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लरका आंदोलन का अमर शहीद वीर बुधू भगत और अंगरेजी बंदूक

भारत की आजादी की लड़ाई में सन् 1857 या उसके बाद, देश के लिए प्राणों की आहुति देने वाले वीर शहीदों में कुछ के नाम भारतीय इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखे गए हैं। किन्तु 1857 ई. से पहले और बाद भी आदिवासी     समुदायों के वीरों के अधिकांश नाम गुमनामी के ढेर में छिपा है। छोटानागपुर (वर्तमान झारखण्ड-प.बंगाल) के इतिहास में भी उस स्वतंत्रता संग्राम में ऐसे अनेक वीर सपूत पैदा हुए जिन्होंने, अपने समाज और देश के लिए अपनी जान की कुर्बानी दी। ऐसे कुछ महान सपूतों में प्रमुख हैं - वीर बुधू भगत, बिरसा मुण्डा, तिलका मांझी, जतरा भगत, गणपत राय, शेख भिखारी ठाकुर, ठाकुर विश्वानाथ शाहदेव इत्यादि। इन गुमनाम शहीद सपूतों में कुछ नाम ऐसे है, जिनका त्याग और वलिदान इतिहास में चर्चित नामों में से किसी भी कसौटी पर कम नहीं है, शायद उन सपूतों कों को वह सम्मानननहीं मिला जिसके वे हकदार हैं। उन्हीं नामों में छोटानागपुर के अमर शहीद वीर बुधू भगत का नाम प्रमुख है, जिनका इतिहास अभी भी पूरी तरह समाज के सामने प्रस्तुत नहीं किया जा सका है। इतिहासकारों ने झारखण्ड एवं छोटानागपुर के आदिवासियों के इतिहास को नजर अंदाज किया है। अंधकार में पड़े ये आदिवासी समूह ऐसे है, जिनका न कोई इतिहास लिखा गया और न ही उनकी संतानों ने कभी अपने पुरखों की गौरव गाथाएँ ही पढ़ी। यही कारण है कि हमारे अनेक ऐतिहासिक पुरूष गुमनामी के घोर अंधेरे में खो चुके हैं। यह आश्च र्य की बात है कि एक बहुत बड़े जन आन्दोलन को इतिहासकारों ने भी नजर अंदाज किया। 

Veer Budhu Bhagat

वीर बुधू भगत का जन्म राँची जिला के चान्हों प्रखण्ड के सिलागामी (सिलागाई) ग्राम में 17 फरवरी 1792 ई. को एक गरीब आदिवासी उराँव परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम शिबू सुकरा भगत और माता का नाम बालकुन्दरी भगत था। बुधू भगत के तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं। बेटों का नाम - हलधर, गिरधर, उदयकरण था तथा दो बेटियाँ, रूनियाँ और झुनियाँ थीं। कहा जाता है - बुधू भगत का जन्म तो अन्याय और अत्याचार के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए ही हुआ था। उनका जीवन अनेक कष्टकारी परिस्थितियों के बीच संघर्ष करते हुए बीता और देश एवं समाज के लिए शहीद हुए। 
    दैवीय शक्ति का वरदान और सिद्ध पुरूष - बुधूबीर के बारे में बचपन की कई किंवदंतियाँ प्रचलित है। कहा जाता है कि बुधूबीर गाँव में कोयल नदी में एक निश्चित चट्टान पर बैठकर रोज स्नान किया करते थे। एक दिन उसी चट्टान पर ध्यान मग्न बैठे थे, उन्होंने आँखे खोली तो उन्हें कुछ यों ही सूझा कि उन्होंने चट्टान पर रखा अपना धनुष उठाया और दक्षिण दिशा की ओर तीर चलाया। यह तीर 2 कि.मी. दूर एक टोंगरी पर कड़ी चट्टान में जा गिरा, वह चट्टान वहीं धँस गई। वहाँ से निर्मल जल की धारा फूट पड़ी। आज भी वह चट्टान है जहां पर तीर लगा था। इस चट्टान को आज ‘‘वीर पानी’’ के नाम से जाना जाता है। यह भी कहा जाता है कि बुधू भगत प्रतिदिन की तरह एक दिन उसी निश्चित स्थान पर बैठकर स्नान किये ततपश्चादत् टोंगरी की ओर चढ़े और देखे कि एक बुढ़िया अंगसी (तुंड़सी) से पेड़ की सुखी डाली तोड़ रही है। देखते-देखते उस अंगसी (तुंडसी) से बड़ी-बड़ी कच्ची डालियाँ टूटकर गिरने लगी। बुधू भगत ने बुढ़िया से पूछा, ‘‘आजी तुमने ऐसा क्या कर दिया कि बड़ी-बड़ी डालें टूटकर गिरने लगीं?’’ बुढ़िया ने कहा- ‘‘देखों बाबू, जब मैंने अंगसी (तुंडसी) में रस्सी बांधी तो यह बार-बार रस्सी टूट जाती थी। तब मैंने इसी टोंगरी के पानी से अपनी रस्सी भिंगोई, उसके बाद से ऐसा होने लगा।’’ बुढ़िया माँ का बात सुनकर बुधू भगत भी वहाँ गये और देखे कि शुद्ध निर्मल पानी चट्टान में है, गर्मी का दिन था प्यास भी लगी थी। उन्होंने निर्मल पानी को दोनों हाथों की अंजुरी में उठाकर पिया। उस पानी को पीने के साथ ही उन्हें अपने शरीर में एक अजीब तरह की शक्ति और आत्म-विश्वा स का एहसास हुआ। बाद में जब वे सिर उठाकर देखे तो वह बुढ़िया वहाँ नहीं थी और न ही पेड़ से तोड़ी गई, वे बड़ी-बड़ी डालियाँ। उन्हें लगा - चाःला माँ एवं ईश्वईरीय शक्ति उन्हें कुछ कहना चाहती हैं।
सिलागामी (सिलागांई) धरती का लाल क्रांतिकारी क्यों बना ? :- बुधू भगत, बचपन से ही गरीबी, भुखमरी के साथ जमींदार, साहुकार, महाजन, बनिया अर्थात् गैर आदिवासियों की बर्बरता को देखे। वे देखे कि किस प्रकार तैयार फसल को जमींदार उठा ले जाते थे, और गरीब गाँव वालों के घर कई-कई दिनों तक चुल्हा नहीं जल पाता, गाँव के बच्चे, बुढ़े सभी भूख से बिलखते रहते। माँ बहनों का खुन सूखता था, लेकिन इन सभी मार्मिक दृष्यों से जमींदारों का मन तनिक भी नहीं पसीजता था। वे किसानों से कर (मालगुजारी) के रूप में बड़ी रकम वसूल कर ले जाते थे। उन लोगों का विरोध करने का हिम्मत कोई नहीं कर पा रहा था। उलटे सूदखोरों, महाजनों एवं जमींदारों को ब्रिटिश हुकूमत का साथ मिल रहा था। ब्रिटिश सरकार, जमींदारों को हुकूम दे रखा कि वे ग्रामीणों से अधिक से अधिक मालगुजारी और लगान वसूल करे लेकिन गरीब लोग लगान कहाँ से चुका पाते, लगान न चुकाने की स्थिति में जमींदार के आदमी ग्रामीणों पर तरह-तरह के शोषण और अत्याचार करते थे। उनके मवेशियों को जबरन खोलकर ले जाते, अनाज छीन लेते तथा खेतों को गिरबी रखवा लेते थे। बेगारी काम कराते, अप शब्दों से गाली देते, मारते-पिटते, इतना तक की मृत्यु भी हो जाती थी। अधिकतर जमीन्दार अंगरेजी हुकुमत के पक्षधर थे। कुछ जमीन्दार अच्छे भी थे और जनता के साथ उनका रिस्ता सरल था। कहा जाता है रातु महाराजा के वंशज महाराजा दुर्जन साय, मुगल सम्राट की अधिनता स्वीकार नहीं किये और लगान देने से इनकार कर दिया। इसपर, उन्हें बन्दी बनाकर ग्वालियर जेल में रखा गया, जहाँ पहले से ही अलग-अलग क्षेत्र के कई राजा-महाराजा कैदी बने हुए थे। वहाँ एक दिन मुगल सम्राट के सामने असली और नकली हीरा पहचानने की होड़ लगी। कहा जाता है महाराजा दुर्जन साय के पास हीरा पहचानने की एक अजीब सी चीज थी जिसे महारजा ‘हिरी’ कहते थे। उसके बारे में महाराजा दुर्जन साय को छोड़कर दूसरा कोई नहीं जानता था। महाराजा की इस तरकीब को पाकर मुगल सम्राट बहुत खुश हुए और उन्हें मुक्त करने की घोषणा की तथा पूरा छोटानागपुर को स्वतंत्र कर दिया अर्थात मुगल षासनकाल में टैक्स देना नहीं पड़ता। साथ ही महाराजा के कहने पर सभी बन्दी राजाओं को भी मुक्त कर दिया गया।            
    कालांतर में 12 अगस्त 1765 में बंगाल, बिहार और ओड़िसा की दिवानी के साथ छोटानागपुर भी अंगरेजों को मिली। अंगरेजी राज्य कायम होने से अंगरेज अधिकारियों ने कचहरी की न्याय व्यवस्था बहाल हुई, जिसमें बाहर के व्यापारी, लोभी-लालची और तरह-तरह के लोगों को आने एवं धोखाधड़ी कर लूट-खसोट करने को प्रोत्साहन मिला। इस व्यवस्था में भाषा की जानकारी का आभाव लोगों को लाचार बना दिया। अंगरेज मजिस्ट्रेट अंगरेजी में सुनते और समझते थे। दुभाषिया और गवाह बनियाँ और महाजन बन गये थे, जो आदिवासियों को झूठा मुकदमा में फँसाकर जेल भेजवाते और उनकी जमीन लूट लेते थे। कहा जाता है - उस समय शेरघाटी (गया, बिहार) जेल, आदिवासियों से भर गया और वहाँ कई लोग जेल में ही मर गये। इधर अंगरेज अफसर महाराजा के लोगों से शासन करते थे और महाराजा अपनी सारी जिम्मेदारी अपने अमला-प्यादा पर छोड़ दिये थे। इससे लोग हर तरह से आदिवासियों को लूटा और लाभ उठाया। महाराजा के अमला-प्यादा लगान पाने के बाद भी रसीद नहीं देते थे। मालगुजारी के नाम से रूपया वसूल करते और दशहरा में बकरी और काड़ा वसूल करते थे। अंगरेजों द्वारा ऐसे जुल्म को रोका जा सकता था, परन्तु उन्होंने इसे नहीं रोका। लोहरदगा और बुण्डु में जो मुन्सिफ कोर्ट खुला, वहाँ गैर आदिवासियों ने आदिवासियों को लूटा और जमीन्दरों ने उनका साथ दिया। वहाँ बराबर बनावटी गवाह रहते थे जो यह साबित करते थे कि उनका (आदिवासी), जमीन-जायजाद पर कोई मालिकाना हक नहीं है। जो हक मांगते उन्हें देशद्रोही ठहरा दिया जाता था। दूसरी ओर, बाहर से आये बनियाँ, महाजन और ठेकेदार आदिवासी महिलाओं तथा लड़कियों के साथ अत्याचार करने लगे। अगर कोई उनके खिलाफ सिर उठाता तो जमीन्दारों की टोली गलत आरोप में फँसा देती थी। कहा जाता है बन्दगाँव (कोलहान क्षेत्र) का बिन्दराय मानकी की पत्नी को वहाँ का एक ठेकेदार भगाकर ले गया और उनकी दो बहनों के साथ बलातकार किया। इससे पूरा कोल्हान आन्दोलित हो गया और उस ठेकेदार को जान से मार दिया। उसके बाद सिंगराय और बिन्दराय दोनों भाई पर शेरघाटी कोर्ट में मुकदमा हुआ। इसी तरह तमाड़ राजा बैजनाथ मानकी की मृत्यु के बाद वहाँ का नाजीर धोखा देकर उसके बेटे को गिरफतार करवा दिया और शोरघाटी जेल भेजवा दिया। इससे पूरा पंचपरगना क्षेत्र आन्दोलित हो उठा। अंगरेज सरकार ने आदिवासियों के बीच हँड़िया टैक्स लागू कर दिया और पॉपी (ऑपियम) की खेती के लिए बाध्य करना शुरू किया। इससे पूरे क्षेत्र में विरोध होने लगा। पलामु में भोक्ता समाज ने छिटफुट, कई बार आन्दोलन किया। इसी तरह झिको चट्टी, कुड़ू, चंदवा आदि कई स्थानों पर इतना अत्याचार हुआ कि लोग आन्दोलित हो उठे। इधर बुधूबीर, लोगों को जुटा रहे थे और छापामार लड़ाई की तैयारी कर रहे थे। बुधूबीर की गोरिला तकनीक ऐसी थी कि लोग भ्रम में पड़ जाते थे और कहते थे कि वे गायब हो जाते हैं। इस तरह पूरे छोटानागपुर में असंतोष की लहर थी। लोग अंगरेजों के शासन से मुक्ति चाहते थे।
इन विकट और विषम परिस्थिति के विरूद्ध आंतरिक मन में आग सुलग रहा था। ऐसी तंग आर्थिक, सामाजिक परिवेष ने बुधू भगत को वीर महापुरूष बना दिया। गाँवों में तरह-तरह के खेलों की प्रतियोगिता जैसे डण्डा चलाना, तीर-धनुष चलाना, तलवार भाजना एवं अन्य प्रकार की छोटी-बड़ी खेल का आयोजन आदिवासी और गैर आदिवासियों के बीच भी होता था। सभी खेलों में बुधू भगत के नेतृत्व में लोग सफल होते थे। तभी से गैर आदिवासी, खाशकर बनियाँ एवं महाजन, बुधू भगत को रोकने के लिए षड्यंत्र रचने लगे। जब उन्हें सफलता नहीं मिली, तब वे बुधूबीर को पकड़वाने के लिए अंग्रेजों की मुखबिरी करने लगे। कहा जाता है - बुधूबीर  एक साथ दो स्थान में होते थे।
    बुधू भगत एक आत्मज्ञानी, वीर एवं दैवीय शक्ति प्राप्त पुरूष थे। प्रतिदिन गांव के बगल के कोयल नदी में स्नान कर पूजा अर्चना किया करते थे। उनके स्वर में गजब सा आकर्षण था। इनके कार्यों एवं विचारों में कहीं बाधा नहीं, बुराई नहीं होती थी। इसलिए इनके बातों को मानने लगे। लोगों का विश्वामस इस पर बढ़ते गया। एक गांव से दूसरे गांव के लोग जानने लगे और शोषण से तंग आ चुके लोग बुधू भगत को अपना रक्षक माने लगे। उस समय शोषण और अत्याचार चरम पर था, इसलिए लोगों का कहना है कि आदिवासियों की रक्षा के लिए ही बुधूबीर अवतरित हुए है। वे एक कुषल घुड़सवार, अचूक निशानेबाज धनुर्धारी, पराक्रमी और तलवारबाज योद्धा थे। जिसे अपने लोग यदा-कदा भिन्न-भिन्न अवसरों पर देखा करते थे। 
    1831-32 ई. का कोल विद्रोह का प्रारंभ तो मुण्डा इलाका बुण्डू तमाड़ क्षेत्र से स्थानीय आदिवासियों के बीच अन्याय और अत्याचार के खिलाफ हुआ। इसका नेतृत्व सिंगराय, विंदराय मानकी कर रहे थे जब यह युद्ध तमाड़ से राँची, मांडर, पिठौरिया, बिजुपाड़ा होते हुए चान्हों पहुँच गया। इस क्षेत्र का नेतृत्व वीर बुधूबीर पूर्व से ही कर रहे थे। धीरे-धीरे पूरा रातू महाराजा क्षेत्र बुधूबीर के नेतृत्व में लरका आन्दोलन (एक जन क्रांति की तरह) फैल गया। इस आन्दोलन में सभी भूमि पुत्र शामिल हुए, जिससे अंगरेज घबड़ाने लगे। बुधूबीर की संगठनात्मक क्षमता अद्भूत थी। वे लोगों में भेद-भाव की भावना से सामान्य जनता को बचाना चाहते थे। वे दूर-दराज के गांवों तक आपसी भेद-भाव दूर कर, सामने एक षत्रु को देखने की बात कहते थे। यह उनकी लोकप्रियता का प्रभाव था कि यह आन्दोलन सोनपुर, तमाड़ एवं बंदगाँव के मुण्डा-मानकियों का आंदोलन न होकर छोटानागपुर के समस्त भूमिपुत्रों का आंदोलन हो गया था। बुधू भगत के प्रभाव का अनुभव अंग्रेजों को हो चुका था। कई अंगरेज अफसरों ने अपने वरीय अफसारें को सूचित किया कि चोरेया, टिको, सिलागांई एवं अन्य पड़ोसी गाँवों की पूरी आबादी अंग्रेजों के लिए अत्यंत त्रासद हो गई है। क्योंकि, उन लोगों को सिलागांई गाँव के बुधू भगत के रूप में एक जीवट नेता पा लिया हैं जिनपर वे आँख बन्द कर विष्वास करते हैं। कई पुस्तकों एवं दस्तावेजों में प्रमाण मिलता है कि 11 दिसम्बर 1831 को हजारों आदिवासियों ने एक पषु व्यापारी एवं ठेकेदार के एक सौ काड़ा-बैल को लूट लिया और जंगल में छोड़ दिया। 20 दिसम्बर को कई जगह लूटपाट हुआ और ठेकेदारों को घायल कर दिया गया। तमाड़ के षिवी मुण्डा और तोपा मुण्डा, सिहंभूम के सिंगराय-बिन्दराय तथा मानक विदेषियों पर आक्रमण करने की तैयारी में थे। 11 जनवरी को चार हजार लोग गोबिन्दपुर पर चढ़ाई करने को सोचा तो गोविन्दपुर के कुँवर आन्दोलनकारियों को भरपूर मदद करने का वचन दिया, पर डर से वह चोरया भाग गया। 12 जनवरी को आन्दोलनकारियों ने गोविन्दपुर और सारे परगना में खूब लूट-पाट किया और आग लगा दी। विदेशियों को मार-काट करना शुरू कर दिया। कई थाना जला दिये गये। कई जमान्दारों के घर लूट लिये गये। पलामू, बरवे, छेछाड़ी बुधूबीर के नेतृत्व में आन्दोलनकारियों के कब्जे में आ गया। कहा गया कि 26 जनवरी 1832 तक पूरा छोटानागपुर आन्दोलनकारियों के कब्जे में था। अंगरेज हुक्मरानों ने स्थिति का पूर्वानुमान कर बनारस, पटना, षेरघाटी आदि जगहों से सैनिक और घुड़सवार भेजे जाने के लिए अपने उपर के अफसरों को लिखा। अंगरेज अफसरों के आह्वान पर छोटानागपुर के बाहर से राजा-महाराजा अपनी सेना के साथ पलामु और पिठोरिया पहुँचने लगे। देव राजा (मगध, बिहार) एवं पलामू राजा अपने लाव-लस्कर के साथ टिको पहुँचे और अंगरेजी फौज का साथ दिया।        
    बीर बुधूभगत की लोकप्रियता एवं जनमानस के बीच उनका प्रभाव को अंग्रेज अधिकारियों ने स्वीकार किया और बुधूबीर को जिन्दा या मुर्दा पकड़ने लिए एक जंगजू अंगरेज अफसर को तलासने लगे। इस आन्दोलन में बहुत से रियासत के राजा तथा जमीन्दार अंगरेज के खिलाफ भी खड़े हुए और आन्दोलन का साथ दिया। इस तरह छोटानागपुर में अब तक हुए आंदोलनों में यद्यपि अनेक नेता एवं शहीदों का नाम आदिवासियों के बीच उभरा, जिनमें बुधू भगत इन सबमें श्रेष्ठ है। कहा जाता है - लरका परिया में रातू महाराजा के सैनिकों को हाथी-घोड़ा सहित सिसई जमीन्दार के यहाँ खाना-खोराकी के लिए भेजा गया, क्योंकि लगान नहीं मिलने पर खजाना खाली हो गया था। महाराजा के कहने पर महाराजा के राजगुरू के वंशज सह सिसई जमीन्दार, सैनिक तथा लाव-लश्कसर को 6 महीना रखे। बदले में सिसई जमीन्दार को पाँच गाँव मिला। यह बात सिसई जमीन्दार परिवार के वंशज श्री राजकिशोर शर्मा द्वारा बतलाया गया है। 
    बीर बुधू भगत की तलवार और उनका शीश (सिर) :- सन् 1832 ई. के जनाक्रोश की ज्वाला को तेजी से फैलते देखकर तथा अपनी सीमित सैन्य शक्ति से हताश अंग्रेज अधिकारियों ने बनारस, दानापुर, मिदनापुर आदि स्थानों से लड़ाकु सेना विशेषकर घुड़सवारों की ताबड़तोड़ माँग शुरू कर दिये। फरवरी के प्रथम सप्ताह तक छोटानागपुर की धरती, सैनिकों, घु़ड़सवारों एवं अंगे्रज अफसरों से भर गयी। कैप्टन इम्पे एक भरोसेमन्द एवं कुशल सैनिक अधिकारी थे। उन्हें बुधूबीर को जीवित या मृत पकड़ने की जिम्मेदारी सौंपी गई। कैप्टन इम्पे को गुप्तचरों एवं दलालों से सूचना मिली कि बुघू भगत टिको में जनसभा करने वाले हैं, तब वे अपनी विशाल सेना लेकर टिको पहुँचे और पूरी भीड़ को घेर लिया गया। बहुत ढूँढ़ने पर बुधू भगत नहीं मिले तो वे ग्रामीणों पर दबाव डाला गया, किन्तु कोई परिणाम नहीं निकला, इसपर सैनिकों द्वारा विनाश लीला का नंगा नाच शुरू किया। इस नरसंहार में बुधू भगत के दो बड़े पुत्र हरधर और गिरधर तथा दोनों पुत्रियाँ रूनियाँ और झुनियाँ शहीद हो गईं। हरधर-गिरधर तथा रूनियाँ-झुनियाँ के शहीद होते ही टिको के महतो-पहान और पड़हा-पंच हतास हो गये और ग्रामिणों ने आत्म समर्पण आरंभ कर दिया। आज भी इसकी याद में 2 फरवरी को शहीद दिवस मनाया जाता है। इस नरसंहार, आगजनी और चीख पुकार के बीच कई गावों से आये लगभग 4 हजार ग्रामीणों को बन्दी बनाया गया। कैप्टन इम्पे ने पिठौरिया शिविर में सूचना भेजी कि उसने 4 हजार विद्रोहियों से हथियार समर्पित करवा कर बन्दी बना लिया है। उन 4,000 हजार ग्रामीणों को बन्दी बनाकर कैप्टन इम्पे की सेना टेढ़ी-मेढ़ी घाटियों से होते हुए पिठोरिया के लिए रवाना किया।     
    टिको की इस घटना ने बुधूबीर को बेकाबू कर दिया। कहा जाता है बुधूबीर की दोनों पुत्रियाँ, रूनियाँ और झुनियाँ गोरिला युद्ध में निपुण थीं। बुधूबीर अपने दोनों वीर पुत्रों एवं दोनों पुत्रियों तथा सभा में आये लोगों के शहीद होने पर करो या मरो की स्थिति में हो गये। वे जल्द से जल्द अंगरेजी फौज को, अपनी तलवार के हवाले करना चाहते थे। लोगों का हुजूम, सैनिकों की गिरफ्त में तंग घाटी से घिसटता जा रहा था। सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची हुई थी। बच्चे, बूढ़े, औरतों की चीख पुकार से वन प्रांतर प्रकम्पित था। बुधूबीर, उन निर्दोश गाँव वालों को अंगरेजी सेना के कब्जे से मुक्त करवाना चाहते थे। उन्होंने अपनी पूरी भक्ति-शक्ति और युक्ति लगाकर दैवीय का आह्वान किये। प्रकृति भी शायद नहीं चाहती थी कि बुधूबीर अपना संयम खो दें, इसलिए बुधूबीर के गर्जन और क्रंदन को भांपकर अलौकिक घटना घटी, जिसे देखकर अंगरेज हतप्रद हो गए। 1832 के फरवरी का महीना, न बादल, न पानी, न हवा, फिर अकस्मात बादल घिर आए तथा आंधी-पानी का एक ऐसा भयंकर तुफान आया कि सैनिक अपना जान बचाने के लिए इधर-उधर छिपने लगे। इस तुफानी बारिश के बीच, पहाड़ी रास्ते से अभ्यस्त ग्रामीणों ने जंगल की राह ली। यह दैवीय चमत्कार था। आँधी-पानी ने लगभग चार हजार निर्दोश ग्रामीणों को सैनिकों के घेरे से मुक्त करा दिया।     
    इस असफलता से अंगरेज झुंझला गये। अंगरेज फौज की एक टुकड़ी सिलागाईं गांव को घेरने के लिए पहले से ही तैयार थी और बुधूबीर के आने की सूचना मिलते ही अपने दल-बल के साथ बुधूबीर को गिरफतार करने के लिए सिलागाईं रवाना हुए। इम्पे के नेतृत्व में अंगरेज सैनिक, सिलागाईं की ओर बढ़े, पर बीच में दक्षिण कोयल नदी के पास फौज के पहुँचते-पहुँचते कोयल नदी में बाढ़ आ गया। लोग अचंभित थे कि फरवरी महीने मे यह आंधी-पानी और बाढ़ कहाँ से आ गया। बाढ़ कम हो नहीं रहा था। फौज काफी समय से परेशान थी। तब फौज ने वहाँ पर एक बकरी चराने वाली एक बुढ़िया को देखा और पूछा कि बाढ़ आने का क्या कारण है ? तब उस औरत ने हँसते हुए कहा - बुधू भगत में दैवीय शक्ति है इसीलिए यह बाढ़ आ गया है। तुमलोग बुधू भगत को नहीं पकड़ सकते। वह वृद्धा बतलायी कि जब तक तुमलोग किसी आदमी का सिर काटकर नदी में नहीं फेंकोगे, पानी कम नहीं होगा। कहा जाता है - कैप्टन के निर्देश पर एक घायल सैनिक का सर काटकर नदी में फेंका गया, तो पानी कम हुआ। नदी पार करके फौज सिलागाई को चारों ओर से घेर लिया गया। घुड़सवारों एवं बंदूकों से लैस सैनिक का घेरा गाँव पर कसता जा रहा था। चाहते तो बुधूबीर भाग सकते थे, किन्तु उन्होंने मुकाबला किया और वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था। बुधूबीर के लड़ाका साथियों की दृढ़ता एवं अदम्य साहस को झुकने नहीं दिया गया। विद्रोही छापामार युद्ध में निपुण थे। उन्होंने तीर, तलवार और बरछा से बंदुक का सामना किया। बुधू भगत की लोकप्रियता इतनी अधिक थी कि उनके लड़ाका साथी बंदूक धारी अंग्रेज सैनिकों से घिरे हुए अपने नेता बुधूबीर को बचाने के लिए लगभग तीन सौ की तादाद में चारों ओर से घेरा बना रखा था। मानव घेरा बुधूबीर को गोलियों की मार से बचा रहा था और घेरा बनने के क्रम में लोग बंदूक की गोलियों से गिरते जा रहे थे। अपने नेता के लिए प्राणों की आहूति देने की स्पर्धा गोलियों की बौछार के विरूद्ध मानव षरीर की एक सुदृढ़ दीवार बनी हुई थी। बुधूबीर को बचाने में लोग बंदूक के भेंट चढ़ने लगे। एक तरफ क्रूर अंगरेजी सेना बारूद की मदद से नरसंहार कर रही थी, वहीं दूसरी ओर बुधूबीर के सहयोगी गोली का षिकार हो रहे थे। इस बीच अंगरेजी सेना को समाप्त करने की ललक में बुधूबीर आगे बढ़ते गये। कहा जाता है - उनपर गोली-बारूद का असर नहीं पड़ता था, पर तीर-तलवार से घायल होते-होते काफी थक चुके थे। शायद जवान बेटे-बेटियों की कुर्वानी ने उनकी अन्तर्रात्मा को हिला दिया था और अपनी जीवन-लीला समाप्त करने की सोच डाली, अन्यथा मुर्छा की अवस्था में उनके तलवार के नजदीक पहुँच पाना मुश्किल होता। उनके तलवार में अजीब का तेज था। यदि विरोधी की नजर उसपर पड़ जाए तो वह डर से बेहोश हो जाता। अन्त में उन्होंने स्वयं अंगरेज सैनिकों से कहा - मैं तुमलोगों के मारने से नहीं मरूंगा। मुझे मारना है तो मेरे तलवार को तीन बार प्रणाम करो और मेरे उपर वार करोे। ऐसा कहकर अपना एड़ी का धूल तलवार पर चढ़ा दिये। कहा जाता है - अंगरेज सैनिकों में से देव के कुँवर के सिपाही उनके तलवार को तीन बार नमन किये और बुधूबीर पर चलाया। कहा जाता है – उनका शीश, शरीर से अलग होकर उनके पैतृक घर के आंगन में गिरा, जहाँ आज भी लोग श्रद्धा के फूल चढ़ाया करते हैं। लोग अचरज में थे, पर वही हुआ जो बुधूबीर की अंतिम इच्छा थी। बुधूबीर के शहीद होते ही लोग आत्मसमर्पन करने लगे। अंतिम दाव में अंगरेजी सेना द्वारा, क्रूरतम तरीके से एक जन आंदोलन को दबा दिया गया, पर यह आन्दोलन हमेशा ही, हर आदिवासियों के दिलों को स्मरण कराता रहेगा कि अपने स्वाभिमान की रक्षा एवं अजादी के लिए लड़ो, यदि लड़ नहीं सकते तो जुड़ो और लड़ने तथा जुड़ने के लिए आपसी भाईचारा बनाकर रहो। वैसे कुछ अंगरेज अफसरों द्वारा लरका आन्दोलन के साथ महाराजा की मौन सहमति होने का आरोप लगाया, तो कुछ अफसर असहमत भी हुए।    
    बुधूबीर की मृत्यु, के साथ ही आंदोलन की समस्त कड़ियाँ बिखर गई। अनेक गांवों के आदिवासी, झुण्डों में छोटानागपुर के आयुक्त के सम्मुख आकर स्वतः हथियार डालने लगे। पूर्व विधायक, श्रद्धेय बिहारी लकड़ा, अपनी पुस्तक ‘‘लरका आन्दोलन और आदिवासी’’ में लिखते हैं कि कर्नल वोवेन अपने फौज के साथ तमाड़ से अड़की घाट जा रहे थे, वहाँ घने जंगलों में तीन फौजी सिपाही खो दिये। विद्रोही भी मरना पसंद किये लेकिन आत्म समर्पण नहीं कर रहे थे और उन्होंने बहुत से अंगरेजों को भी मौत के घाट उतारा। तब अंगरेजों ने जंगल में लड़ना छोड़ दिया और गाँव को जलाना और आनाज को लूटना शुरू कर दिया। गाँव जलाने एवं आनाज लूटे जाने से विद्रोहियों का मनोबल गिरने लगा। घीरे-धीरे विद्रोही एवं उनके नेता आत्म समर्पण करने लगे। अंगरेजों ने प्रचार किया कि विद्रोह के कारण ही गाँव जलाये एवं लूटे जा रहे हैं। कहा नहीं जा सकता है कि इस विद्रोह में कितने आजादी प्रिये आदिवासी और गैर आदिवसियों ने कुर्वानी दी। इस तरह, छोटानागपुर की धरती से ब्रिटिशों का उखड़ता हुआ पाँव फिर से जमने लगा और अंगरेज शासन करते रहे। 

(शोध प्रस्तुति : सुश्री कमला लकड़ा, शोधार्थी, टी.आर.एल., राँची वि.वि., राँची)।

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