संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित 1994 से आदिवासी अस्तित्व, पहचान, हिस्सेदारी आदि को समझने, सहयोग करने और संवर्धन करने हेतु दुनिया भर में विभिन्न देश और आदिवासी 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाते हैं। संयुक्त राष्ट्र ने 13 सितंबर 2007 को विश्व आदिवासी अधिकार घोषणा- पत्र भी जारी किया है। संयुक्त राष्ट्र ने 2022 से 2032 के दशक को आदिवासी भाषाओं के संरक्षण का दशक घोषित किया है।आज दुनिया भर में लगभग 7000 भाषाएं हैं जिसके लगभग 40% भाषाएं विलुप्ति की कगार पर खड़े हैं, और उसमें सर्वाधिक आदिवासी भाषाएं डेंजर जोन में हैं।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित विश्व आदिवासी दिवस का पालन कम से कम देश, दुनिया के शासकों, प्रशासकों, बुद्धिजीवियों, नागरिकों को लगातार उजड़ते हुए आदिवासियों के प्रति थोड़ा याद दिलाने का काम जरूर करता है। आज दुनिया प्रकृति और पर्यावरण की खतरों से जूझने को मजबूर है। मगर आदिवासी जनजीवन को बचाने की जगह दुनिया विकास के नाम पर आदिवासियों के विनाश के लिए कटिबद्ध प्रतीत होता है। चूँकि आदिवासी जनजीवन प्रकृति और पर्यावरण के साथ चिपका हुआ है। जहां से तथाकथित विकास का दरवाजा खुलता है। अंततः विकास के नाम पर कुछ धनाढ्य देश, बड़ी कंपनियां और धनी लोग जल, जंगल,जमीन, खनिज की लूट- खसोट में अधिकांश आदिवासी का विस्थापन पलायन करते हैं। अब तक पुनर्वास की कोई गरिमापूर्ण मानवीय नीति का निर्माण कहीं नहीं हुआ है। सोना, चांदी, लोहा, कोयला, यूरेनियम आदि पर बसे आदिवासी को अचानक विकास के नाम पर कीड़े मकोड़े की तरह फेंक दिया जाता है। मगर इसका खामियाजा अब आदिवासियों के साथ-साथ संपूर्ण मानव जाति को प्राकृतिक आपदाओं के रूप में भुगतना पड़ रहा है।
2021 के विश्व आदिवासी दिवस का थीम था - आदिवासी दुनिया में अलग थलग पिछड़ न जाएँ। अतः बाकी समाज के साथ विकास की परियोजनाओं के निर्माण और संचालन में आदिवासी के साथ एक कांट्रेक्ट या साझेदारी जरूरी है। जो दिखता नहीं है। मानव समुदाय की सुरक्षा और संवर्धन के लिए आज प्रकृति और पर्यावरण को बचाना जरूरी हो गया है। परंतु विभिन्न देशों,राज्यों और क्षेत्रों में नियम- कानून और मानवाधिकार की ऊंची मानदंडों के बावजूद लोभ- लालच और तथाकथित विकास के नाम पर निर्दयता से आदिवासी जनजीवन का जेनोसाइड या कत्ल जारी है। कत्ल केवल जल, जंगल,जमीन, खनिज का नहीं बल्कि आदिवासी सोच- संस्कार, भाषा- संस्कृति, प्रकृति पूजा- सरना धर्म, संतोषी और खुशी वाली जीवन पद्धति और ईमानदारी और परिश्रमी आदि जीवन मूल्यों का भी विनाश किया जा रहा है।
भारत देश आजाद हो चुका है, संविधान भी लागू है। परंतु अधिकांश आदिवासी गांव- समाज में जनतंत्र, संविधान कानून, मानव अधिकार आदि लागू नहीं है। जबकि इसको लागू करने का विशेष दायित्व केंद्र और राज्य सरकारों की है। परंतु लगता है पुलिस- प्रशासन के अधिकांश उच्च पदाधिकारी (आईएएस / आईपीएस आदि) आदिवासी स्वशासन (सेल्फ रूल) व्यवस्था के नाम पर चालू स्वशासन व्यवस्था में संविधान कानून, मानवाधिकार आदि के घोर उल्लंघन के मामलों से अनभिज्ञ हैं।
यह दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति झारखंड,बंगाल, बिहार उड़ीसा, असम आदि प्रांतों में अलार्मिंग है। खासकर संताल- आदिवासी गांव समाज में। जहां माझी- परगना व्यवस्था के नाम से प्राचीन, परंपरागत- वंशानुगत स्वशासन व्यवस्था चालू है। जो अब स्वशासन की जगह स्वशोषण का रूप ले चुका है। जहां डंडोम (जुर्माना), बारोन (सामाजिक बहिष्कार), डान पनते (डायन प्रताड़ना- हत्या), नशापान, अंधविश्वास, ईर्ष्या- द्वेष, वोट की खरीद बिक्री, आदिवासी महिला विरोधी मानसिकता, वंशानुगत स्वशासन प्रमुखों की नियुक्ति आदि चालू है। जो अंततः आदिवासी गांव- समाज में अन्याय, अत्याचार, शोषण को खत्म करने की जगह बढ़ाने का काम कर रहा है। और पुलिस- प्रशासन आदिवासी समाज का आंतरिक मामला बोल कर अपने दायित्वों से पल्ला झाड़ लेता है।
अतएव प्रकृति और पर्यावरण को बचाने के वैश्विक तरीकों के साथ ईमानदारी से आदिवासी जनजीवन को बचाने के तरीकों पर भी काम करना कम जरूरी नहीं है। चूँकि अब तक जाने- अनजाने आदिवासी प्रकृति को ही अपना पालनहार और ईश्वर मानते हैं और अपने ईश्वर की कद्र करते हैं। झारखंड और बृहद झारखंड क्षेत्र का आदिवासी जनजीवन भी प्रकृति के इर्द गिर्द खड़ा है। प्रकृति की रक्षा अपनी रक्षा है, मानवता की रक्षा है। परंतु आज प्रकृति के विध्वंस के लिए खुद ताकतवर सरकारी संस्थाएं और पूंजीपति आदि खड़े हैं। जिनके तथाकथित विकास के फंदे आदिवासियों के लिए फांसी का फंदा साबित हो रहे हैं। अतएव आदिवासी समाज को खुद की रक्षा और प्रकृति पर्यावरण की रक्षार्थ आदिवासी एकता की नई सोच और संरचना का निर्माण करना जरूरी है। आदिवासियों के बीच युगों से चालू आदिवासी स्वशासन व्यवस्था या ट्राईबल सेल्फ रूल सिस्टम में सुधार करना अनिवार्य है।
चलो 2022 के 9 अगस्त को नई चिंतन और ठोस जीवन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक आदिवासी गांव- समाज में सुधार और एकता की नई संरचना का निर्माण करें और अपने एजेंडा के रूप में हासा-भाषा,जाति,धर्म, इज्जत,आबादी, रोजगार, चास- वास, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि को बचाने का संकल्प लेकर विश्व आदिवासी दिवस को सार्थक बनाएं। प्रथा, परंपरा और रूढ़ि आदि के नाम पर जारी अनपढ़- पियक्कड़ों का शासन- शोषण और कतिपय कुप्रथा या कुरीतियों को जीवित रखना आत्महत्या के समान है। अतएव प्रत्येक आदिवासी गांव- समाज के पारंपरिक वंशवाद पर आधारित आदिवासी स्वशासन व्यवस्था में गुणात्मक जनतांत्रिक सुधार और संविधान, कानून और मानव अधिकारों के समावेश से आदिवासियों का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समृद्धि का रास्ता जरूर प्रशस्त हो सकता है। वर्ना विश्व आदिवासी दिवस में केवल नाचने-गाने, खेलने, जमघट बनाकर खुशियां मनाने से अपने जल, जंगल, जमीन, खनिज और जीवन को हमें खोना पड़ सकता है। बचना है तो सभी आदिवासी गांव-समाज में सुधार, एकता और एजेंडा जरूरी है।
- सालखन मुर्मू, पूर्व सांसद,
राष्ट्रीय अध्यक्ष, आदिवासी सेंगेल अभियान,
जमशेदपुर16.7.2022.