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आदिवासी शोध व सामाजिक सशक्तिकरण अभि यान

आदिवासी शोध एवं सामाजिक सशक्तिकरण अभियान के तहत "उराँव समाज में पारंपरिक विवाह (बेंज्जा) एवं विवाह विच्छेद (बेंज्जा बिहोड़) और न्यायालय व्यवस्था में वर्तमान चुनौतियाँ" विषयक परिचर्चा का आयोजन किया गया। व्याख्यान एवं परिचर्चा श्रृंखला : 01/2023 दिनांक 02.04.2023 है़। इस व्याख्यान एवं परिचर्चा श्रृंखला के प्रेक्षक पड़हा न्याय पंच के रूप में उपस्थित थे। 
श्रृंखला : 01/2023  दिनांक 02.04.2023 के पड़हा न्याय पंच के रूप में निम्‍नलिखित सदस्‍य उपस्थित थे  :-    
डा॰ करमा उराँव (वरिष्ठ मानवशास्त्री एवं समाज सेवी, राँची), श्री महादेव टोप्पो ( माननीय सदस्य, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली), डा॰ नारायण भगत (अध्यक्ष, कुँड़ुख साहित्य अकादमी, राँची), श्रीमती महामनी कुमारी उराँव, (सहायक प्राध्यापक, मारवाड़ी कालेज राँची),  श्री सरन उराँव (संरक्षक, चाला अखड़ा खोंड़हा, हेहेल, राँची), श्री जिता उराँव (अध्यक्ष, अद्दी अखड़ा, राँची) की उपस्थिति में परिचर्चा संपन्न हुआ। परिचर्चा में विशेष रूप से सुधीजनों की उपस्थिति रही।   
प्रो॰ रामचन्द्र उराँव (Ram C Oraon) ने व्याख्यान श्रृंखला में कई महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर प्रकाश डाला -
● उराँव आदिवासी समूह के कस्टमरी ला का कोई लिखित प्रमाण नहीं है। आज इसके लिखित प्रमाण की आवश्यकता है।
● आदिवासी अपने कस्टम से गवर्न जबतक होते हैं, वे आदिवासी हैं। उनके कस्टम, रीति रिवाज मायने रखते हैं। वर्तमान परिस्थिति और समस्याओं को देखते हुए उराँव आदिवासी कस्टमरी लाॅ का डोक्यूमेन्टेसन आवश्यक है। चूँकि उनके कानूनों का लिखित प्रमाण नहीं है। ऐसी स्थिति में भारतीय न्यायिक चुनौतियों से सामना करना मुश्किल है।
● महत्वपूर्ण बात है कि आदिवासी हिन्दू नहीं हैं। इस वजह से उनपर हिन्दू मैरेज एक्ट लागू नहीं हो सकता। विवाह के तरीके ही विवाह विच्छेद के तरीके को निर्धारित करेंगे। व्यक्ति जहाँ पर्याप्त रूप से हिन्दू रीति-रिवाज को मानेगा, इस स्थिति में उसपर हिन्दू मैरेज एक्ट लागू होगा। भारतीय संविधान में 'हिन्दू' को परिभाषित किया है – (क) जन्म से,  (ख) माँ या पिता किसी एक के हिन्दू होने से संतान का लालन-पोषण हिन्दू रीति-रिवाज से है, तो वह हिन्दू है,  (ग) धर्म से,  (घ) जो पारसी नहीं है, जैन नहीं हैं, ईसाई नहीं हैं, मुस्लिम नहीं है, वे हिन्दू हैं।
भारतीय संविधान में जिस तरह से हिन्दू को परिभाषित किया गया है, ऐसे में आदिवासी कस्टम ला को प्रमाणित नहीं कर पाने की स्थिति में, आदिवासी को 'हिन्दू' समझे जाने की भारी संभावना है। यह स्थिति भयावह है।
● कस्टमरी ला, पड़हा व्यवस्था के शिथिल होने के कारण आदिवासी भारतीय न्यायिक व्यवस्था की ओर उन्मुख हो रहे हैं। उनके फैसले लेने में न्यायिक व्यवस्था असक्षम है। इसलिए आदिवासी न्यायिक व्यवस्था के नियम-कानून का डोक्यूमेन्टेशन आवश्यक है।

*एडवोकेट चेतन नागेश  ने आदिवासी समूह की भावी समस्याओं की ओर ध्यनाकर्षण किया -
● उराँव आदिवासी के पास अपने परंपरागत रीति-रिवाज, नेग-चार के लिखित प्रमाण न होने के कारण कई सारी न्यायिक समस्या उत्पन्न हो रही है।
● परंपरा में लौटकर मौजूद नेग-चार को डिकोड करने की आवश्यकता है। उन्हें डोक्यूमेन्ट करने की आवश्यकता है।
श्री जिता उराँव ने अभिभाषण में कहा कि पड़हा व्यवस्था से उराँव आदिवासी समाज संचालित है। 'पड़हा' उराँव सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों का संचालन करती है। साथ ही सामाजिक,सांस्कृतिक, आर्थिक समस्याओं का निराकरण पड़हा व्यवस्था द्वारा होती है। पड़हा में गाँव बालिक सदस्य होते हैं। इसके हर एक सदस्य का विचार समान रूप से मायने रखता है। आज आदिवासी समस्या कोर्ट जा रहे,उन समस्याओं के निपटारे के लिए पड़हा जिम्मेदार है, किंतु पड़हा व्यवस्था के नियम कानून लिखित न होने के कारण ये अमान्य हो चुकें हैं। इस स्थिति में सारे नियम कानून को लिखित रूप दिया जाना आवश्यक है।
श्री सरन उराँव ने कहा कि एक सुदृढ़ व्यवस्था समाज के सुचारू संचालन के लिए आवश्यक है। सारी समस्याओं का निदान समाज की व्यवस्था करती है। सामाजिक व्यवस्थाओं में गड़बड़ी सांस्कृतिक दृष्टि से भी कई सारी समस्याओं का न्योता है। पड़हा और धुमकुड़िया को बनाए रखने की आवश्यकता है।
श्रीमती महामनी उराँव ने मुखर तरीके से कहा -
● " समाज में जनी (महिला) और जमीन के संरक्षण का दायित्व पुरूष वर्ग पर है किन्‍तु वर्तमान में पुरूष वर्ग अपनी जिम्‍मेदारी ठीक से निभा नहीं पा रहा है। औरतें दूसरे समाज में जा रहीं हैं और जमीन भी दूसरों के हाथ में जा रहा है। ऐसे में समाज और संस्‍क़ति को बचा पाना मुस्किल होगा।"
● "पारिवारिक सामुदायिकता और सहभागिता में एकजुटता की कमी दिखाई पड़ रही है, यही हमारे सांस्कृतिक क्षरण का कारण है।"
डा॰ नारायण भगत ने कहा -
● उराँव आदिवासी के पास पहले से सामाजिक व्यवस्था बनी बनायी हुई है- 1) पद्दा पंच और 2) पड़हा पंच। आदिवासी समूह के मध्य यह किसी भी न्यायिक व्यवस्था से सर्वोच्च स्थान रखता है। यही सुचारू सामाजिक व्यवस्था के लिए जिम्मेदार है। नवयुवकों से अपील है कि वे इसे दुरूस्त करने का प्रयास करें।
●भारत को बचाने के लिए संविधान निर्मित किया गया। अब आदिवासियों को बचाने के लिए पद्दा पंच और पड़हा पंच को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है।
श्री महादेव टोप्पो( Mahadev Toppo ) ने कहा -
● पुरखों ने प्रकृति के साहचर्य में नियम-कानून बनाए हैं। उनका जीवनदृष्टि और जीवनशैली विशिष्ट है। प्रकृति के अध्ययन से रीति-रिवाजों को परंपरा में जोड़ा है। यह सबसे अद्भुत है।
● प्रकृति के अनुशासन में रहकर ये पाँच महत्वपूर्ण व्यवस्था - 1) पड़हा  2) धुमकुड़िया 3)  अखड़ा 4) सेंदरा 5) जतरा आदि व्यवस्था बनाए गये हैं।
● 1850 के बाद आदिवासी समाजिक परिवर्तन कई तरह से हुए। आधुनिक शिक्षा ने अपनी परंपराओं के प्रति कहीं न कहीं हीनता का भाव पैदा किया है। आज के समय की माँग है, स्वभावगत तरीके से शामिल रीति-रिवाजों को संजोया जाए।
श्री विनोद भगत (लोहरदगा) के अभिभाषण में महत्वपूर्ण बात रखी। परंपरा बची है या नहीं?, पड़हा व्यवस्था स्वंय में एक न्यायिक व्यवस्था है और आदिवासी भारतीय न्यायालय की ओर अपनी समस्याओं के निपटारा के लिए भाग रहे, परन्तु वहाँ उनकी समस्या का निपटारा क्यों नहीं हो रहा? हमारी न्यायिक व्यवस्था में क्या कमी रह गयी है? क्या हम मूल रूप में आदिवासी हैं या नहीं? - यह प्रश्न है।
कार्यक्रम के अध्यक्ष डा॰ करमा उराँव ने समाज को सोझाने की बात कही। परंपरा में मौजूद व्यवस्था को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जाना चाहिए। आदिवासी समाज के कार्य पालिका, राज पालिका, न्याय पालिका व्यवस्था को सुदृढ़ किया जाना आवश्यक है। 
डा॰ प्रकाश चन्द्र उराँव ने कहा कि इस बैठक में सारी महत्वपूर्ण बातों को अब व्यवहार में लाने की आवश्यकता है। परिचर्चा का सुचारू संचालन डा॰ अभय सागर मिंज (Abhay Sagar Minz ) और डा॰ नारायण उराँव द्वारा किया गया।
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संकलन एवं रिपोर्टर – 
डा॰ पार्वती तिर्की  
दिन - 02/04/2023
स्थान - आदिवासी कालेज छात्रावास, करमटोली राँची

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