पुरखर बाःचका रअ़नर - कुद्दोय ना बेद्दोय, ओक्कोय ना ख़क्खोय अर्थात धुमोगे (ढूँढ़ोगे) तो खोजोगे (पाओगे), बैठोगे यानी संगत में बैठोगे तो ज्ञान हासिल करोगे।
तथ्य है कि झारखण्ड राज्य में गुमला नामक एक जिला है, जिसका मुख्यालय गुमला है। गुमला जिला के गुमला शहर का नामकरण की अवधारणा के बारे में कई बुजूर्ग अलग-अलग तरीके से अपना पक्ष रखते हैं। परन्तु इस क्षेत्र में निवास करने वाले दो भाषा परिवार की संस्कृति के माध्यम से इसे समझने में सरलता होगी। उनमें से पहला है - द्रविड़ भाषा परिवार की कुड़ुख़ भाषा, जिसके बोलने वाले उराँव लोग एवं दूसरा -आर्य भाषा परिवार की नागपुरी अथवा सादरी बोली, जिसे बोलने वाले गैर जनजाति लोग तथा अपनी भाषा छोड़ चुके कुछ जनजाति समूह के लोग अथवा यूं कहें कि उरांव, मुण्डा, खड़िया के छोड़कर अन्य लोग।
ज्ञात है कि वर्तमान में गुमला जिला में 3 सबडिभिजन है - 1. गुमला सदर 2. बसिया तथा 3. चैनपुर। गुमला को सबडिभिजन का दर्जा 1902 में मिला है और 1983 में गुमला जिला बना। वैसे सर्वे-खतियान 1908 एवं 1932 में गांव का नाम, थाना का नाम, थाना नम्बर, परगना का नाम एवं खेवटदार का नाम खतियान के मुख्य पृष्ठ पर उल्लेखित है। यहां सबडिभिजन नाम सामान्य तौर पर उल्लेख नहीं मिलता है।
दूसरी ओर वर्तमान गुमला जिला क्षेत्र को महाराजा के राजपाट में तथा अंगरेजी हुकुमत में 5 परगना क्षेत्र के माध्यम से शासन किया जाता था। जिनमें से - 1. खुखडा परगना 2. डोंइसा परगना 3. पनारी परगना 4. बरवे परगना 5. छेछाडी परगना का उल्लेख मिलता है। इनमें से पनारी परगना के अन्तर्गत गुमला क्षेत्र पड़ता था। उस समय पनारी परगना के जमींदार रातू महाराजा के राजपरिवार से नहीं थे। जबकि खुखड़ा, डोंईसा, बरवे एवं छेछाड़ी परगना महाराजा के अधीन सीधे तौर पर जुड़ा रहता था। ये बातें रातू महाराजा के राज पुरोहित एवं सिसई निवासी सह पूर्व जंमीदार वंशज श्री राजकिशोर शर्मा, उम्र 70 वर्ष द्वारा बतलाया गया है।
गुमला शहर के नामकरण के बारे में श्री राजकिशोर शर्मा जी कहते है कि गुमला का प्राचीन नाम गुइमला था। इस गुमला शहर क्षेत्र में माघ महीनें में एक पशु मेला लगता था, जो एक महीने तक चलता था। यह मेला 1927-28 तक चला और बाद में कम होता गया। वर्तमान में यह एक साप्ताहिक हाट के रूप में सीमित है।
गुमला शहर के नामकरण पर उराँव समुदाय की अवधारणा उनकी कुड़ुख़ भाषा एवं संस्कृति पर आधारित है। उराँव लोगों का मानना है कि जब गैर आदिवासी लोग अथवा गैर कुड़ुख़ भाषा वाले बाहरी लोग इस क्षेत्र में महाराजा के कार्यपालक बनकर आने लगे, तब उरांव लोग अपने प्रशिक्षित लोगों को उन बाहरी लोगों के पीछे, गुप्तचर के रूप में भेजने लगे। कहा जाता है - धुमकुड़िया का जोंख़ कोटवार को इन कार्यों की जिम्मेदारी मिला करती थी। एक बार दो व्यापारी, कुछ उराँव युवकों के साथ सारू परता के अगल बगल के उराँव गांव में गये। उन लोगों को देखकर सामान्य रूप से कुछ बुजूर्ग भी जमा हुए और धुमकुड़िया जोंख़ कोटवार को निर्देश दिये - ईर गही ख़ोःख़ा, गमआ कला। इस बात को वे व्यापारी सुन लिये, पर समझ नहीं पाये। समय बीतने के साथ उन व्यापारियों के बीच, यह गमआ कला शब्द किसी स्थान पर दो अलग समूह बैठकर बातचीत करने का प्रयायवाची बना और कालान्तर में गमआ कला (Gam’a Kala) से गइमला कहलाने लगा। गमआ कला अर्थात जो बाहरी लोग हैं उनपर नजर रखो, पहचानो। उनके क्रिया कलाप को समझो और समाज को सूचित करो। यह गमआ कला, कुडुख़ भाषा के गमना क्रिया शब्द का विधि रूप है। 100 वर्ष पूर्व 1924 में प्रकाशित An Oraon English Dictionary, में उद्धृत अर्थ, आज भी व्यवहारिक है। इस तरह कुड़ुख़ भाषा बोलने वाले तथा गैर कुड़ुख़ भाषी लोगों के बीच आपसी लेन-देन या तालमेल, जिसे आज व्यापारिक स्थल पेःठ या हाट कहलाया और ‘ गमआ कला ’ से गइमला थान या गइमला हाट के रूप मे जाना जाने लगा।
धीरे-धीरे यह क्षेत्र, दो संस्कृति अर्थात कुड़ुख़/उराँव संस्कृति एवं सदान संस्कृति के मिलन का गवाह बना। इस क्षेत्र का गइमला हाट में आदिवासी लड़कियाँ एवं महिलाएँ अपने परिवार की खुशहाली के लिए हाट में सामान बेचने या अदला-बदली करने के लिए लाया करती थीं, जिसपर गैर आदिवासी, बाहरी लोगों की नजर पड़ी और गोइ-महला जैसा शब्द उभरा और कुछ समय काल में गुइ-महला से गुइमला कहलाया। अभी भी सादरी बोली में गैर आदिवासी लोग आदिवासी महिलाओं से बोलने के लिए गुइ या गुइया शब्द का व्यवहार करते हैं। उरांव महिलाओं द्वारा हाट-बाजार में सामान लाने और क्रय-बिक्रय करने के बारे में माननीय एस.सी.राय अपनी पुस्तक - The Oraons of Chotanagpur, प्रकाशन वर्ष 1915, में लिखते हैं - Hindu and Muhammadan petty traders attends many of these village markets with tobacco, salt, cloths, spices, gur (treacle), thread and needles, china beads and a few trinkets and many of them buy up the major portion of the superfluous grain which the Oraon women take to the markets for sale. (Reprint 2020, Page 122).
वर्तमान परम्परागत उराँव/कुडुख़ सामाज में, दो अलग-अलग परिवार के बीच पारिवारिक मित्रता जोड़ने के लिए ‘सइहा जोड़ारना’ रिवाज प्रचलन में है। यह सइहा शब्द कालान्तर में हिन्दी का सहिया बन गया। इस तरह आदिवासी संस्कृति और सदान संस्कृति के बीच गइमला से गुइमला बोलते-बोलते कालान्तर में गुमला शब्द स्थापित हुआ।
शोध संकलन -
डा० नारायण उराँव ‘सैन्दा’
संयोजक
अद्दी कुड़ुख़ चाला धुमकुडि़या पड़हा अखड़ा, झारखण्ड, रांची ।