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आदिवासी मौसम पुर्वानुमान पर जैव प्रौद्योगिकी विज्ञान आधारित शोध की आवश्‍यकता पर विचार हो

वातावरण हर समय बदल रहा हैं। वैश्विक मौसम पैटर्न को देखकर मौसम विज्ञानी ध्रुवीय परिक्रमा करने वाले उपग्रह की मदद से भविष्य की सात दिनों का 80 प्रतिशत तक सटीक मौसम पूर्वानुमान करते हैं। पर दस दिन या उससे अधिक समय का पूर्वानुमान केवल आधे समय के लिए ही सही होता है।

किन्‍तु मौसम की स्थिति के अनुसार पौधे काफी संवेदनशील होते है और प्रतिक्रिया करते है जिसे अवलोकन कर आसानी से समझा जा सकता हैं। इन परिवर्तनों के अभ्यास से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। उदाहरण के लिए जंगली स्ट्राबेरी, फुकिया, घास की कुछ प्रजातियां को बर्षा का पूर्वाभास कुछ घंटे पहले हो जाता है और उनकी पत्तियों पर तरल बूंदें देखी जा सकती है। यह तरल खनिज लवण और अन्य कार्बनिक पदार्थो का जलीय घोल है जो रंध्रों के माध्यम से अतिरिक्त होने पर निकलता है, इसे गटेशन (Guttation) कहते है। वहीं घास की सूखी सतह आसमान सा फरहने का संकेत देती हैं। मेपल और विलो के पेड़ों के पत्ते वर्षा के दो दिन पूर्व से ही भींगने लगते हैं।

इसी तरह वर्षा होने के पहले कुछ पौधे अपने फूलों को बंद कर देते है जैसे डेज़ी, सफेद लिली, गुल बहार और मार्निंग ग्लोरी। जबकि कुछ फूल वर्षा होने पर देर से खिलते हैं, उदाहरण है अफ्रीकी गेंदा।
गेंदा, मैलो, होने वाली बारिश से पहले अपनी पंखुड़ियों को घुमा रहे होते हैं। पाइनस के कोन का सिकुड़ना हवा में नमी की मौजूदगी और फैलना शुष्क वायुमंडलीय स्थिति को दर्शाता है। कुछ पौधे की पत्तियां, होने वाली बारिश से पहले मुड़ जाती हैं और यह घटना आक्सालिस या सुनसुनिया में देखा जा सकता है। इस तरह से पौधे हवा की नमी और दबाव पर विभिन्न प्रकार से प्रतिक्रिया करते हुए मौसम पुर्वानुमान करते हैं।

झारखंड राज्य के गुमला जिले में ग्राम सैन्दा, थाना सिसई में दिनांक 21.06.2022 को श्री गजेन्‍द्र उरांव, 65 वर्ष एवं श्री बुधराम उरांव, 66 वर्ष द्वारा मौसम संबंधी भविष्यवाणी की गई। जिसका प्रथम चरण अनुमान औसत से कम वर्षा सही साबित हुई। इस वर्ष जून-जुलाई महीने मे सामान्य से 45 फीसदी कम वर्षा हो रही है जिसके कारण बिछडे़ खराब हो गए। (प्रभात खबर, दिनांक- 10.07.2022 दिन रविवार)। ग्रामीण मौसम पुर्वानुमान कर्ताओं ने वर्ष 2021 में रथयात्रा (आसाढ़ द्वितीया) से करमा (भादो एकादशी) के बीच अच्‍छी वर्षा होने का पूर्वानुमान किया था जो सही साबित हुआ। इस विषय पर कुड़ुख़ टाइम्‍स डाटकॉम वेबसाइट पर खबरें प्रकाशित हैं। इस तरह का विगत 10 वर्षों से किया जा रहा है जो सही साबित हुआ है।

आदिवासी अपने पूर्वजों के ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर पारंपरिक तरीक़े से मौसम पूर्वानुमान करते हैं जो' पच्चो करम' से लेकर 'सोहराई' तक यानि जून से अक्टूबर महीना तक लगभग पाँच महीनों का अंतराल है जो तीन चरणों में किया जाता है। यह एक प्राकृतिक पैटर्न आधारित अवलोकन माना जा सकता है। धान में लगे कीड़े का नाम सीटोफिलस ओरिजी (Sitophilus orygi) है। नव रचित लार्वा के पूर्ण विकसित होने तक वे दाने के हिस्से को अपना आहार बनाते है जो छेद के रूप में दिखते हैं। वायुमंडलीय स्थितियों के अनुसार पैटर्न बनता है जिसके प्रत्यक्ष अवलोकन पर परिणाम निकाला जाता है जो गत दस वर्षों से सटीक पाया जा रहा है। यदि दाने पर तीन छेद एक कतार में दिखाई दे तो यह बेहतरीन वर्षा का सूचक है। और यदि दानों पर विभिन्न अनियमित छेद दिखने पर कमजोर मानसून की ओर संकेत करते हैं।

इस खोज के परिणाम को साझा करने के लिए व्यवस्थित रूप से अनुसंधान और साक्ष्य एकत्र करना आवश्यकता होगी। इनका उपयोग करते हुए प्रयोगशाला में सूक्ष्म स्तर पर परीक्षण कर तथ्यों को गहराई और विस्तार से विश्लेषण पेश करेगा। जिससे पारंपरिक तरीकों से अध्ययन वैज्ञानिक रूप से मान्य होगा।

हमारे पूर्वजो ने प्रकृति के प्रति समझ और ज्ञान को साक्ष्य बनाते हुए गीतों के रूप में नतीजों को घोषित किया। प्रतिवर्ष मौसम मे आए उतार-चढ़ाव से लोगों को गीतों के माध्यम से सांकेतिक सहायता मिलती रही है।

यूरोप के एथनोबोटनी विशेषज्ञो ने मुख्यतः ग्रामीणों के पारंपरिक परामर्श के आधार पर विशाल आंकड़ा संग्रहित किया। अध्ययन में पाया गया कि 30 पौधों की प्रजातियाँ मौसम और जलवायु के पुर्वानुमान के लिए उपयोग की जा सकती है। इनमें फलदार पेड़, जहरीले पौधे, खेती किया हुआ पौधा, चारा पौधे, सजावटी पौधे, घास और खाए जाने वाले पौधे शामिल हैं। अन्य में कवक की तीन प्रजातियां भी पूर्वाभास के लिए पाई गई। (नेडेलशेवाएनेली & डोगनयुनूस, 2011; इंडियन जर्नल आफ ट्रेडिशनल नालेज वाल्यूम 10:91-95)

अतः खोज कई वर्षो के अनुभवों का निष्कर्ष हैं। पारंपरिक वर्षा पूर्वानुमान से हमें अवसर मिलता है कि मानसून की तीव्रता अनुसार खरीफ फसलों की अनुकूल व सहनशील किस्मों का चयन करें। किसान अपनी फसलों की पैदावार, लागत और आय पर बुरा प्रभाव (यदि सूखा पड़े) कम कर सकते हैं। (अमेरिकन जर्नल आफ  प्लांट सांइस, 2013; 4,1701-1708) फसलें तैयार होने पर इकठ्ठा करने तक के समय को लेकर सजग रह सकते है।

आलेख -

Sakshi Toppo
सुश्री नीतू साक्षी टोप्‍पो
एम.एस.सी.(बायोटेक्‍नोलोजी)
डिबीडीह, रांची।

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