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परम्परागत आदिवासी समाज और डिलिस्टिंग विषयक राजनीति

श्री गजेन्द्र उरांव उर्फ नाना जी उम्र 70 वर्ष थाना सिसई जिला गुमला के रहनेवाले एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। स्कूली शिक्षा में बे 9वीं पास हैं। उनका कहना है कि बचपन में उनके माता पिता स्कूल न भेजकर, बैल-बकरी चराने के लिए भेजते थे। इस कार्य में उनका दिल नहीं लगता था। तब वे बड़े भाई के साथ बोकारो के कोयला खादान में काम करने चले गए। वहां कई साल रहे पर वहां भी खादान के काम में भी मन नहीं लगा। फिर वे वापस गांव चले आए। गांव आकर अपने से 5-6 वर्ष छोटे उम्र के साथियों के साथ गांव के यू0पी0 स्कूल,सैन्दा (सिसई,गुमला) में नामांकन कराये। वहां 5वीं तक पढ़ाई करने के बाद वे राजकीय मध्य विद्यालय,सिसई में दाखिला लिये और वहां से आगे बढ़कर संत तुलसी दास उच्च विद्यालय,सिसई में दाखिला लेकर 9वीं तक की पढ़ाई पूरी की। कई पारिवारिक कारणों से वे आगे की पढ़ाई नहीं कर पाये,परन्तु गांव में रहकर वे ग्रामीण शिक्षा जैसे विषयों में पारंगत बने। 
    श्री गजेन्द्र जी का सामाजिक विषयों पर बारीकी एवं पारखी नजर है। पम्परागत आदिवासियों के बीच का सामाजिक आन्दोलन हो या धार्मिक आन्दोलन, वे मुखर होकर बोलते हैं। श्री गजेन्द्र जी बतलाते हैं कि - परम्परागत आदिवासी समाज के लोग किस तरह ततकालीन बिहार का आकाल 1966-67 के दौर में भूख मिटाने के लिए ईसाई मिशनरी संगठनों की पैरोकारी की और झूण्ड के झूण्ड गिरजाघरों में शरणागत हुए। अकालग्रस्‍त  क्षेत्र में राज्य सरकार की सरकारी मशीनरी को  मदद करने के लिए आगे आये गिरजाघरों ने अवसर का भरपूर लाभ लिया और  समय की धारा में निरंतर बहता गया। इसी सामाजिक उतार-चढ़ाव में बाबा कार्तिक उरांव, लोहरदगा संसदीय क्षेंत्र से 1967 में सांसद चुने गये। कार्तिक बाबा पहली बार 1962 में चुनाव में असफल होने के बाद वे परम्परागत आदिवासी समाज की परम्परागत सामाजिक व्यवस्था,पड़हा का नवजागरण हेतु 1962 में आह्वान किये । क्षेत्रीय स्तर पर इस पड़हा नवजागरण का नेतृत्व श्री भिखराम भगत जी कर रहे थे। 
    वैसे इन दिनों आदिवासी बहुल क्षेत्रों में बाबा कार्तिक उराँव का नाम परम्परागत आदिवासी समाज तथा ईसाई आदिवासी समाज के बीच वाद-विवाद में अकसरहाँ आ ही जा रहा है। परम्परागत उरांव समाज के लोग बाबा कार्तिक उरांव को अपना मार्ग दर्शक मानते हैं, पर ईसाई उरांव लोग उनके नाम पर आग बबुला हो जाते हैं। इस विवाद का जड़ का दो मुख्य कारण माना गया है - 1. ईसाई आदिवासी लोगों द्वारा आरक्षण का दोहरा लाभ लिया जाना तथा  2. परम्परागत संस्कृति रीति-रिवाज के स्थान पर यूरोपीय सभ्यता-संस्कृति को अपनाकर, अपने से कमजोर आदिवासियों पर जबरन मन परिवर्तन कराना, कहा गया है।
    उपरोक्‍त विन्‍दुओं पर तथ्‍य है कि  जनजातीय आरक्षण का लाभ तो आजादी के बाद दोनों ही समूह के लोग ले रहे हैं। परन्तु अल्पसंख्यक कल्याण आरक्षण का लाभ, सिर्फ ईसाई आदिवासी समाज के लोगों को ही मिलता है। इस संदर्भ में कार्तिक बाबा ने अपनी पुस्तिका ‘‘बीस वर्ष की काली रात’’ में कहा हैं कि - कल्याण के कार्य में यदि - 5.53 प्रतिशत ईसाई को प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 192 रू0 खर्च होते हैं, तो 95.47 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति को प्रति व्यक्ति 74 पैसे खर्च होते हैं अथवा यों कहिए कि अनुसूचित जन जाति के कल्याण पर अगर 01 रूपया खर्च होता है तो एक ईसाई आदिवासी के कल्याण पर 255 रूपये खर्च हो रहे हैं। 
    इसी तरह भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थान खोलने तथा संचालन करने का विशेष कानूनी प्रावधान है। जबकि भारतीय संविधान में अनुसूचित जनजातियों को यह लाभ अथवा व्यवस्था नहीं दिया गया है। इस कानून का लाभ ईसाई आदिवासियों द्वारा मुख्‍य रूप से अपने समूह के लोगों के लिए किया जाता है और वे राष्ट्र की मुख्य धारा में जुड़ते गये हैं । भारत जैसे देश में अल्‍पसंख्‍यक ईसाई लोगों को अल्पसंख्यक स्कूल-कालेज तथा संस्थान खेलने का अधिकार प्रदान किया गया है जिन्‍हें अपने तरीके से संचालन करने की छूट है, जिसपर केन्द्र सरकार या राज्य सरकार का सीधा प्रशासनिक हस्तक्ष्रेप नहीं है। पता नहीं, देश की जनता एवं देश की  सरकार किस तरह के लोगों को दोहरा लाभ देती है, वहीं पर कई लोगों को कुछ भी नहींा जनजातीय कल्याण के इस मामले देश की जनता और देश की सरकार को मंथन करने की आवश्‍यकता है। अब समय ही बतलाएगा कि सरकार का इसओर  ध्यान भी है या नहीं ?
    इन तमाम तथ्यों एवं परिस्थितियों पर चिंतन-मंथन कर तथा समाज की दुर्दशा के कारणों को ढूंढ़ते हुए बाबा कार्तिक उराँव द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजाति संशोधन विधेयक 1967, दिनांक 10 जुलाई 1967 को लोकसभा में प्रविष्ट कराया गया। इसपर विचार-विमर्श के बाद लोकसभा की संयुक्त समिति को सौंपा गया। इस संदर्भ में 17 नवम्बर 1969 को लोकसभा की संयुक्त समिति का सिफारिश शामिल किया गया। इस रिर्पोट के अनुसूची 2 कंडिका (2अ) में यह भी था कि  - ‘‘2अ० कंडिका 2 में निहित किसी बात के होते हुए कोई भी व्यक्ति जिसने जनजाति आदि मत तथा विश्वासों का परित्याग कर दिया हो और ईसाई, इस्लाम आदि धर्म ग्रहण कर लिया हो, वह अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं समझा जाएगा।’’  
    संसद सदस्‍य बनने के बाद समाज की दुर्दशा के कारणों को ढूंढ़ते हुए बाबा कार्तिक उराँव द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजाति संशोधन विधेयक 1967, दिनांक 10 जुलाई 1967 को लोकसभा में प्रविष्ट कराया गया। इसपर विचार-विमर्श के बाद इस विधेयक को लोकसभा की संयुक्त समिति को सौंपा गया। इस संदर्भ में 17 नवम्बर 1969 को लोकसभा की संयुक्त समिति का सिफारिश शामिल किया गया। इस रिर्पोट के अनुसूची 2 कंडिका (2अ) में यह भी था कि  - ‘‘2अ० कंडिका 2 में निहित किसी बात के होते हुए कोई भी व्यक्ति जिसने जनजाति आदि मत तथा विश्वासों का परित्याग कर दिया हो और ईसाई, इस्लाम आदि धर्म ग्रहण कर लिया हो, वह अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं समझा जाएगा।’’  
    लोकसभा की संयुक्त समिति द्वारा सर्वसम्मति से पारित कर सिफारिश भेजा गया था। इसपर लोक सभा में 01 वर्ष तक बहस नहीं हुई। इस सिफारिश पर भारत के कोने-कोने से देश की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी पर ईसाई मिशनरियों का दबाव आने लगा। इस क्रम में 50 सांसदों के हस्ताक्षर से ईसाई सांसदों ने सरकार पर दबाव बनाया कि वे संयुक्त समिति की सिफारिश का विरोध करें।
    दूसरी ओर बाबा कार्तिक उरांव द्वारा 348 संसद सदस्य (322 लोकसभा तथा 26 राज्यसभा सदस्य) के हस्ताक्षर के साथ, दिनांक 10 नवम्बर 1970 को संयुक्त समिति की सिफारिश को लागू करने हेतु सरकार के सामने सहमति पत्र रखा गया। इस विधेयक पर दिनांक 16 नवम्बर 1970 से लोकसभा में बहस आरंभ हुआ। इसी बीच दिनांक 17 नवम्बर 1970 को सरकार की ओर से विधेयक में संशोधन करते हुए संयुक्त समिति की सिफारिश को विधेयक से हटा दिया गया। उस समय की सरकार में दो ईसाई उपमंत्री थे, जिन्होंने संशोधन विधेयक का स्वागत किया तथा संयुक्त समिति की सिफारिश का विरोध किया। इस विधेयक पर कार्तिक बाबा दिनांक 24 नवम्बर 1970 को 55 मिनट तक बहस किये। विधेयक पर बहस करते हुए अपने वक्‍तब्‍य के अंत में उन्होंने कहा - ‘‘या तो संयुक्त समिति की सिफारिश को हटाया जाए या कार्तिक उरांव को इस दुनिया से हटा दिया जाए।’’ लोकसभा में सदन की गंभीरता को देखते हुए विधेयक पर उसी सत्र में बहस कराने के आश्वासन पर विधेयक पर बहस को  स्थगित किया गया। परन्तु दिनांक 27 दिसम्बर 1970 को लोकसभा भंग हो गई और आदिवासी समाज के जीवन में ज्योति नहीं आयी।
    इन परिस्थितियों में अब प्रश्‍न उठता है कि - अबतक डिलिस्टिंग जैसे  विषय चर्चा वैसे लोगों के साथ आती है जो आदिवासी से ईसाई बने हों। पर यदि धर्म ही आधार है तो आदिवासी से मुस्लिम बने लोगों पर चर्चा क्यों नहीं होती है ? इन विषयों पर तथ्य है कि भारत देश के कई हिस्सों में आदिवासी से मुस्लिम बने लोग आज भी अनुसूचित जनजाति आरक्षण का लाभ ले रहे हैं। ऐसे में देश के बड़े राजनैतिक दल, क्या, आदिवासियों के साथ न्याय कर पाएंगे या राजनैतिक दल आदिवासियों को वोट बैंक का स्रोत मात्र मानते रहेंगे ?? दूसरी ओर भारतीय संविधान में धार्मिक अल्‍पसंख्‍यक और भाषायी अल्‍पसंख्‍यक की बातें कही गईं हैं, वैसे सें भाषायी अल्‍पसंख्‍यक की बात क्‍यों नहीं उठायी जाती है ?? झारखण्‍ड जैसे आदिवासी बहुल राज्‍य में, जहां नये राज्‍य का गठन का आधार ही भाषा और संस्‍कृति का संरक्षण रहा है, के बाद भी आतक एक भी आदिवासी भाषा को भाषायी अल्‍पसंख्‍यक का दर्जा नहीं मिला है। जबकि बंगला और उड़‍िया  भाषा को झारखण्‍ड में भाषायी अल्‍पसंख्‍यक का दर्जा प्राप्‍त है। क्‍या, देश की जनता और सरकार ध्‍यान इस गंभीर मुदृदे की ओर जा पाएगा या फिर आदिवासी समाज वोट बैंक की राजनीति में उलझकर रह जाएगा ??

संदर्भ :-
1. बीस वर्ष की काली रात - लेखक : स्व० कार्तिक उरांव।
2. शराब आदिवासियों का कटृटर दुश्‍मन, लेखक : स्व० नोअस केरकेटृटा 
आलेख एवं संकलन -
सुश्री नीतु साक्षी टोप्पो, डिबीडीह, रांची एवं 
श्री गजेन्द्र उरांव, सिसई, गुमला।

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