अलग झारखंड राज्य आंदोलन को बौद्धिक मोर्चे पर दिशा देनेवाले डॉ निर्मल मिंज नहीं रहे। अलग राज्य आंदोलन में उनका योगदान भुलाया नहीं जा सकता है। डॉ मिंज गोस्सनर चर्च के बिशप रहे हैं। डॉ निर्मल मिंज को साहित्य अकादमी का भाषा सम्मान से नवाजा जा चुका है। कुड़ुख भाषा में लेखन और उसके लिए व्यापक काम के लिए डॉ निर्मल मिंज को यह सम्मान दिया गया है. डॉ निर्मल मिंज पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने अपने कार्यकाल में गोस्सनर कॉलेज में जनजातीय भाषाओं की पढ़ाई शुरू करायी थी। कुड़ंख के लिए अपनी लिपि विकसित करने में भी डॉ मिंज एक मार्गदर्शक की भूमिका में जिसकी बदौलत डॉ नारायण उरावं की टीम ने 'तोलोंग सिकि' विकसित किया था।
डॉ मिंज से 2017 में रांची के पत्रकार रणजीत ने एक लम्बी बातचीत की थी। यह बातचीत उस समय की है जब उन्हें साहित्य अकादमी का भाषा सम्मान के लिए चुना गया था। वह बातचीत आप भी पढि़ये:
90 बरस के कुड़ुख भाषा के इस योद्धा को उस दिन का इंतजार है जब झारखंड की माटी का कर्ज चुकाने के लिए इन्हें साहित्य अकादमी का भाषा सम्मान 2016 दिया जायेगा। हम बात कर रहे हैं झारखंड के लेखक और शिक्षाविद निर्मल मिंज की। कुड़ूख भाषा के क्षेत्र में विशेष काम करने के लिए सम्मानित करने के लिए उनके नाम को चुना गया है। यह भाषा झारखंड के उरांव जनजातियों के बीच काफी प्रचलित है। अपनी व्यस्त दिनचर्या के बीच श्री मिंज ने संवाददाता रणजीत से लंबी बातचीत की। पढ़िये उनसे हुई पूरी बातचीत …
आपको भाषा के क्षेत्र में काम करने के लिए साहित्य अकादमी अवार्ड के लिए चुना गया है। झारखंडी भाषा की ताजा स्थिति के विषय में कुछ कहना चाहेंगे?
देखिये, झारखंड के आदिवासी भाषाओं की जो परिस्थिति थी अभी भी दयनीय हालत में है। इन भाषाओं के प्रति सरकार का दृष्टिकोण अभी तक पूरी तरह से नहीं बदला है। जो भी कहिये अगर मिशनरीज् इन भाषाओं के लिए काम नहीं करते, तब ये भाषाएं अब तक लुप्त हो जातीं…! मुंडारी भाषा के लिए होपमैन साहब ने इनसाइक्लोपीडिया निकाला। कुड़ूख भाषा के लिए बडियन हॉन ने कुड़ूख ग्रामर लिखा। इसी तरह से दूसरी आदिवासी भाषाओं के लिए काम किया गया। समय बीतने के साथ जैसे जैसे लोगों की समझ विकसित हुई वो सक्रिय जरूर हुए लेकिन, गंभीरता बहुत कम लोगों ने दिखायी।
कुड़ूख भाषा के विकास के लिए कौन कौन से काम किये गये हैं?
चूंकि मैंने अपनी जिंदगी का लंबा वख्त कुड़ूख भाषा को समर्पित किया है इसलिए मैं इसी बारे में बताना ही चाह रहा था। जिन लोगों ने कुड़ूख में काम किया है उनमें से एक लोहरदगा के दड़वे कुजूर ने कुड़ूख कविता की छोटी पुस्तक प्रकाशित करवायी थी। उसके बाद युयूस तिग्गा ने इस भाषा में काम किया और बाद में संत पॉल स्कूल के एक शिक्षक अहलाद तिर्की ने कुड़ूख में काम किया। फिर सी. एन. तिग्गा ने सरकार के साथ मिलकर इस भाषा के लिए काम किया। (आंखें बंद कर कुछ क्षण सोचने लगते हैं) मुझे याद है कि शांति प्रकाश बाखला ने भी कुड़ूख भाषा में काफी कुछ लिखा। कवि और गायक जस्टिन एक्का ने तो अपनी कविता और गाने से इस भाषा के प्रसार में अपना योगदान दिया। उनके गाने सभी चर्च और आदिवासी समाज के कार्यक्रम में अब भी प्रचलित हैं। आपको बताउं कि जस्टिन ने मेरी छत्रछाया में ही काम शुरू किया था। वो आकाशवाणी में भी काम करते थे। हालांकि, इन सभी के बाद जनता के बीच इन कामों का उतना प्रचलन नहीं हो सका।
हमने सुना है कि स्कूल में पढ़ने के दौरान आपका झुकाव कुड़ूख भाषा की ओर ज्यादा था?
देखिये, मेरे काम करने का तरीका बहुत अलग था। क्योंकि मुझमें इस तकनीक की बुनियान हाई स्कूल में पड़ गयी थी। मैंने 1946 में एस.एस हाई स्कूल गुमला से मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली थी। स्कूल के दिनों का एक वाकया मुझे याद आता है जब मैं नौवीं कक्षा का स्टूडेंट था, मेरे टीचर एस.एन. सहाय को हमारी कुछ बातें अच्छी नहीं लगीं। हम सभी दोस्त चिवाहो… नवाहो… बदलाहो… कहते हुए उछल कूर किया करते थे। उनको यह अच्छा नहीं लगा। वो अपनी लंबी छड़ी निकाल कर स्कूल ऑफिस के सामने खड़े हो गये और हमसे कहने लगे कि तुम लोग क्या कर रहे हो? क्या बंदर की भाषा चीं.. चा.. बोलते हो? उनकी ये प्रतिक्रिया मेरे ह्दय में चुभ गयी। मैंने उसी जगह मन में प्रतिज्ञा कर ली कि मैं इसी भाषा के उत्थान के लिए अपनी जिंदगी समर्पित कर दूंगा। यही भाषा कुड़ूख भाषा थी। उस दिन के बाद मैंने अपने बड़े भाई से कुड़ूख भाषा में लिखी चिट्ठी से पत्राचार शुरू कर दिया।
उज्जवला पत्रिका में पहला लेख
मैं 1949-50 में रांची कॉलेज में पढ़ने चला आया। उसी समय कुड़ूख भाषा में उजाला पत्रिका प्रकाशित होती थी, कांके से। युयूस तिग्गा पत्रिका पब्लिश करते थे। उन्होंने हमें ललकारा कि हम क्यों नहीं कुड़ूख भाषा में लिखते हैं? यही प्रभाव था कि मैंने कुड़ूख भाषा में एक लेख लिखा जो उजाला में पब्लिश भी हुआ। मेरे लिए यही मेरा पहला लिखित प्रकाशन था। मुझे दो बार अमेरिका जाने का मौका मिला। इसी दौरान मैंने 1968 में शिकागो युनिवर्सिटी से पीएचडी डिग्री ले ली। पढ़ाई पूरी कर भारत लौट आया। उस समय तक यहां कुड़ूख पढ़ाने लिखाने की कोई व्यवस्था नहीं थी। लेकिन, मुझे गोस्सनर थियोलॉजिकल कॉलेज में पढ़ाने का मौका मिला। 1968 में मुझे वहां का प्रिंसिपल बना दिया गया।
54 रूपये 50 पैसे और 1971 में गोस्सनर कॉलेज की स्थापना
1971 में मेरे सामने एक और चुनौती थी। एमए की पढ़ाई कर चुके तीन नौजवानों ने मुझसे अनुरोध किया कि क्यों नहीं मैं एक साइंस और आर्ट्स कॉलेज शुरू कर दूं। हमने प्रयास शुरू और नाम रखा गोस्सनर कॉलेज। फिर हमने अलग अलग बस्तियों में लोगों से बातचीत करनी शुरू की। लोगों के ही सहयोग से हमारे पास 54 रूपये 50 पैसे जमा हो गये। पर इतने पैसों से कॉलेज शुरू करना संभव नहीं था। ईश्वर पर भरोसा था और इसी भरोसे के सहारे पहली नवंबर 1971 को 10 शिक्षक और 29 विद्यार्थियों के साथ हमने कॉलेज की नींव रखी। उस समय आर्ट्स और कॉमर्स की कक्षाएं ली जाती थीं।
थर्ड डिविजन को एडमिशन में प्राथमिकता
कॉलेज में एडमिशन लेने के लिए एक अनोखी शर्त थी। यह शर्त कि एडमिशन में तीसरी श्रेणी में पास होने वाले बच्चों को प्राथमिकता दी जाती थी। उसके बाद दूसरी श्रेणी के बच्चों और फिर पहली श्रेणी में पास होने वाले बच्चों को जगह दी जाती थी। क्योंकि पहली और दूसरी श्रेणी में पास करने वाले बच्चों को कहीं भी एडमिशन मिल सकता था। लेकिन, तीसरी श्रेणी में पास करने वाले बच्चों के लिए हर जगह दरवाजा बंद होता था। इस विचारधारा का लोगों ने समर्थन किया और बाढ़ के जैसे स्टूडेंट्स आने लगे।
दूसरी बात मेरे मन में यह थी कि झारखंड की भाषा और संस्कृति को आगे बढ़ाने के एक औजार के रूप में झारखंड की नौ भाषाओं की पढ़ाई एमआईएल में शुरू किया जाये। यह प्रस्ताव मैंने गवर्निंग बॉडी के सामने रखा। सभी की सहमति के बाद नौ भाषाओं में पांच आदिवासी भाषाएं – मुंडारी, हो, संथाली, खड़िया और कुड़ूख के अलावा खोरठा, कुरमाली, पंचपरगनिया और नागपुरी भाषा की पढ़ाई हमने शुरू की। इस भाषा भाषी के समाज के बच्चों के लिए भाषा की पढ़ाई को हमने अनिवार्य कर दिया।
अमेरिका से लौटकर स्व. डॉ राम दयाल मुंडा बने क्षेत्रीय भाषा विभाग प्रमुख
1971 से 1980 तक गोस्सनर कॉलेज इन भाषाओं हो ही रही थी। 1980 में कुमार सुरेश सिंह कमिश्नर बनकर यहां आये। उस समय वो रांची में युनिवर्सिटी के इंजार्च भी बन गये थे। हमारी पहचान पहले से थी। उनके सामने मैंने युनिवर्सिटी में क्षेत्रीय भाषा विभाग शुरू करने का प्रस्ताव रखा और डॉ राम दयाल मुंडा को क्षेत्रीय भाषा विभाग का प्रमुख बनाया गया। आपको बताएं कि उस वख्त डॉ मुंडा अमेरिका में लिंग्विस्टिक पढ़ा रहे थे। मैंने और सिंह साहब ने उन्हें मना लिया। इन भाषाओं को पढ़ाने के लिए गोस्सनर कॉलेज को पहला एफिलिएटेड कॉलेज का दर्जा मिला। इसी कड़ी मेंधनबाद में मेडिकल डॉक्टर डॉ नारायण उरांव की राय थी कि भाषा को केवल सुनने से नहीं इसका विकास नहीं होगा, जब तक कि लोग इसे अपनी आंखों से न देख लें। वो इंटरेस्टेड थे इसलिए उन्होंने भाषा विज्ञान पढ़ाना शुरू किया। बाद में उन्होंने तोलोंग लिपि का अविष्कार भी किया।
व्याकरण का कुड़ूख में अनुवाद
कुड़ूख भाषा के संदर्भ में उन्हें जहां जरूरत हुई, मैंने उनकी मदद की। इसमें मेरा योगदान यह रहा कि जैसे मान लीजिये कि शून्य को कुड़ूख भाषा में क्या कहेंगे? इसे निदी कहते हैं। इसके बाद मुझे हान का व्याकरण कुड़ख भाषा में अनुवाद करने का मौका मिला। यह पहाड़ तोड़ने जैसा काम था क्योंकि कोई मानकीकरण नहीं किया गया था। जैसे कुड़ूख में क्रिया या संज्ञा को क्या कहेंगे टेक्निक्ली हमें कुछ भी पता नहीं था। मैंने इस समस्या के विषय में समस्या मैसूर लैंग्वेज इंस्टीच्युट के कुड़ूख भाषा के जानकार एलांगियन साहब से मदद मांगी थी। फिर उनकी अगुआई में रांची में दस दिनों का सेमिनार आयोजित किया गया। इस सेमिनार की अध्यक्षता मैंने की थी। 1982-83 के आस पास की बात है। करीब 40 लोग लगातार 10 दिन बैठे। कुड़ूख के मानकीकरण पर बात हुई। इसे पब्लिश किया गया और इसी के आधार पर मैंने अनुवाद किया जिसे भाषा के शब्द के मानकीकरण के लिए किताब के रूप में प्रकाशित किया गया।
उसके बाद अलग इस भाषा का डिपार्टमेंट शुरू हो गया। अब लोग किताबें लिखने लगे थे। हालांकि इसमें मेरा योगदान बहुत कम रहा क्योंकि मैं इंगलिश में ज्यादा लिख रहा था। इंगलिश से शिफ्ट कर कुड़ूख में किताब लिखने में मुझे थोड़ा वख्त लगा। आपको बताना चाहूंगा कि मैंने निर्धान का कुड़ूख ग्रामर ट्रांसलेट किया है। अब हम मानकीकरण के साथ भाषा पर काम करने के लिए आगे बढ़े। मैंने इंडेनल ता तेड़पा उुड़ूबिरी (मॉर्डन हाउस वाइफ) लिखी जिसे कुड़ूख लिटरेचर सोसाइटी दिल्ली ने दो वोल्युम में प्रकाशित किया। अभी इसकी पढ़ाई एमए में होती है। हाल में मेरी लिखी कविता का झड़िया पंडी के रूप में संकलन हुआ। इसमें कुड़ख समाज की झलक मिलती है। इसे झारखंड झरोखा में प्रकाशित किया गया।
कविता में आदिवासी समाज का दर्द
मेरी एक कविता लोगों के बीच काफी प्रचलित हुई थी। आप रांची के निवासी होंगे तब पता होगा कि वीमन्स कॉलेज के पीछे एक गांव था नगड़ा टोली। उसे उजाड़ कर नयी आबादी बसायी जा रही थी। जिस समय तोड़ फोड़ चल रहा था मैं गोस्सनर कॉलेज का प्रिंसिपल था। मैं टोली पहुंचा तब मुझे टूटे फूटे सामानों के बीच वहां इमली का पेड़ खड़ा मिला। मेरी कविता में यही इमली का पेड़ लोगों का दर्द कुड़ूख भाषा में बयान कर रहा है। इसी बातचीत को 14 कविता के संकलन के रूप में प्रकाशित किया गया है। नाम है ‘तेताली मन तेंघालगी‘। इस कविता में मैंने यह बताने की कोशिश की कि मॉर्डन लाइफ आदिवासी समाज से कैसे निपट रहा है। इस कविता को इंटरमीडिएट और बीए के कोर्स में पढ़ाया जाने लगा। बाद में कुड़ूख भाषा, साहित्य और लिपी को विकसित करने की बनी समिति में मुझे अध्यक्ष बनाया गया। समिति में नारायण उरांव, नारायण भगत, दुखा उरांव, हरि उरांव, कर्मा उरांव, फादर अगस्टीन केरकेट्टा, शांति खलखो और अन्य लोग ने मिल जुलकर काम आगे बढ़ाया। मैं उनकी मदद करता रहा।
समाज सेवा में जिंदगी बितायी
जब मैं अमेरिका से लौटकर रांची आया उस समय छोटानागपुर सर्वे हुआ था। 1967 में एक सेमिनार भी हुआ। जिसमें विकास मैत्री के गठन का निर्णय लिया गया। मैं उसका संस्थापक सदस्य बना। कुछ दिनों बाद मैंनें लोगों से संपर्क कर वाईएमसीए का गठन किया जो यहां निष्क्रिय था। यह संस्था बहुत आगे बढ़ी और भारत में यही पहला वाईएमसीए हो गयी। बाद में लोगों ने आदिवासी महासभा को रि आर्गनाइज करने की कोशिश की। मुझे अध्यक्ष बनाया गया और काफी दिनों तक काम चला। अभी भी उसमें काम चल रहा है। 1980 में मुझे बिशप बनाया गया। 1996 तक मैं बिशप ही रहा। तब मैं चर्च में ज्यादा समय देने लगा था। लेकिन, मेरा लिखना पढ़ना जारी रहा। एक बात बताना भूल रहा हूं कि 1958 में अमेरिका से लौटने के बाद हमारी शादी 1959 में हुई। बाद में डॉ एम. एम. टामस जो क्रिश्चियम इंस्टीच्युट फॉर स्टडी फॉर रिलिजन एंड सोसाइटी बैंगलोर के डायरेक्टर थे। उनसे संपर्क हुआ और मैं रांची में रह कर उनके असिस्टेंट के रूप में मैं रिसर्च और लेखन का काम करने लगा। 1965 में ट्राइबल अवेकनिंग पुस्तक पब्लिश हुई थी जिसमें मेरे कुछ आर्टिकल्स थे।
अंग्रेजी में लिखे गये मेरे आर्टिकल्स के कलेक्शन को मेरे 80वें जन्मोत्सव में संकलित कर प्रकाशित किया गया। मेरे सभी आर्टिकल्स को मेरी सबसे बड़ी बेटी जो जेएनयु में है उसमें कलेक्ट किया और फादर मरियानेस कुजूर की मदद से एक किताब ‘पर्स ऑफ इंडीजीनश विस्डम‘ के नाम से प्रकाशित किया गया। इसी किताब में मेरी सोच का मूल खजाना है। इस किताब का हिंदी या कुड़ूख में रूपांतरण अब तक नहीं हो सका है। इसलिए ज्यादा लोग इसकी जानकारी नहीं है। लेकिन, मैं यह महसूस करता हूं कि दोनों भाषाओं में इसका अनुवाद बहुत जरूरी है। किसी को तो इसे पूरा करना होगा।
बाइबिल का कुड़ूख भाषा में अनुवाद
इन दिनों मुझे बहुत बीहड़ काम दिया गया है। इंगलिश बाइबिल का स्टैंैडर्ड वर्जन सलेक्ट किया गया है मुझे इसे इंगलिश से कुड़ूख भाषा में अनुवाद करना है। आधा काम मैं कर चुका हूं। ट्रंाशलेशन पूरा होते ही यह बाइबिल बाइलिंगुअल उपलब्ध होगा। यानी इंगलिश और कुड़ूख दोनों भाषाओं में एक किताब होगी।
अभी आपकी दिनचर्या किस तरह बीतती है? मतलब सारा दिन कौन कौन सा काम करते हैं?
देखिये, सुबह 11 बजे से एक बजे तक पढ़ने लिखने का काम मेरे लिए अनिवार्य है। डेढ़ बजे के करीब हमलोग खाना खाते हैं। चार बजे तक आराम करने के बाद चार से पांच बजे तक वाकिंग एक्सरसाइज का समय है। सुबह छह बजे उठ कर वंदना करते हैं। उसके बाद एक्सरसाइज, नाश्ता और फिर लिखने पढ़ने का काम शुरू।
वर्तमान शिक्षा के हालात के संबंध में कुछ बताना चाहेंगे?
देखिये, शिक्षा में सबसे मूल बात है कि सरकार हमारे साथ गलत …! मैं तो कहूंगा कि हमारे साथअन्याय किया गया कि मातृभाषा से हमारी और हमारे बच्चों की प्राथमिक शिक्षा की शुरूआत नहीं करवायी। कुड़ूख, मुंडरी, हो या संथाली किसी भी भाषा वाले क्षेत्र में ऐसा नहीं हुआ। इससे हमारी जड़ कट गयी। जिस दिन स्कूल गये दूसरी भाषा में पढ़ाई शुरू कर दी। अगर कुड़ूख भाषा से शुरूआत होती और अंग्रेजी, हिंदी सीखते जाते तो आज हमारे हमारे समाज के शिक्षित वर्ग की दशा कुछ और होती। हमारे संविधान में यह व्यवस्था की गयी है और इस निर्णय से सरकार ने संविधान की अनदेखी की। अभी जोर जबरदस्ती के बाद दिनेश उरांव जी ने कुड़ूख भाषा पर ध्यान दिया है। भाषा ही संस्कृति की जड़ है और उस जड़ को काट दिया गया। तब हमारी संस्कृति पिछड़ेगी कि नहीं। अब लोग धीरे धीरे उस ओर आगे बढ़ रहे हैं। मेरे इसी योगदान को देखते हुए मुझे सहित्य अकादमी सम्मान के लिए चुना गया है।
अभी युनिवर्सिटी में झारखंड की भाषाओं की जो पढ़ाई हो रही है उसे कितना संतोषप्रद मानते हैं। अपने जैसा बताया कि गोस्सनर कॉलेज से जिस तरह इन भाषाओं की पढ़ाई शुरू हुई थी क्या उतनी गंभीरता देखते हैं?
देखिये, अभी भाषा पर काम में हम बहुत पिछड़ गये हैं। संगठित स्वरूप और सामर्थ्य रूप में भाषा और साहित्य की पढ़ाई होनी चाहिए थी, उसमें कमी दिखती है। इसको सुधारना होगा। जब तक प्रत्येक भाषा के लिए अलग अलग विभाग नहीं होगा, तब तक भाषा का विकास मुश्किल दिखता है। हालांकि कुड़ूख दल वालों की यह काफी पुरानी मांग है। लेकिन, सरकार चुप है।
झारखंड की राजनीति के संबंध में कुछ कहना चाहेंगे?
झारखंड की राजनीति के बारे मुझसे पूछियेगा … तब तो यह बहुत गलत होगा…!
… आप बता सकते हैं?
हम, बतायेंगे तब उसको आप लोग नहीं …! देखिये, हमें झारखंड 2000 में मिला तो गया पर उस समय आदिवासी आंदोलन लोएस्ट एव () में था। मैंने इन्हीं कानों से इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी जी की बातें सुनी हैं। अब झारखंड अलग राज्य बना गया है पर व्यापारियों के लिए यहां का खजाना खोल दिया गया।
16 सालों में हमलोग कितना आगे बढ़ सके हैं?
देखिये, झारखंड का विकास तो … अगर आप झारखंड के रहने वाले होंगे तब आपको पता होगा कि झारखंड ऐसे लोगों के हाथ में चला गया जो झारखंडी नहीं हैं। ये पहली बात है। जब झारखंडी शासक नहीं रहेगा तब वो अपने अनुसार यहां शासन करेंगे। यही काम शुरू हुआ जो अब भी जारी है। कुछ आदिवासी मुख्यमंत्री भी रहे पर पीछे से शासन कोई और करता रहा। मैं महसूस करता हूं कि आदिवासी और झारखंडी लोगों का जो विचार और मत है, वो लगभग लुप्त होता जा रहा है। यहां वहां टां ..टें (लोगों की प्रतिक्रिया) कर रहे हैं। इसके आगे कुछ कहना मैं उचित नहीं समझता क्योंकि हालात बहुत अच्छे नहीं हैं!
सरकार को छोड़ दें तब विपक्ष की भूमिका किस रूप में देखते हैं?
विपक्ष वाले नादान हैं ना। उनके पास शक्ति नहीं है। उन्हें तो भक्ति और शक्ति दोनों नहीं है। जैसे केंद्र में कांग्रेस की हालत है वैसी ही हालत यहां विपक्ष की है।
निर्मल मिंज एक परिचय : –
जन्म :11 फरवरी, 1927, गुमला, झारखंड।
परिवारः पत्नी और चार बेटियां – प्रोफेसर सोनझरिया मिंज, डॉ शांतिदानी मिंज, डॉ निजहार झरिया मिंज, श्रीमती अकई मिंज।
शिक्षा :
पीएचडी (सिस्टमेटिक थियोलॉजी) शिकागो युनिवर्सिटी, युएसए, 1968.
एमए (सोशल एंथ्रापोलॉजी), युएसए 1957.
बी ए, रांची कॉलेज, पटना युनिवर्सिटी, 1950.
इंटरमीडिएट, संत कोलंबस कॉलेज, हजारीबाग, 1948.
मैट्रिक, एस.एस हाई स्कूल, गुमला, 1946.
प्रोफेशनल एक्सपीरियंसः
बिशप, नार्थ वेस्टर्न जीइएल चर्च रांची, 1980-1996.
संस्थापक प्रधानाध्यापक गोस्सनर कॉलेज रांची, 1971-1983.
लेक्चरर और प्रिंसिपल गोस्सनर थियोलॉजीकल कॉलेज, रांची, 1967-1972.
शोधकर्ता, क्रिश्चियन इंस्टीच्युट फॉर स्टडी ऑफ रिलिजन एंड सोसाइटी। बंगलौर, नयी दिल्ली, 1962-63, 1967-1990.
शोधकर्ता, जबलपुर, 1957.
डिपार्टमेंट ऑफ आर्गनाइज्ड रिसर्च, जबलपुर, 1953.
अवार्डः
क्षेत्रीय भाषा में योगदान के लिए प्रसार भारती द्वारा सम्मान 2015.
हिरक सम्मान 2014.
आदिवासी रत्न 2011.
छोटानागपुर संस्कृति संघ द्वारा सम्मान 1997.
दलित और जनजातियों के बीच उच्च शिक्षा के लिए काम को देखते हुए आंध्र प्रदेश दलित युनिवसिर्टी द्वारा सम्मान 1990.