आदिवासी भाषाओं के विकास के लिए नई लिपि का आवश्यकता के संबंध में संयुक्त बिहार के आदिवासी बुद्धिजीवि एक साथ मिलकर, केन्द्रीय भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर (भारत सरकार) के प्रोफेसर एवं निदेषक डॉ॰ फ्रांसिस एक्का के साथ होटल महारजा, राँची में बैठक किये। यह बैठक 24 जनवरी 1998 को हुआ। डॉ॰ फ्रांसिस एक्का, बिहार जनजातीय कल्याण शोध संस्थान, मोरहाबादी, राँची के आयोजित कार्यशाला में भाग लेने राँची आये हुए थे। जानकारी मिलने पर डॉ॰ नारायण उराँव, मुझे होटल महाराजा, राँची में डॉ॰ एक्का से भेंट करने के लिए 22 जनवरी 1998 को 6.00 बजे संध्या को बुलाये। निर्धारित समय एवं स्थान पर जब मैं पहूँचा तो वहाँ एक-एक कर कई आदिवासी शिक्षाविद एवं समाज सेवी उपस्थित हुए। निर्धारित समय के अनुसार, डॉ॰ फ्रांसिस एक्का की अध्यक्षता में ‘‘आदिवासी भाषा की लिपि एवं तोलोंग सिकि’’ विषयक विचार-गोष्ठी आरंभ हई। इस बैठक में डॉ॰ फ्रांसिस एक्का, डॉ॰ रामदयाल मुण्डा, डॉ॰ निर्मल मिंज, फादर प्रताप टोप्पो, डॉ॰ नारायण उराँव एवं मैं (मनोरंजन लकड़ा) उपस्थित थे। झारखण्ड आंदोलन के पक्षधर शिक्षाविदों ने डॉ॰ एक्का के समक्ष एक प्रश्नो रखा कि आदिवासी आंदोलन को कारगर बनाने के लिए यहाँ की भाषा एवं संस्कृति को संरक्षित तथा संवर्द्धित करना होगा। इसके लिए साहित्य सृजन करने होंगे। इस स्थिति में हमें सुझाव दीजिए कि वर्तमान समय के अनुकूल हम कौन सी लिपि को अपनाएँ ? क्या, हमें नई लिपि विकसित करनी चाहिए या स्थापित लिपि देवनागरी या रोमन लिपि को अपनाएँ ? वहीं पर कुछ व्यक्ति, आदिवासी सामाजिक पहलुओं पर विचार व्यक्त करते हुए बोले कि वर्तमान परिपेक्ष्य में आदिवासी पहचान की समस्या हो रही है। इसके लिए आदिवासी भाषाओं को एक सूत्र में बांध सकने के लिए एक लिपि की आवश्याकता है, जो लोगों में आदिवासी पहचान जगा सके और जो आधुनिक तकनीकी संगत भी हो। इस संदर्भ में विगत 8-9 वर्षों से लगातार डॉ॰ नारायण उराँव द्वारा किया गया कार्य को अर्थात तोलोंग सिकि की प्रस्तुति को समाधान के तौर पर विचार-विमर्श किया जाए।
उक्त तमाम बातों को ध्यान पूर्वक सुनने-समझने के बाद डॉ॰ एक्का, अपना विचार रखे। उन्होंने कहा कि वैश्िके क जगत में लिपि‚ तीन तरह से प्रस्तुत होती है -
(1) Socio-cultural based वाली लिपियाँ। जिसका आधार सामाजिक एवं सांस्कृतिक होता है, जिससे लोग भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं। जैसे, सभी भारतीय भाषाओं की लिपियों का आधार सामाजिक एवं सांस्कृतिक है।
(2) Machine based वाली लिपियाँ। ऐसी लिपियाँ उंबीपदम के अनुरूप ही विकसित होती हैं।
(3) Political based लिपियाँ। ऐसी लिपियाँ, किसी भाषा-भाषियों पर किसी राजनीति के तहत थोपी जाती हैं। ऐतिहासिक तथ्य है कि मराठी भाषा को अनुसूची के शामिल किये जाते समय इसकी भी लिपि थी, परन्तु इसे देवनागरी के माध्यम से 8वीं अनुसूची में स्थान मिला है, जिसे कुछ इतिहासकार अपनी असहमति जताते रहे हैं।
इस तरह दिनांक में 22.01.1998 की विचार गोष्ठी में Machine based लिपि विकसित किये जाने हेतु डॉ॰ फ्रांसिस एक्का को अधिकृत किये जाने पर सहमति बनी तथा दिनांक 24.01.1998 को 9.00 बजे सुबह फिर से उसी स्थान पर बैठक होने का निर्णय के साथ बैठक समाप्त हुआ।
उसके बाद दिनांक 24.01.1998 को सुबह 9.00 बजे डॉ॰ फ्रांसिस एक्का के कमरे में ही बैठक आरंभ हुई। बैठक में तीन साथी, जिनमें श्री मंगरा उराँव, श्री विवेकानन्द भगत एवं प्रो. नारायण भगत भी शामिल हुए। इस गोष्ठी में आदिवासी समाज की भाषा, संस्कृति, सामाजिक राजनीति संबंधी तमाम बातों पर विचार-विमर्श के पश्चाात् बैठक की अध्यक्षता करते हुए डॉ॰ एक्का ने कहा कि – वर्तमान समय के अनुसार आदिवासी समाज के लिए एक नई लिपि की आवश्य कता निश्िन त रूप से है। आगे उन्होंने कहा कि लिपि जैसी भी हो वह उनके लिए अर्थात एक भाषा विज्ञानी के लिए कोई समस्या नहीं है। साथ ही इस विषय में दर्शन और तकनीक को लाना बेकार का बहस करना होगा। इस संबंध में सबसे जरूरी बात है कि समाज के सामने जो Suppressive force है, उसके Against में हमारे पास क्या उपाय है ? यदि इस समस्या का समाधान हो जाए तो आगे कार्य किया जाए।
डॉ॰ एक्का के सुझाव के बाद, बैठक में सर्वसहमति से निर्णय लिया गया कि - नई लिपि, सामाजिक एवं सांस्कृतिक आधारवाली हो तथा तकनीकी संगत हो। उपस्थित प्रतिभागियों ने डॉ॰ एक्का तथा डॉ॰ रामदयाल मुण्डा को संयुक्त रूप से तोलोंग सिकि को राजकीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर आगे बढ़ाने के लिए अधिकृत किया गया। इस निर्णय के साथ बैठक समाप्त हुई।
दोनों बैठक में शामिल होकर मुझे कई नयी बाते सुनने और समझने को मिली। आज मुझे खुशी है कि मैं भी कुँड़ुख़ भाषा एवं लिपि के विकास का गवाह हूँ।
रिर्पोटर -
मनोरंजन लकड़ा
सेवा निवृत, डिप्टी ट्रांस्पोर्ट कमिश्नर,
संतालपरगना, दुमका (बिहार)