दिनांक 8 और 9 अक्टूबर को लगने वाला मुड़मा जतरा आज मेला में तब्दील हो गया है,1984 ई में जब मैं मुड़मा जतरा गया था तब पूरे मैदान में जतरा के घोल नजर आ रहे थे। नागपुरी कलाकारों की मंच और उरांवों की खोड़हा कम से कम 30-35 रहा होगा, गगन भेदी मधुर मांदर नगाड़े की ध्वनि के साथ रात गुलजार हो गया था । दुकानदार थे परन्तु किनारे और छोटे छोटे हस्तकला के समान विशेष थे । खेलने और नाचने के लिए प्रयाप्त जगह था, झूले देहाती यानी छोटे और बड़े जतरा के शोभा बढ़ा रहे थे । ईख से मानो जंगल का क्षेत्र लग रहा था । गांव के गांव बच्चे बूढ़े जवान जतरा में घोल के घोल चढ़े थे । झूले और तरह तरह के मिठाई की दुकानों से मेला का रौनक बढ़ रहा था आदिवासी अपनी संस्कृति, नाच गान पर मग्न थे । गांव में मेहमानों की झड़ी थी । संस्कृति संस्कार से भरा पूरा झारखंड के आदिवासी निश्छल और मान सम्मान से जतरा मना रहे थे । हर घर में मेहमान पहुंचे थे और गीत संगीत रात भर गूंज रहा था । नागपुरी कलाकार अपने गीतों से गैर आदिवासियों को जतरा का आनंद दे रहे थे । मुड़मा चौक में छोटे मोटे पाच छः दुकाने थी पांच छः खपरैल के मकान थी लोग मेन रोड से भी जतरा देखकर, आनंद ले सकते थे। इतना खाली जगह था।
झारखंड राज्य अलग होने के पहले तक इसका अस्तित्व जतरा के रूप में था । परन्तु आज जतरा का मूल अस्तित्व समाप्त हो गया है ।
झारखंड अलग राज्य के बाद मुड़मा जतरा
झारखंड अलग राज्य होने के बाद इस जतरा की राजनीतिकरण होने लगी भीड़ और जतरा बड़ी होने से इस पर व्यवसायिक वर्ग का नजर जाने लगा और धीरे-धीरे जतरा में अपना पांव फैलाने लगे । जतरा स्थल सिकुड़ता गया और दुकानदारों की संख्या बढ़ती गयी । नेताओं ने इसका फायदा उठाया । जतरा में एक प्रतीक चिन्ह बनाकर आदिवासियों की खोड़हा को खेलने से वंचित कर दिया गया, आज जतरा में रात भर बिताने वाले खोड़हा अब जतरा खूंटा का चक्कर लगा कर वापस होने लगे । खूंटे पर सारी आस्था को समेट दिया गया और खोड़हा लगने वाले जगह में दुकान लगवाने लगे । अब आदिवासी संस्कृति की आस्था मात्र चक्कर लगाने का रह गया है ।
ठीकेदारी से जतरा का नाम मेला मे परिवर्तित हो गया
झारखंड अलग राज्य होने के बाद 22 वर्षों तक जतरा, अस्तित्व में रहा । 2023 से यह मेला का रूप धारण कर लिया । जब जतरा की विधि विधान खूंटा में सिमट गई तब व्यवसायिक वर्ग जतरा में अपना आधिपत्य जमाने लगे और पूरे जतरा डांड़ में दुकान भरने लगा । आदिवासी चाहकर भी अपना नाच गान नहीं कर सकते थे क्योंकि उनके लिए जगह ही नहीं बचा ।
सरकार ने आदिवासियों को नाच गान करने के लिए जगह की व्यवस्था नहीं करके जतरा को ठेके में डाल दिया । ठेका पर होने से आदिवासी एकदम पंगु हो गए । ठीकेदार पैसा वसूलने के लिए आदिवासियों के नृत्य का बचा खूचा जगह दुकानदारों को देने लगे । धर्म अगुआ और आदिवासी नेताओं ने जतरा पर ऐसी क्रियाओं के लिए तनिक भी आवाज नहीं उठाया । नतीजा ये हुआ कि आज यह जतरा नहीं मेला बन गया है । आदिवासी जो भी श्रद्धा के रूप में आते हैं सिरमटोली के सरना स्थल की परिक्रमा करने जैसा, जतरा खूटे का परिक्रमा कर वापस लौट जाते हैं । अब न नाचने की स्वतंत्रता रह गई है और न आदिवासी अस्तित्व में जतरा का महत्व ।
आदिवासियों के जतरा से गैर आदिवासी को लाभ
आज आदिवासी जहां भी जतरा लगाते हैं गैर आदिवासी अपना दुकान सजाते हैं । आदिवासी समुदाय जतरा जाने और समानों को खरीदने का काम करते हैं ।जतरा आदिवासियों द्वारा लगाई जाती है और फायदा दुकानदारों को होता है । मुड़मा जतरा जो मेला बन गया है वहां पर दूसरे समुदाय को जो दुकान लगाते हैं फायदा होता है । इसी तरह जहां कहीं भी जतरा लगा रहे हैं वहां दुकानदार जगह को संकुचित करते जा रहे हैं। जतरा स्थल लूटा जा रहा है। जतरा, नाच गान का स्थल होता है जहां कुछ बहुत खाने के दुकान लगती थी,आज उस जतरा में कपड़ा से लेकर राशन पानी, हार्डवेयर यानी तरह तरह की दुकाने लगने लगी है । जिसे आदिवासी खोड़हा में नाच रहे युवा युवतियों को बाधा पहुंच रहा है । आदिवासी युवा पीढ़ी अपने संस्कृति बचाने में विफल रहे हैं । क्योंकि उनके खोड़हा के सामने चारों ओर से गैर आदिवासीयों की दुकान लगी रहती है । जो स्वतंत्र रूप से आदिवासियों को खुशियां मनाने में बाधा पहुंचाती है ।
जतरा का अस्तित्व खतरे में
आज मुड़मा जतरा हो या अन्य,अस्तित्व खतरे में पड़ता नजर आ रहा है । आदिवासियों को जिस तरह संकुचित होने को मजबूर किया जा रहा है इसे साफ जाहिर होता है कि भविष्य में आदिवासी की जतरा का अस्तित्व मिट जाएगा । सभी जतरा स्थल को व्यवसायिक वर्ग बाजार में तब्दील कर देंगे । और बाद में जतरा शब्द भी मिट जाएगा । इसे मिटाने में आदिवासी खुद जिम्मेदार होंगे । क्योंकि आदिवासी अपने अगुआ और नेता पर आश्रित होते हैं । नेता जिधर कहें जाने को तैयार रहते हैं । और जब तक समझ पाते हैं तब तक बहुत देर हो जाया रहता है । अब अगर जतरा भी लगेगा तो आदिवासियों का अस्तित्व नहीं दिखेगा ।
मेरा झारखंड सरकार से निवेदन होगी कि इन चीजों को गौर करते हुए जतरा जैसे आदिवासियों की संस्कृति के पावन स्थल को मुक्त करा कर आदिवासी संस्कृति की रक्षा की जाए, ताकि आदिवासी संस्कृति झारखंड में बचा रह सके और जतरा के महत्व का मूल अस्तित्व का पता चल सके ।
डा बुटन महली
झारखंड आंदोलनकारी
सह-असिस्टेंट प्रोफेसर
08/10/2025
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