ज्ञातव्य है कि डॉ० नारायण उराँव का आवश्यक इंटरर्नशीप अवधि दरभंगा मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल, लहेरियासराय (बिहार) में एम.बी.बी.एस. की परीक्षा पास करने के बाद फरवरी 1989 से फरवरी 1990 तक था। उस इंटर्नशीप अवधि में उन्होंने अपने चिकित्सीय कार्य के अतिरिक्त आदिवासी समाज के कई सामयिक प्रष्नों के प्रत्युत्तर में एक पुस्तक लिखी‚ जिसका नाम है - ‘‘सरना समाज और उसका अस्तित्व’’। इन्टर्नशीप के दौरान ही उन्होंने वर्ष 1989 में उस पुस्तक का प्रकाशन करवाया। इस पुस्तक के लेखन एवं प्रकाशन के बीच नई लिपि की आवश्य कता एवं उपयोगिता महशूस हुई। इस पुस्तक को लिखते समय उनके मन में कई प्रश्न उठे – (1) साधारणतया लोग आदिवासियों को छोटी जाति और कमजोर क्यों समझते है ॽ (2) ऊँची जाति कहलाने वाले लोग कौन हैं और उनकी पहचान क्या है ॽ (3) आदिवासी लोग‚ मानसिक कुण्ठा का शिकार क्यों हो जाते हैं ॽ
इन ग्रंथियों को दूर करने के लिए यह जानना आवष्यक था कि आदिवासियों को छोटा समझने वाले लोग कौन हैं और उनकी पहचान क्या है ! कहीं‚ यह सामंतवादी ताकत का असर तो नहीं ! दूसरी ओर यह तथ्य है कि आदिवासी समाज के पास अभी भी बहुत सारे ज्ञान भण्डार हैं‚ जिसे पूरी दुनियाँ को बतलाया नहीं जा सका है। जिस दिन इस ज्ञान उर्जा को संचित एवं विकसित कर समाज के समक्ष रखा जाएगा, उसी दिन यह हीन ग्रंथि हम सभी से दूर होगी। इस उधेड़बुन में अस्पताल में कार्य करते हुए उनका ध्यान दो चीजों पर पड़ा –
(1) माला डी - गर्भ निरोधक गोली की पर्ची।
(2) 100 रूपया का नोट।
इन दोनों चीजों में एक ही शब्द को अलग-अलग तरीके से अर्थात कई अलग-अलग लिपियों से भिन्न तरीके से लिखा हुआ था। इसे देखकर उनका हृदय रोमांचित हो उठा और सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे आदिवासी भाषा एवं सांस्कृतिक धरोहर को बचाने की कड़ी की माला में एक फूल पिरोने का कार्य आरंभ किया। ईश्वीरीय प्रेरणा से उनको आभास हुआ कि यदि आदिवासियों की भाषा की भी अपनी लिपि होती तो इन पर्चियों में आदिवासियों की भाषा भी दर्ज होती। इसी सोच के साथ वे आगे बढ़ते गए और रास्ता निकलता गया।
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