बनाया गया है। इसमें घ्ाुसने के लिए या बाहर निकले के लिए आपको किसी अंतरण अर्थात (धमार्ंतरण) करने की जरूरत नहीं है। कोर्इ किसी धार्मिक क्रियाकलाप में दृाामिल न होते हुए भी सरना बन के रह सकता है। उसके धार्मिक झुकाव या कर्मकांड में दृाामिल नहीं होने या दूर रहने के लिए कोर्इ सवाल जवाब नहीं किया जाता है। सरना धर्म का कोर्इ पंजी या रजिस्टर नहीं होता है। इसके अनुगामियों के बारे कहीं कोर्इ लेखा जोखा नहीं रखा जाता है, न ही किसी धार्मिक नियमों से संबंधित जवाब के न देने पर नाम ही काटा जाता है।

11. सरना अनुगामी जन्म से मरण तक किसी तरह के किसी धार्मिक सत्ता के निर्देान, संरक्षण, प्रवचन, मार्गर्दान या नियंत्रण के अधीन नहीं होते हैं। उसे धार्मिक रूप से आग्रही या पक्का बनाने की कोर्इ कोिाा नहीं की जाती है। वह धार्मिक रूप से न तो कट्टर होता है और न ही     धार्मिक रूप से कट्टर बनाने के लिए उसका ब्रेनवाा किया जाता है। क्योंकि ब्रेनवाा करने, उसे धार्मिकता के अंध-कुँए में धकेलने के लिए कोर्इ तामझाम या संगठन नहीं होता है। इसीलिए इसे प्राद्भतिक धर्म भी कहा गया है। प्राद्भतिक अर्थात् जो जैसा है वैसा ही स्वीकार्य है। इसे नियमों ओर कर्मकांडों के अधीन परिभाशित भी नहीं किया गया है। क्योंकि इसे संकीर्ण परिभाशा से बांधा नहीं जा सकता है।

12. जन्म, विवाह मृत्यु सभी संस्कारों में उनकी निश्ठा का कोर्इ परिचय न तो लिया जाता है न ही दिया जाता है। हर मामले में वह किसी आधुनिक देा में लागू किए गए सबसे आधुनिक संवैधानिक प्रावधानों (समता का अधिकार, जीवन और वैचारिक धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार जैसे मूल अधिकारों की तरह) का सदियों से व्यक्तिगत और सामाजिक स्वतंत्रता का उपभोग करते आ रहा है। उसके लिए कोर्इ पर्सनल कानून नहीं है। वह दृाादी भी अपनी मर्जी जिसमें सामाजिक मर्जी स्वयं सिद्ध रहता है, से करता है और तलाक भी अपनी मर्जी से करता है। लड़कियाँ सामाजिक रूप से लडकों की तरह की स्वतंत्र होतीं हैं। धर्म उनके किसी सामाजिक या वैयक्तिक कार्यों में कोर्इ बंधन नहीं लगाता है।

13. सरना, बनने के लिए किसी जाति में जन्म लेने की जरूरत नहीं है। वह उराँव, मुण्डा, हो, संताल, खड़िया, महली या चिक-बड़ाइक या कोर्इ भी समुदाय, कहीं के भी आदिवासी, मसलन, उड़िसा, छत्तीसगढ, महाराश्ट्र, गुजरात या केरल के हो सकते हों, जो किसी अन्य किताबों, ग्रंथों, पोथियों आधारित धर्म को नहीं मानता है और जिसमें सदियों पुरानी जीवन यापन के अनुसार जिंदगी और समाज चलाने की आदत रही है, सरना या प्राद्भतिक धर्म का अनुगामी कहा जा सकता है। क्योंकि उन्हें नियंत्रित करने वाले न तो कोर्इ संगठन है, न समुदाय है न ही उन्हें मानसिक और मनोवैज्ञानिक रूप से नियंत्रण में रखने वाला बहुत चालाकी से लिखी गर्इ धार्मिक किताबें हैं। कोर्इ भी आदमी सरना बन कर जीवन यापन कर सकता है क्योंकि उसे किसी धमार्ंतरण के क्रिया कलापों से होकर गुजरने की जरूरत नहीं है।

14. सरना धर्म में सरना अनुगामी खुद ही अपने घर का पूजा पाठ या धार्मिक कर्मकांड करता है। लेकिन सार्वजनिक पूजापाठ जैसे सरना स्थल में पूजा करना, करम और सरहूल में पूजा करना, गाँव देव का पूजा या बीमारी दूर करने के लिए गाँव की सीमा पर किए जाने वाले डंगरी पूजा वगैरह पहान करता है। पहान का चुनाव विोश प्रक्रिया जिसे थाली और लोटा चलाना कहा जाता के द्वारा किया जाता है। जिसमें चुने गए व्यक्ति को पहान की जिम्मेदारी दी जाती है। लेकिन अलग अलग जगहों में पृथक ढंग से भी पहान का चुनाव किया जाता है। चुने गए पहान, पहनर्इ जमीन पर आर्थिक अलंबन के लिए खेती-बारी कर सकता है या जरूरत न होने पर उसे चारागाह बनाने के लिए छोड सकता है। यहाँ भी सरना, किसी रूढ़ीवादी संकीर्ण विचारों से अनिवार्य रूप से बंधित नहीं है। 

15. उल्लेखनीय है कि सरना पहान सिर्फ पूजा पाठ करने के लिए पहान होता है और उसका पद रूढ या स्थायी नहीं होता है। वह समाज को धर्म का सहारा लेकर नियंत्रित नहीं करता है। वह हमेाा पहान की भ्ाूमिका में नहीं रहता है, न ही उसका कोर्इ वििाश्ट पोााक या मेकअप होता है। वह सिर्फ पूजा करते वक्त ही पहान होता है। पूजा की समाप्ति पर अन्य सामाजिक सदस्यों की तरह ही सामान्यं सदस्य होकर समाज में रहता है और सबसे व्यवहार करता है। वह पहान होने पर कोर्इ वििाश्टता प्राप्त नागरिक नहीं होता है, न ही वििाश्ट सम्मान और व्यवहार की अपेक्षा करता है। 
16. अन्य धर्मो में पूजा करने वाला व्यक्ति न सिर्फ वििाश्ट होता है बल्कि वह हमेाा उसी भ्ाूमिका और पोााक और मेकअप में समाज के सामने आता है और आम जनता को उसे वििाश्ट सम्मान अदा करना पडता है। सम्मान नहीं अदा नहीं करने पर धार्मिक रूप से “उदण्ड“ व्यक्ति को सजा दी जा सकती है, उसकी निंदा की जा सकती है या व्यक्ति के धार्मिक अधिकारों को छीना जा सकता है। पहान धार्मिक कार्य के लिए कोर्इ आर्थिक लाभ नहीं लेता है। वह किसी तरह का चंदा भी नहीं लेता है, न ही किसी प्रकार के पैसे इकट्ठा करने में सहभागी बनता है। वह अपनी जीविकोपार्जन स्वयं करता है और समाज पर आश्रित नहीं रहता है। सरना धर्म, में परजीविता का कोर्इ स्थान नहीं है। 

17. कर्इ लोग अन्जाने में या दृारारत वा सरना धर्म को हिन्दू धर्म का एक भाग कहते हैं और सरना आदिवासियों को हिन्दू कहते हैं। लेकिन दोनों धर्मो में कर्इ विवास या कर्मकांड एक सदृय होते हुए भी दोनों बिल्कुल ही जुदा हैं। यह ठीक है कि सदियों से सरना और हिन्दू धर्म का सह-अस्तित्व रहा है। इसलिए कर्इ बातें एक सी दिखती है। नाम वगैरह आदि में एकरूपता दिखता है। लेकिन नाम से कोर्इ किसी और धर्म का नहीं हो जाता है। एक भ्ाूभाग में रहने वाले समाजों के बीच इस तरह के समानता का होना आचार्य की बात नहीं है। लेकिन यह याद रखना चाहिए कि आदिवासी सरना और हिन्दू धर्म के बीच विवास, सिद्धांत और आर्दा के मामलों में 36 का आंकडा है और वे सांस्द्भतिक और ऐतिहासिक रूप से एक दूसरे के विरोधी रहे हैं।

18. आदिवासी मूल्य, विवास, अध्यात्म हिन्दू धर्म से बिल्कुल जुदा है इसलिए किसी आदिवासी का हिन्दू होना मुमकिन नहीं है। हिन्दू धर्म कर्इ किताबों पर आधारित है और उन किताबों के आधार पर चलाए गए विचारों से यह संचालित होता है। याद कीजिए इन किताबों का आदिवासी समाज के लिए कोर्इ महत्व नहीं है, न ही उसका समाज पर प्रभाव है। इन किताबों के लिए आदिवासियों के मन में सम्मान भी नहीं है न ही हिकारत। इन किताबों में आत्मा, पुर्नजन्म, सृश्टि और उसका अंत, चौरासी लाख देवी देवता, ब्राह्मणवाद की जमींदारी और मालिकाना विचार आदि केन्द्र बिन्दु है। हिन्दू धर्म में तमाम देवता राजा या वर्चस्ववादी रहे हैंं जो एक दूसरे से युद्ध करते हुए रक्तपान करने वाली मानसिकता का पोशण करता है। आदिवासी कभी किसी के उपर वर्चस्व जमाना नहीं चाहा। हिंन्दू धर्म जातिवाद का जन्मदाता और पोशक है और सामांतवाद और मानवीय दृाोशण, आर्थिक ठगी को यहाँ धार्मिक मान्यता प्राप्त है। आज भी हिंदू दृाोशण और भेदभाव को हिंदू धर्म की जड़ मानते हैं। आदिवासी समाज सच्चे रूप में एक समाजवादी समाज हैं, वहीं हिन्दू में बड़े छोटे का न सिर्फ सिद्धांत कायम है, बल्कि छोटे हो दीनहीन और घटिया समझने के मानसिकता केन्द्र बिन्दु में हैं। यहाँ हिन्दू धर्म, सरना धर्म के उलट रूप में प्रकट होता है। ब्राहणवाद और जातिवाद से पीडित यह जबरदस्ती बहुसंख्यक, कर्मवीर और श्रमाील लोगों को नीच और घटिया घोशित करता है और लौकिक और परलौकिक विशयों की ठेकेदारी ब्राह्मण और उनके मनोवैज्ञानिक उच्चता का बोध कराने के लिए बनाए गए नियमों को सर्वोच्चता प्रदान करता है। हिंदू समाज में न्यायर्पू्ण सामाजिक व्यवस्था को नकारा गया है। यहाँ दृाोशण करने, अपने से तथाकथित रूप से कमजोर लोगों के साथ अन्याय को उचित माना गया है। यह वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक और मानवीय रूप ये अत्यंत अन्यायकारी और घृश्टातापूर्ण है। इंसानों को अन्याय पूर्ण रूप से धार्मिक भावनाओं के बल पर, जानवरों की तरह गुलाम बनाने, ठगने के हर औजार इन किताबों में मौजूद है। आदिवासियों को दीन-हीन नीच समझने या मनवाने के ाडयंत्र के रूप में आज के विकासमय समय में भी हिंदू धर्म संगठन उन्हें वनवासी दृाब्द से संबोधित करने का हर मौका को काम में लाते हैं। आदिवासियों को भारतीय धरती पर न्यायपूर्ण स्थान देने के बदले वे उनके साथ अन्याय करने के लिए खरबों रूपये व्यय कर रहे हैं। क्योंकि उनके धार्मिक अवधारणा में ही ऊँच-नीच और न्याय-अन्याय गुंफित है।  

19. किसी समुदाय या मानव को नीच और अन्याय का पात्र समझने की धार्मिक नियम, परंपरा और लोक व्यवहार सरना समाज में मौजूद नहीं है। सरना समाज में जातिवाद और सामांतवाद दोनों ही नहीं है। यहाँ सिर्फ समुदाय है, जो न तो किसी दूसरे समुदाय से ऊँच है न नीच है। सरना धर्म के समता के मूल्य और सोच के बलवती होने के कारण किसी समुदाय के दृाोशण का कोर्इ सोच और मॉडल न तो विकसित हुर्इ है और न ही ऐसे किसी प्रयास को मान्यता मिली है। प्रथम दृश्टि में सरना धर्म की तरह ऊँच गुणों से संपन्न और कोर्इ धर्म है ऐसा प्रतीत नहीं होता है। 

20. कर्इ लोग आदिवासियों को दिृाव, हनुमान और प्रद्भति के अन्य प्रतीकों के पूजन को हिन्दू धर्म से जोड़कर इसे हिन्दू सिद्ध करना चाहते हैं। लेकिन सरना वालों ने कहीं इसका मंदिर न तो खुद बनाए हैं न ही सामाजिक धर्म और पर्वों में घरों में इनकी पूजा की जाती है। सरना किंवदती में भी ऐसी कथा नहीं मिलती है। किसी सरना गीत और लोक कथा में भी ऐसी कोर्इ घटना नहीं मिलती है, जिससे सिद्ध हो कि हिंदू िाव और हनुमान ही आदिवासी देवता भी हैं। ऐतिहासिक रूप से अभी तक कुछ स्पट नहीं हो पाया है लेकिन अनेक विद्वान हनुमान और िाव को प्रागआदिवासी मानते हैं। उराँव लोगो के बीच उनकी भाशा में मय्हदेव दृाब्द का चलन है, जिसका अर्थ मयहा देव अर्थात मया ननु देव अर्थात दयावान दृाक्ति के रूप में मान्यता है। हिन्दुओं के बीच हिन्दी में, महादेव का सामान्य अर्थ महा अर्थात् बड़ा और देव अर्थात देवता के रूप में मान्यता है। ऐसी अवधारणा आदिवासियों में नहीं है। तथ्य है कि वैदिक धर्मग्रंथ ‘‘वेद’’ में ‘‘महादेव’’ दृाब्द का प्रयोग नहीं है। अर्थात हिन्दु धर्म में महादेव अर्थात बड़ा देवता कहने की रिवाज पुराण काल में स्थापित हुआ, जो अनार्य दैविक दृाक्ति के समतुल्य एवं समानान्तर होकर सामंजस्य का कारण बना। हजारों सालों से एक ही धरती पर निरंतर साथ रहने के कारण दोनों के बीच ऐसा अंतरण होना संभव हुआ। लेकिन आदिवासी हिन्दू नहीं है यह स्पश्टं है। हिंदू धर्म, मुसलमान और र्इसार्इ धर्म की तरह वर्चस्ववादी, विस्तारवादी, घमंडवादी, दूसरों पर अपने विचारों को जबरदस्ती थोपने वाला धर्म है, यही कारण है कि यह मानवीय हिंसा में विवास करने वाला धर्म के रूप में दूसरे विस्तारवादी धर्म के साथ अपना नाम लिखा लिया है। आदिवासी गाँवों में हिंदू देवी देवताओं के तस्वीरों का मुफ्त वितरण, आदिवासी गाँव अंचलों में मंदिरों का निर्माण, आदिवासी बालकों का अपने स्कूल में िाक्षा दान देकर आदिवासी मूल्य और संस्द्भति को नश्ट करने के लिए उन्हें एजेंट के रूप में इस्तेमाल आदि करना, गरीब आदिवासियों का मंदिरों में ब्राह्मण द्वारा सामूहिक विवाह कराना, आदिवासियों को आदिवासियों के मार्इंडवाा करने की प्रक्रिया में दृाामिल करना और हिंदू बने लोगों को आदिवासियों का राजनैतिक नेता बनाना, उन्हें पद और पैसे का लोभ से पाट देना आदि बातें हिंदू धर्म को र्इसार्इ और मुसलमान धर्मों की तरह हटधर्मी और विस्तारवादी धर्मों की पंक्तियों में बैठा दिया है। र्इसार्इ धर्म का आदिवासियों के बीच प्रचार, दृाुद्ध धार्मिक सिद्धांत नहीं रहा है, बल्कि उसे िाक्षा और सेवा की आड़ में किया गया। यदि दृाुद्ध धार्मिक सिद्धांत के माध्यम से र्इसार्इयत का प्रचार किया जाता तो वह आदिवासी सोच-विचार और अवधारणा के विपरीत होने के कारण स्वीकार्य नहीं होता। लेकिन िाक्षा और स्वास्थ्य की आवयकता ने इसे स्वीकार्यता दिलाया है। 

21. हाल ही में कुछ सरना लोग जो खुद को सरना के रूप में परिचय देते हैं और हिन्दुत्व, क्रिचिनिटी, इस्लाम के ऊपरी आवरण से प्रभावित हैं। इन लोगों ने सरना को परिभाशित करने, उसका कोर्इ प्रतीक चिन्ह, तस्वीर, मूर्ति, मठ, पोथी आदि बनाने की कोिाा की है जिसे निहायत ही आर्इडेंटिटी क्राइसिस से जुझ रहें लोगों का प्रयास माना जा सकता है। इन चीजों के बनने से सरना धर्म के वैविक मूल्यों में हृास होगा और इसके अनुठापन खत्म होगा। इन चीजों की अनुपस्थिति ही सरना धर्म को दूसरे धर्मों से अलग एक वििाश्ट मूल्य और प्राद्भतिक आवधारणा वाला बनाया है। 

22. सरना धर्म में विचार, चिंतन की स्वतंत्रता उपलब्ध है। सरना वालों को किसी कट्टर सिद्धांतों को मानने का कोर्इ निर्देान भी नहीं है, न ही नये विचारधारा पर चिंतन करने की मनाही है। अपने धार्मिक चिंतन को एक रूप देने के लिए ऐसा करने वाले भी स्वतंत्र हैं। लेकिन ऐसे परिवर्तन को सरना धर्म का अनुयायी कहना, एक मजाक के सिवा कुछ नहीं है। क्योंकि इनके विचारों में नयी धारा नहीं है, बल्कि दूसरे धर्म के उपरी आवरण की नकल करने का प्रयास है। सरना किसी मूर्ति, चिन्ह, तस्वीर या मठ का मोहताज नहीं है। लेकिन ऐसा करने में यह भी दूसरे धर्म की धार्मिक बुरार्इयों का िाकार हो जाएगा और यह अन्य धर्मो के सदृय उनका एक कार्बन कॉपी बन के रह जाएगा। सरना धर्म के विरोधी तो ऐसे कार्य कलापों को प्रोत्साहित करना पसंद करेंगे, क्योंकि इससे सरना धर्म का कद घटेगा, वहीं वे अपने धर्म की कमियों को सही साबित करने के लिए सरना को भी कर्इ आवधारणों के गुलाम  धर्म साबित करने में कामयाब होंगे। मूर्ति, तस्वीर, मठ आदि के रास्ते, सरना धर्म में एक बाजार, वर्चस्व, प्रभाव जमाने की बुरार्इयाँ आ जाएगी। ऐसी बुरार्इयाँ केन्द्रीय विचारधारा को नश्ट करके उसे एक साधारण धर्म बना देता है, जिसमें आर्थिक पक्ष सबल रहता है।   

23. यदि सरना-र्दान के दृाब्दों में कहा जाए तो यह सब चिन्ह अपनी आर्इडेंटिटी गढने, रचने और उसके द्वारा वैयक्तिक पहचान बनाने के कार्य हैं। जिसका इस्तेमाल, सामाजिक कम राजनैतिक, सांस्द्भतिक और वैचारिक साम्राज्य् गढ़ने और वर्चस्व स्थापित करने के लिए एक हथियार के रूप में किया जाता रहा है। ऐसे चीजों का अपना एक बाजार होता है और उसके सैकड़ों लाभ मिलते हैं। लेकिन सरना र्दान, सोच, विचार, विवास, मान्यता से बाजार का कोर्इ संबंध नहीं है। धार्मिक क्रिया कांड में मिट्टी के दीए और छोटे-मोटे मिट्टी-भांड तथा पत्तों, पुआलों का उपयोग किया जाता है। मिट्टी का छोटा दीया, भाँड़, घड़ा आदि हजारों साल से स्थानीय लोगों के द्वारा ही निर्मित होता रहा है और इसका कोर्इ स्थायी बाजार नहीं होता है। न ही इसका कोर्इ सबल आर्थिक पक्ष होता है। 

24. कु्ल मिला कर यही कहा जा सकता है कि सरना एक अमूर्त दृाक्ति को मानता है और सीमित रूप से उसका आराधना करता है। लेकिन इस आराधना को वह सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक औजार के रूप में नहीं बदलता है। वह आराधना करता है लेकिन उसके लिए किसी तरह के सौदेबाजी नहीं करता है। यदि वह करता है तो फिर वह कैसे सरना ? लेकिन किसी मत को कोर्इ मान सकता है और नहीं भी, क्योंकि व्यक्ति के पास अपना विवेक होता है और यह विवेक ही उसे अन्य प्राणी से अलग करता है, विवेकवान होने के कारण अपनी अच्छार्इयों को पहचान सकता है। सभी कोर्इ अच्छार्इयाँ, कल्याणकारी पथ खोजने के लिए स्वतंत्र हैं। इंसान की इसी स्वतंत्रता की जय-जय-कार हर युग में हर तरफ हुर्इ है। 

25. मूर्तियों, तस्वीरों के नाक, कान तो सिर्फ उगते हैं जब आदमी इन मूर्तियों के सामने भिखारी बन कर उनसे अपने स्वार्थ के लिए भीख मांगता है। जब उनकी भीख मांगने के दृाब्द खत्म हो जाते हैं, तो वह लकड़ी या पत्थर या मेटल का मूर्ति या कागज की तस्वीर सिर्फ मूर्ति या तस्वीर भर बन के रह जाता है। सदियों से दुनिया में बार-बार लाखों बार कहा गया है कि धर्म आदमी के दिमाग और हृदय पर ही हो सकता है। प्राद्भतिक दृारीर के बाहर किसी धर्म का कोर्इ अस्तित्व नहीं होता है और न हो सकता है। दृारीर में दिमाग सोचता है, हृदय भावनाओं के अनुसार धड़कता है। आदमी किसी भी पूजा स्थल, प्रार्थनालय में जाए, वे अपने मन और हृदय के माध्यम से ही प्राद्भतिक दृाक्ति (र्इवर या भगवान या देवता) से संबंध जोड़ने का प्रयास करता है। किसी मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, सरना स्थल आदि तमाम जगहें सिर्फ मनोवैज्ञानिक रूप से आदमी के मन को किसी प्राद्भतिक दृाक्ति के अधीन होने का भ्रम पैदा करता है। यह भ्रम इसलिए भी होता है क्योंकि इसके लिए व्यक्ति के आदत करने की प्रद्भति को विोश तौर से काम में लगाया जाता है। आदमी में या अधिकतर प्राणी में एक ही कर्म या क्रिया बार-बार किए जाने के कारण वह दिमाग के किसी कोने में एक क्रम के रूप में कैद हो जाता है। यही कारण है कि लोगों को आदत के अनुसार किसी खास क्रिया करके संतोा प्राप्त होता है। तमाम धर्म, अबोध बच्चों को अपने दैनिक, साप्ताहिक, मासिक या वार्शिक कार्यक्रमों के लिए पकड़ता है और उनके दिमाग में खास तौर से तैयार किए गए मैटर को बार-बार डाला जाता हैं। कालांतर में बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तो उन्हें बार-बार कराए गए कार्य या क्रिया की ऐसी आदत लग चुकी होती है कि वह उससे सहज रूप से छुटकारा नहीं पा सकता है। इसे साधारण भाशा में कहें तो मार्इंडवाा की क्रिया बच्चों में किया जाता है और यह धर्म के नाम पर किया जाता है। काफी माता-पिता को लगता है कि वे अपने बच्चों के कल्याण के लिए उन्हें नैतिक और धार्मिक आदत डाल रहे हैं। लेकिन वर्शों तक बच्चों को ऐसी िाक्षा के कारण वे वैचारिकी रूप से स्वतंत्र रूप से विचार-विलेाण करने के नैसर्गिक दृाक्ति से रहित हो जाते हैं। इसी के कारण जो वैचारिकी रूप से स्वतंत्र विलेाण की दृाक्ति से रहित हो जाते हैं वे अपने धार्मिक क्रिया-कलापों पर आलोचनात्मक दृश्टिकोण विकसित नहीं कर पाते हैं और उनका सोच एकांगी हो जाता है। परिणाम स्वरूप धार्मिक कट्टरता, धार्मिक लड़ार्इयाँ, धार्मिक भेदभाव, पक्षपात का जन्म ऐसे ही मार्इंडवाड लोगों के कारण होता है।

26. सभी धर्म एक अपने खास धर्म के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक स्वार्थ, हित को इस मार्इंडवाा क्रिया के माध्यम से साधने में अपना पूरा जोर लगा देता है। धर्म की इस मार्इंडवाा क्रिया के माध्यम से ही दृाासक अप्रत्यक्ष रूप से उन लोगों पर भी दृाासन करता है, जो उनके तत्कालिक आर्थिक और राजनैतिक मॉडल को समर्थन नहीं देते हैं। लेकिन धार्मिक क्रिया के माध्यम से उनके सोचने की क्रिया को उत्तेजित करके अपने लक्ष्य को साधने में कामयाब रहते हैं। इसे प्रत्यक्ष रूप से इस तरह कहा जा सकता है - माना कि बीजेपी की आर्थिक और राजनैतिक नीति से असहमत हुए भी लोग किसी न किसी ऐसी पार्टी को वोट देंगे जो हिन्दुत्व के र्दान में विवास करती है। भले वह त्रृणमूल हो, कांग्रेस हो या कोर्इ अन्य पार्टी। एक हिंदू, मुसलमान, सिख, र्इसार्इ, सरना आदि इसी मार्इंडवाा क्रिया के कारण अपने से अलग आस्था वाले से पिल पड़ता है। जब भी कोर्इ इस तरह के कार्यकलाप से जुड़ जाता है तो उसके कर्इ कारण हो सकते हैं लेकिन कहीं न कहीं धार्मिक मार्इंडवाा क्रिया उसमें जरूर जुड़ी हुर्इ होती है। मार्इंडवाा की क्रिया, बिना मूर्ति, तस्वीर या प्रार्थनालय या पूजालय के नहीं हो सकता है। दिमाग और हृदय के माध्यम से आदमी कहीं भी किसी प्राकिृतक र्इवर से जुड़ सकता है। लेकिन धर्म के नाम पर मार्इंडवाा करने वाले उन्हें प्राद्भतिक रूप से स्वतंत्र होकर प्रार्थना या पूजा करने के लिए प्रोत्साहित नहीं करते हैं। किसी मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, सरना स्थल आदि तमाम जगहें सिर्फ मनोवैज्ञानिक रूप से आदमी के मन को किसी प्राद्भतिक दृाक्ति के अधीन होने का भ्रम पैदा करता है। यह भ्रम इसलिए भी होता है क्योंकि इसके लिए व्यक्ति के आदत करने की प्रद्भति को विोश तौर से काम में लगाया जाता है। 

27. आदमी में या अधिकतर प्राणी में एक ही कर्म या क्रिया बार-बार किए जाने के कारण वह दिमाग के किसी कोने में एक क्रम के रूप में कैद हो जाता है। यही कारण है कि लोगों को आदत के अनुसार किसी खास क्रिया करके संतोा प्राप्त होता है। तमाम धर्म अबोध बच्चों को अपने दैनिक, साप्ताहिक, मासिक या वार्शिक कार्यक्रमों के लिए पकड़ता है और उनके दिमाग में खास तौर से तैयार किए गए मैटर को बार-बार डालते हैं। कालांतर में बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तो उन्हें बार-बार कराए गए कार्य या क्रिया की ऐसी आदत लग चुकी होती है कि वह उससे सहज रूप से छुटकारा नहीं पा सकता है। इसे साधारण भाशा में कहें तो मार्इंडवाा की क्रिया बच्चों में किया जाता है और यह धर्म के नामपर किया जाता है। 

28. मार्इंडवाा की क्रिया बिना मूर्ति, तस्वीर या प्रार्थनालय या पूजालय के नहीं हो सकता है। दिमाग और हृदय के माध्यम से आदमी कहीं भी किसी प्राकृतिक र्इवर से जुड़ सकता है। लेकिन धर्म के नाम पर मार्इंडवाा करने वाले उन्हें प्राद्भतिक रूप से स्वतंत्र होकर प्रार्थना या पूजा करने के लिए प्रोत्साहित नहीं करते हैं। यदि सभी स्वतंत्र होकर अपने धर्म को या र्इवर को मानने लग जाएँ तो धर्म के नाम पर संस्थाएँ, संगठन चलाने वाले परजीवियों को खाने के लाले पड़ जाएँगे और उन्हें अपने मेकअप उतार कर पेट भरने के लिए श्रम करना पड़ेगा। इसलिए थोक के भाव में मुर्तियों और तस्वीरों का उत्पादन किया जाता है। यह उत्पादन, वितरण और उपभोग की व्यवस्था में दृाामिल होकर करोड़ों रूपये कमार्इ का साधन बन जाता है।
 

नेह अर्जुन इन्‍दवार
(लेखक एक आदिवासी चिंतक एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं तथा यह उनके व्यक्तिगत विचार हैं।)
- नेह अर्जुन इंदवार

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