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पिता की संपत्ति पर बेटी का अधिकार : एक उराँव आदिवासी महिला की कलम से

देश की आजादी के बाद भारत में नया संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ और कई पुराने छोटे-बड़े रियासत एक झण्डे के नीचे आ गये। इस नव निर्माण में लोगों के बीच, संविधान बनने के पूर्व से चले आ रहे हिन्दु पर्सनल लॉ, मुस्लिम पर्सनल लॉ, ईसाई विवाह कानुन इत्‍यादि सामाजिक एवं सम्प्रदायिक कानून नये संविधान में यथावत स्वीकार कर लिया गया। भारतीय जनजाति समूह क्षेत्र में भी 5वीं एवं 6वीं अनुसूचित क्षेत्र के नाम से विषेष प्रशासनिक क्षेत्र निर्धारित किया गया। इन्ही 5वीं अनुसूची क्षेत्र के अन्तर्गत उराँव (कुँड़ुख़) जनजाति के नाम से देश के कई हिस्से में निवासरत है। इनकी अपनी भाषा, लिपि, संस्कृति, रीति-रिवाज, परम्परा एवं विधान है। भारतीय कानून व्यवस्था में इन रीति-रिवाज, परम्परा, संस्कृति इत्‍यादि को कस्टमरी लॉ या दस्तुर कानुन के नाम से जाना जाता है।  उराँव समाज के बीच यह कस्‍टमरी कानून अलिखित है और उनके बीच यह एक परम्परागत सामाजिक एवं न्‍यायायिक ईकाई है जिसका पड़हा है जिसे 3 5 7 9 12 21 22 आदि गाँव के लोग परम्परानुसार गठन किये हैं।
पड़हा की प्राथमिक इकाई पद्दा पचोरा (ग्राम सभा) है, इसमें किसी मामले का निपटारा नहीं हो पाने की स्थिति में एक पड़हा स्तर पर विवाद को सुलझाया जाता और एक पड़हा स्तर पर विवाद नहीं सुलझने की स्थिति में मामले की गंभीरता के अनुसार वह मामला कम से कम 2 या 3 पड़हा के बीच मामला पहूंचता है। यदि 2 या 3 पड़हा के बीच विवाद नहीं सुलझता है तो न्‍याय के लिए बिसु सेन्दरा या फिर न्‍यायालय का दरवाजा खटखटाया जाता है। पारम्परिक रूप से पड़हा एवं बिसुसेन्‍दरा के पदधारियों में से जैसे - पड़हा बेल, पड़हा देवान, पड़हा कोटवार इत्‍यादि के द्वारा निर्णय किया जाता है।
इन बातों के होते हुए बचपन के कुछ प्रश्‍न मेरे मन मस्तिष्क को बार-बार विचलित करते रहे हैं। जब मैं पिताजी के साथ खेतों में काम करते हुए पिताजी हमेशा खेतों का नाम लिया करते थे - 1. कोड़कर भूईहरी खेत 2. कायमी रैयती खेत, 3. परती कदिम खेत ( गैर मजूरवा खेत को जोत कब्जा कर बंदोबस्ती किया हुआ) 4. नावल्दी बंदोबस्ती खेत। पिताजी बोलते थे - आज रैयती खेत पिपरा चौरा में धान बोने जाना है। मैं पिताजी से खेतों के बारे में अकसर पूछा करती थी। इन खेतों को मेरे नाम लिखवा दो। मैं शादी के बाद आपके पास रहूँगी, खेती करूँगी, ससुराल नहीं जाऊँगी। पिताजी कहते थे, बेटियों के नाम खानदानी जमीन को नहीं लिखवा सकते है। उसमें बेटा लोगों का नाम रहता है। तुमको एक जगह का जमीन दिखा देगें, जहाँ पर तुम अपने पति एवं बच्चों के साथ जीवन भर कमा खा सकती है। जब अपना ससुराल जाना चाहोगी, ससूराल चली जाना। मैं अपने कमाई का जमीन खरीदकर दूँगा, उसको तुम्हारे नाम लिख दूंगा किन्तु वंशावली (खानदानी) जमीन को बेटी को नहीं दिया जाता है। ये जमीन को बेटा-बहु के लिए छोड़ा जाता है। उस समय मैं पिताजी से कुछ बोल नहीं पायी और मेरे मन में बहुत से प्रश्‍न उठते रहे। इन प्रश्‍नों के बारे में मैं 22 पड़हा बिसुसेन्दरा महासम्मेलन, बिसुसेन्दरा स्थल : कोलो बगीचा, सैन्दा टोली, थाना सिसई, जिला गुमला में  21 एवं 22 मई 2013 तथा 9 एवं 10 मई 2015 को 52 पड़हा ग्रामसभा बिसुसेन्दरा महाधिवेधन 2015, बिसुसेन्‍दरा स्थान : चैगरी छपर बगीचा, थाना सिसई, जिला गुमला में शामिल हुई और 04 एवं 05 मई 2019 को 22 पड़हा ग्रामसभा बिसुसेन्दरा महाधिवेधन 2019, बिसुसेन्दरा स्थान : टाना बगीचा, लंगटा पबेया, थाना सिसई, जिला गुमला का रिपोर्ट जो टी.आर.आई.रांची में अभिलेख है को देखी-समझी और वर्तमान में एक बेटे की माँ के रूप में पूरी जिम्मेदारी के साथ इस आलेख को संकलन की हूँ।     
परम्‍परागत उराँव समाज में बेटियों को पैतृक जमीन पर अधिकार क्यों नहीं है ? इस प्रश्‍न का उत्तर ढूँढ़ने पर पता चलता है कि - उराँव आदिवासी समुदाय में बेटी की शादी हो जाने पर वह अपने पति की सम्पति की स्वामी खुद बन जाती है। जबतक वह अविवाहित तबतक पिता के सम्‍पत्ति की उत्‍तराधि‍कारी रहती है और यदि वह शादी के बाद विधवा भी हो जाती है तो ससुराल में अपने पति के घर अपनी जीविकोपार्जन कर सकती है। और यदि किसी कारण वश छूट जाती है तो समाजिक प्रथानुसार निर्णय किया जाता है। यदि ससुराल में बेटी न रह पाये पिता के घर आकर जीवन-यापन के लिए पिता की सम्पति पर अधिकार दिया जाता है। वह उसका उपयोग जब तक जीवित है तब तक कर सकती है पर उसे बेच नहीं सकती है। वैसे कोड़कर भूँईहरी जमीन को मर्दों को भी बेचने का अधिकार नहीं है, क्योंकि वह बाप-दादा के पूर्व से खनदान में चला आ रहा है। 
परम्परागत उराँव समाज में सामाजिक शादी के अन्तर्गत सिर्फ स्वाजातीय शादी की मान्यता है, परन्तु स्वजाति में एक ही गोतर में शादी वर्जित है। स्वजाति सगोत्रीय एवं विजातीय शादी को परम्परागत उरांव समाज वर्जित करता है। एक गोत्र के लोगों में भाई-बहन का रिस्‍ता माना गया है। सामाजिक परम्परा के विरूद्ध की गयी शादी समाज में निदंनीय एवं दण्डनीय है। 
क्या पुरूष वर्ग विजातीय शादी कर सकता है यदि कर लिया तो समाज उसके साथ क्या करती है ? कुँड़ुख़ समाज पितृ-प्रधान परम्परा पर आधारित है। फिर भी वर्जना के बाद भी यदि कोई विजातीय शादी या ढुकू को बढ़ावा देता है तो समाज उसकी निंदा करता है और वह परम्परानुसार सामाजिक दण्ड का भागी होता है तथा समाज में मिलने-मिलाने के लिए वर-वधु का सामाजिक शुद्धिकरण तथा सामाजिक शादी नेगचार करना होता है। इसके लिए सामाजिक दण्ड के रूप में निर्धारित राशि एवं पड़हा भोज कराना पड़ता है। 
जब महिला विजातीय शादी करती है तब क्या किया जाता है ? या समाज उसके साथ क्या व्यवहार करती है ? परम्परागत कुँड़ुख़ समाज में वर्जना के बाद भी यदि कोई महिला विजातीय शादी करती है, तो उसे गाँव समाज में कहा जाता है कि वह गांव छोड़कर अपने चुने हुए पति के साथ चली जाए। इस कृत्य के लिए परम्परानुसार उसके माता-पिता या अभिभावक द्वारा सामाजिक दण्ड एवं पड़हा भोज दिया जाता है। इसके अतिरिक्त उस कन्या के संतान को उराँव जाति का सदस्य नहीं माना जाता है। 
बेटियों को जमीन पर सम्पूर्ण अधिकार क्यों नहीं है ? परम्परागत आदिवासी समाज में जमीन को परिवार के भरन पोषण का आधार माना गया है। जिसके चलते यह वंशानुगत सम्पति है और इसे सामाजिक व्यवस्था की मान्यता के अनुसार अपने वंश में ही हस्तान्तरण होता है। इस तरह परम्परा के अनुसार समाज में हरेक लड़की को शादी से पहले अपने पिता के घर और शादी के बाद अपने पति के वंशानुगत सम्पति में स्वाभाविक उपभोग का हिस्सेदार होती है। वैसे पुस्तैनी भूईहरी जमीन को बेचना महिला के साथ पुरूष के लिए भी वर्जित है। ऐसे में बाहरी लोग आदिवासी बेटियों से विवाह कर या रखैल रख‍कर अपने नाम जमीन लिखवा लेने का कार्य करने लगे हैं। इससे समाज का ही शोषण होता है। यदि कोई महिला विजातीय विवाह करती है और अपने पिता के जमीन पर हिस्‍सेदारी माँगती है, तो धीरे-धीरे जमीन आधारित क्षेत्र के बंटवारे से आदिवासी कहलाने के लिए मुश्‍किलें होने लगेंगी। शायद बेटी को जमीन पर सम्पूर्ण अधिकार नहीं दिये जाने का ऐसा भी विचार रहा होगा। दूसरी बात यह है कि बेटा या बेटी जन्म लेना एक नैसर्गिक अथवा प्राकृतिक प्रक्रिया है तथा मर्द या औरत के नैसर्गिक गुण अपनी प्राकृतिक दषा के अनुसार चलती है।
क्‍या कोई बेटी यह चाहेगी कि वह शादी के बाद अपने पति के साथ न जाकर अपने पिता के घर रहे ? आदिवासियों, खाशकर परम्परागत आदिवासियों का प्रथागत नेग-संस्कार, नैसर्गिक व्यवहार के अनुरूप है और हजारों साल से यह चला आ रहा है। इसे लोगों को समझना चाहिए !! 
समाज कितने शादी की अनुमति देता है ? परम्परागत उराँव़ समाज में समाज द्वारा किसी लड़का या लड़की को उसके जीवन में मड़वा शादी सिर्फ एक बार किया जाता है किन्तु विशेष परिस्थिति में जैसे पहली पति/पत्नी की मृत्यु होने पर, पहली पति/पत्नी के पागल होने पर, पहली पति/पत्नी के घर छोड़कर जाने पर, पहली पति/पत्नी का नामर्द/बांझपन की स्थिति में शादी विच्देद हेतु बिहउड़ी (सामाजिक दण्ड) किया जाता है? उसके बाद समाज में संगहा बेंज्जा (सगाई नेःग के द्वारा) समाज में दूसरी शादी करने की प्रथा है। उराँव समाज में विधवा शादी, विधुर शादी एवं तलाक शुदा की शादी, संगहा बेंज्जा नेग द्वारा किया जाता है।
पति-पत्नी के बीच संबंध विच्छेद (तलाक) का मामला किस तरह से निपटारा किया जाता है ? पति-पत्नी के बीच संबंध बिच्छेद (तलाक) के लिए परम्परागत तरीके से बिहउड़ी लेन-देन किया जाता है। बच्चों के परवरिश (परबस्ती) की जिम्मेदारी प्राकृतिक रूप से पिता पर होती है। यदि बच्चा नाबालिक हो तो बच्चा माँ के साथ रह सकता है या बिहउड़ी के समय बच्चे के हित में समाज को जैसा अच्छा लगे के अनुसार होता है। यदि संबंध विच्छेद लड़का द्वारा किया गया हो तो माँ-बच्चे के परवरिश के लिए बच्चे के पिता को खोरपोस (जीवन यापन का साधन) व्यवस्था करना होता है और यदि संबंध विच्छेद लड़की द्वारा किया गया हो तो खोरपोस व्यवस्था के लिए लड़का बाध्य नहीं किया जाता है। बालिग होने पर पुत्र/पुत्री पिता के वारिश के रूप में सम्पति में परम्परागत रूप से हकदार होते हैं। 
परम्परागत उराँव समाज की रूढ़ीवादी परम्परा विश्‍वास धर्म आस्था एक धरोहर है। परम्परागत कुँड़ुख़ समाज रूढ़ीवादी परम्परा को बरकरार रखते हुए परम्परागत रूप से की गई शादी से उत्पन्न संतान को ही वंषानुगत सम्पति (पुस्तैनी जमीन) का हिस्सेदार मानता है इसके अतिरिक्त किसी भी विधि से की गई शादी से उत्पन्न संतान को पुस्तैनी जमीन में हिस्सेदारी दिलाने हेतु समाज जिम्मेदारी नहीं उठाता है। 
The Gazette of India May 3, 1913 (The 2nd May 1913) के No 550 में कहा गया है मुण्डा उराँव संताल, हो, भूमिज, खड़िया, गोड़ आदि के लिए पूर्व से ही उनके कस्टमरी को मान्यता दी गई है जिसे च्में ।बज 1996 द्वारा वर्तमान में विधि का बल प्राप्त है।
आजादी के बाद सविधान रचने वालों ने भी आदिवासियों के लिए एक विशेष प्रावधान बनाया। हिन्दु उतराधिकार कानून में इन्हें सीधे तौर पर हिन्दु नहीं माना गया है। उसी तरह हिन्दु विवाह कानुन, हिन्दू दत्तक कानून आदि में भी सीधे तौर पर आदिवासियों को हिन्दू नहीं माना गया है। देश की आजादी के 49 वर्ष बाद भारतीय संसद द्वारा पेसा एक्ट PESA Act  1996 पारित किया गया, जिसमें आदिवासी रूढ़ी परम्परा भाषा संस्कृति को विधि का बल प्राप्त है। जिस तरह हिन्दू उतराधिकार कानून, हिन्दू दत्तक कानून सीधे ईसाई एवं मुस्लिम पर नहीं लगता है। विधिक तौर पर या संवैधनिक तौर पर परम्परागत आदिवासियों पर हिन्दु विवाह कानून एवं हिन्दु उत्तीरधिकार कानून नहीं लगता है। परन्तु जो व्यक्ति यह स्वीकार करे ही कि वह हिन्दू धर्म परम्परा को मानता है और जाति प्रमाण पत्र के लिए एक हिन्दू धर्म मानने वाले के हिसाब से प्रमाण पत्र प्राप्त किया हो उस पर सभी हिन्दू कानून लग सकता है। आदिवासी मामले में हिन्दू विवाह कानून सामान्य तौर पर नहीं लगने के चलते आदिवासियों को प्रथागत विवाह विच्छेद (Customary divorse) का सबुत प्रस्तुत करने हेतु माननीय उच्च न्यायालय, झारखण्ड, राँची द्वारा 
अप्रील 2021 में निर्देश जारी किया गया है।
ईसाईयों में ईसाई विवाह कानून है तथा इस्लाम में मुस्लिम कोड बिल है। इसाईयों में इंडियन क्रिश्चियन मैरिज एक्ट के तहत विवाह एवं विवाह विच्छेद या डिवोर्स का प्रावधान है। इन पर हिन्दू उतराधिकार कानून एवं हिन्दू दस्तक कानून नहीं लगता है। परम्परागत आदिवासियों का अलग से कोई (Mariage act) या (divorse act) नहीं हैं। वे अपने पारम्परिक दस्तूर कानून से संचालित होते है और इसे PESA Act  1996  के तहत विधि का बल प्रदान किया गया है।
क्या परम्परागत आदिवासियों में उत्तराधिकार कानून, विवाह कानून, विवाह विच्छेद कानून एवं दत्तत ग्रहण कानुन है - उत्तर है कोई विशिष्ट कानून नहीं है। परम्परागत आदिवासी समाज में रूढ़ी प्रथा के अंतर्गत सभी बातें व्यवहार में है और यह सभी पद्धतियाँ परम्परागत आदिवासी समाज में रूढ़ी प्रथा के साथ चली आ रही है जिसे कस्टमरी (Customary) कानून भी कहा जाता 
क्या कस्टमरी (Customary) व्यवस्था को मानने के संदर्भ में अबतक केन्द्र सरकार या राज्य सरकार द्वारा दिषा निर्देष दिया गया है ? इस संबंध में भारत सरकार का विधि मंत्रालय या गृह मंत्रालय तथा झारखण्ड का विधि विभाग या गृह विभाग द्वारा कोई विषिष्ट दिषा निर्दे अथवा अधिसूचना जारी किये जाने की जानकारी नहीं है, पर माननीय हाईकोर्ट द्वारा अप्रील 2021 में इस दिषा में कार्य किया गया है। वैसे संसद द्वारा पारित पेसा एक्ट के द्वारा उपरोक्त बातों को विधि का वल प्राप्त है। परम्परागत उराँव परिवार में शादी के रस्म-रिवाज में परिवार की सहमति, समाज की सहमति तथा बारात लेकर आने का अर्थ लड़का पक्ष की सहमति के बाद पगसी-पट्टा सिन्दरी तथा सभा सिन्दरी नेग होता है और विदाई के समय पिता या भाई के द्वारा कोरा में उठाकर वर पक्ष को कोरा में सौंपा जाता है तथा वर पक्ष वाले कोरा में ग्रहण करते हैं। उस दिन से लड़की का मां-बाप का कोरा से ससुराल वाले का कोरा का पक्ष स्वाभाविक रूप से जुड़ जाता है। शादी के बाद का पहला करम उपवास लड़की अपने मायके में करती है और करम पूजा का सारा सामान उसके ससुराल से करम डउड़ा में आता है। विवाहित कन्या के प्रथम करम उपवास में दोनों पक्ष के लोग खीरा बेटा के रूप में आने वाले संतान अथवा वंश की कामना करते हैं। इसी तरह शादी के बाद गांव परम्परा में विदाई के समय एक बकरी साथ में भेजा जाता है। विदाई में एक बकरी भेजने के पीछे का सोच है कि जब बेटी पहली बार माँ बनेगी तो उसे अपने बच्चे को दूध पिलाने में तकलीफ न हो और जब उसका बच्चा बड़ा होने लगे तो उसे कभी भूखा सोना न पड़े। साथ ही समाज एवं परिवार का आशीर्वाद भी साथ भेजते हैं कि बेटी का घर हमेशा किलकारियों से भरपूर हो। 
परम्परागत उराँव सताज में शादी नेग में लड़का तथा लड़की के घर से हल्दी, तेल, अरवा चावल, नगड़ा मिट्टी, दुबला घाँस को एक साथ लड़की के धर पर मिलाकर बाँटा जाता है और फिर उसे अपटन तैयार कर नहलवाया जाता है। चूँकि वर एवं वधु के उपर एक दूसरे के गांव का मिट्टी लगा हुआ होता है, अतएव शादी के बाद लड़की के गांव में लड़का, गांव का दामाद तथा लड़का के गांव में लड़की, गांव की बहु-बेटी बन जाती है और अंतिम संस्कार के समय, दो गज जमीन के लिए दोनों गांव में हकदार माना जाता है।      
बदले हुए परिवेष में लड़कियाँ उच्च शिक्षा तक पहूँच रही हैं। मैं स्वयं एक मजदूर किसान की बेटी आज गृह विज्ञान में पी.एच.डी. हूँ और शिक्षिका हूँ। यह तभी संभव हुआ और जब मेरे माता-पिता एवं भैया-भाभी का साथ तथा डांट मिला। वर्तमान समय में वैसी लड़कियाँ अपने पिता की संपत्ति पर अधिकार मांगती हैं जो अपने समाज के रिस्ते से बंधना नहीं चाहती हैं और समाज की मनाही के बाद भी गैर-जातीय विवाह कर रही होती हैं, जिनमें कहीं न कहीं सामाजिक रूप से असुरक्षा का भाव जगता हैं, जो एक बड़ा कारण बन रहा है। 
इस तरह आदिवासियों को अपना खेत-जमीन, समाज और आदिवासी पहचान भाषा संस्कृति बचाना है तो उन्हें अपने पुस्तैनी धरोहर को संरक्षित था सुरक्षित रखना पड़ेगा अन्यथा सामाजिक धरोहर एवं पहचान नहीं बचेगा। पारमरिक आदिवासी समाज को अपने रूढ़ी परम्परा को मानना चाहिए और पारम्परिक आदिवासी विश्‍वास धर्म आस्था को एक संवैधानिक नाम न मिलने तक अपने पारम्परिक आदिवासी अस्था विष्वास एवं पुरखौती धरोहर को बचाकर रखना होगा। जल, जंगल, जमीन और आदिवासी अस्मिता का आधार हमारी रूढ़ी परम्परा पर है। क्या, वर्तमान एवं आधुनिक नवजवान पीढ़ी इन बातों पर गौर करेगी ?

बैजन्‍ती उरांव
आलेख - डॉ॰ (श्रीमती) बैजयन्ती उराँव
सहायक शिक्षिका, बुनियादी उत्क्रमित उच्च 
विद्यालय, सेन्हा, लोहरदगा।  
 

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