तोलोङ सिकि को कुँड़ुख़ भाषा की लिपि के रूप में झारखण्ड तथा पश्चिम बंगाल में मान्यता है। झारखण्ड सरकार द्वारा 06 जून 2003 को मातृभाषा शिक्षा का माध्यम (medium of instruction of mother tongue) घोषित किया गया है तथा 18 सितम्बर 2003 को कुँड़ुख़ भाषा की लिपि के रूप में तोलोङ सिकि (लिपि) को स्वीकार किया गया है। साथ ही पश्चिम बंगाल सरकार में राजकीय गजट के माण्यम से कुँड़ुख़ भाषा को 01 जून 2018 से 8वीं राजकीय भाषा का दर्जा प्राप्त है। इस तरह कुँड़ुख़ भाषा एवं तोलोङ सिकि (लिपि) को झारखण्ड सरकार तथा पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा मान्यता प्रदत है।
झारखण्डै सरकार के उक्त निर्णय तक पंहूचने में कई शिक्षाविदों एवं समाज सेवियों के विचार एवं आशीर्वाद लिपि विकास में मार्गदर्शन बना। उनमें से प्रस्तुत है निम्नांकित के मंतब्य –
1. Prof. Dr. Karma Oraon
Ranchi University, Ranchi
Dated : 04.04.1997
Script is the third category for presentation and documentation of expression and conversations of human beings, where the symbolic and phonetic conversations stand first and second. The tribal groups of the Jharkhand and neighboring areas have been intending to develop a separate tribal script for better communication within their fold on the basis of social, cultural, historical and ecological backgrounds and settings.
Dr. Narayan Oraon ‘Sainda’ along with the member of Sirasita Prakashan has made a landmark endeavour to develop the required aspect, which is known as ‘Tolong Siki’ (Tolong Script). *****
2. Bishap Dr. Nirmal Minj Dated : 04.04.1997
Ranchi
Dated : 04.04.1997
Most adivasis are doubly deprived of their cultural identity. They begin their schooling in an alien script and language. Thus they have stepped two steps down their personal and community life. First their mother tongue is not recognized and they have no script of their own. To be an independent and free adivasi person and community they must have their own script and language for developing their literature and culture. The education through their own script and language will make the adivasi a real free and independent person and community with their self respect and dignity. *****
3. डॉ. फा. बेनी एक्का
निदेशक‚ जेवियर समाज सेवा संस्थान
राँची (झारखण्ड)
दिनांक: 09 अगस्त 1997
डॉ. नारायण‚ आप आदिवासी भाषाओं के लिए लिपि विकास में लगे हैं और आपकी समस्या है कि सभी स्वर ध्वनियों के लिए अलग-अलग लिपि चिन्ह रखे जाएँ अथवा देवनागरी लिपि की वर्णमाला की तरह हो। इसके बारे में एक अच्छा भाषाविद् ही सलाह दे सकता है। मैं कुँड़ुख़ भाषा का अच्छा जानकार नहीं हूं। .... फिर भी इस विषय पर मेरा सुझाव सुनिये - ‘‘हमलोग हिन्दी भाषा की देवनागरी लिपि के मात्रा चिन्हों तथा इसके प्रयोग में अकसरहाँ उलझ जाते हैं। हिन्दी के हृस्व एवं दीर्घ उच्चारण और उसके चिन्हों को बायें तथा दायें ओर से लिपि चिन्ह दिये जाने में हमेशा ही उलझन होती है। संभव हो तो नई लिपि में इस समस्या का समाधान ढूँढ़ें और इस तरह के उलझन से लोगों को बचाएँ‚ खाश कर बच्चों के लिए मददगार बनें।’’ *****
4. श्री इन्द्रजीत उराँव
रीडर‚ जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग
राँची विश्वीविद्यालय राँची।
दिनांक - 13 मई 2001
सय नारायण उराँवस गही ई ‘कत्थ एःख़ तंगआ खोंड़हा का बेलख़ा ता होरमा आःलर गही उज्जना-ओक्कना अरा नन्ना खोंड़हन्ता आःलर गने ओड़ा-सड़ी मन्ना‚ मुन्धभारे काःलर दरा ओन्टा अकय कोहा चम्बा चिओ। इन्ना ता चोक्खा मंज्जका बेड़ा नू सय नारायण उराँवस लेखआ अबगम बग्गे लूरगरियर गही चाड़ रअ़ई। एःन परपन्द जिया ती दव घोखदन अरा बाःख़दन का ईस गही ओःरे नंज्जका नलख बरना बेड़ा गे खोंड़हन्ता होरमा आःलर गही बोलतन माःनिम ओत्तर दरा निजिड़तआ ओंग्गो। *****
5. डॉ. बहुरा एक्का
कुलपति
विनोवा भावे विश्वविद्यालय‚ हजारीबाग (झारखण्ड)
दिनांक : 12 फरवरी 2003
तोलोंग-सिकि को कुँड़ुख़ कत्था की आधारभूत लिपि के रूप में मुझे अंगीकार करते हुए थोड़ी भी शंका नहीं है‚ जहाँ तक अपनी भाषा की सहज जानकारी है और जिस पर मैं स्वंय को गौरवान्वित महशूस करता हूँ। आप तमाम कुड़ुख़ भाषियों एवं साहित्य प्रेमियों से आग्रह करना चाहूँगा कि आप भी इस पर गंभीरता पूर्वक चिन्तन-मनन करें तथा इसके माध्यम से कुँड़ुख़ भाषा‚ साहित्य एवं संस्कृति को अक्षुण रखने में मदद करें। मैं इस लिपि के सृजनकर्ता के समर्पण‚ त्याग और तपस्या मूलक प्रयासों से अत्यधिक प्रभावित हूँ‚ जिन्होंने समुदाय के व्यापक हित में तोलोङ सिकि का सृजन कर समाज को अतुलनीय देन दी है। मैं डॉ. नारायण उराँव के मंगल भविष्य की कामना करता हूं। *****
6. डॉ. (श्रीमती) इन्दु धान
पूर्व कुलपति
मगध विश्वकविद्यालय‚ बोधगया (बिहार) सह
सिद्धू कान्हूह मुर्मू विश्वयविद्यालय‚ दुमका
दिनांक : 27 अप्रैल 2003
यदि हम वास्तव में अपने क्षेत्र के आदिवासियों की उन्नति चाहते हैं तो यह प्रयास करना होगा कि सूदूर ग्रामीण क्षेत्रों में भी कम से कम हर बच्चे को प्राथमिक षिक्षा मिले। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में यह प्रबंध नहीं है कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में मिले‚ लेकिन तोलोंग लिपि को मान्यता मिल जाने पर यह संभव होगा कि आदिवासी बच्चे अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर सकें। इसके अतिरिक्त हमारी परम्परा और हमारे इतिहास को भी लिपिवद्ध करने की आवश्यअकता है। मुझे यह जानकर अत्यंत हर्ष हो रहा है कि इस क्षेत्र में बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदों का ध्यान इस ओर आया है। *****
आलेख –
डॉ. नारायण उराँव ‘सैन्दाज’
शोध एवं अनुसंधान
(तोलोङ सिकि लिपि)