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झारखंडी शिक्षाविद् डॉ निर्मल मिंज जिन्होंने आदिवासी भाषाओं को पढ़ने पढ़ाने का मौका दिया

यह सत्तर के बाद का समय था, जब डॉ. निर्मल मिंजअक्सर संत जेवियर कॉलेज आते-जाते दिखाई पड़ते थे. उनके बारे जानकारी मिलती थी-अनुशासनप्रियके साथ-साथ झारखंड के भाषा संस्कृति के विकास के लिए उत्सुक हैं.यही कारण था कि झारखंड में नौ झारखंडी भाषाओं की पढ़ाई अपने कॉलेज में शुरू करने का साहस एवं दूरदरर्शी निर्णय उन्होंने लिया. बाद में ‘वीर भारत तलवार’ के साथ झारखंडी संस्कृति, भाषा, इतिहास आदि के विकास के लिए उन्होंने अग्रणी भूमिका निभायी और ‘झारखंडी बुद्धिजीवी परिषद’ का गठन किया जिसके वे अध्यक्ष थे. इसके अलावा  क्षेत्रीय एवं जनजातीय भाषा विभाग खुलवाने में भी एक प्रमुख हस्ती रहे.जबतक वे वहाँ के प्राचार्य रहे कॉलेज नित नई उपलब्धियाँ हासिल करता रहा.उन्होंने कॉलेज में दाखिला के लिए एक क्रांतिकारी एवं साहसिक निर्णय लिया था- कि कॉलेज में थर्ड डिवीजन वाले छात्रों का दाखिले के लिए प्राथमिकता देंगे और इस हिसाब से प्रथम श्रेणी का छात्र का कॉलेज में दाखिले का नंबर सबसे पीछे आता था. इस निर्णय से गरीब, वंचित, उपेक्षित बच्चों का कॉलेज जाने का सपना पूरा होता दिखा और इस कॉलेज में नेपाल, भूटान और नॉर्थ ईस्ट से भी छात्र पढ़ने के लिए आए. एक बार चुटिया से, एक लड़का घर के एकमात्र अभिभावक अपनी मां के साथ कॉलेज में दाखिला के लिए आया.देने के लिए फीस नहीं था. डॉ. मिंज ने छात्र से कहा कि- वह तीन छात्रों का ट्यूशन पढ़ाने के लिए ढूँढ़े. लेकिन वह लड़का दो ही ट्यूशन ढूँढ़ पाया. तब भी प्राचार्य मिंज ने तीसरा ट्यूशन ढूँढकर लाने के बाद ही उसका दाखिला लिया और इस तरह उसे स्वावलंबी होने का पाठ पढ़ाया. 


डॉ मिंज ने 1 नवंबर 1971 को 10 शिक्षकों 29 छात्रों से गोस्सनर कॉलेज की शुरूआत की और 1983 तक प्राचार्य रहे. इस बीच उन्होंने कॉलेज को अन्य सुविधा संपन्न कॉलेजों के मुकाबले-  पढ़ाई, खेल, हॉकी, फुटबॉल में भी आगे बढ़ने के लिए प्रेरक भूमिका निभायी. उन्होंने कॉलेज में झारखंडी भाषा, साहित्य पढ़ाने के लिए पहल की और हर छात्र को झारखंडी भाषा पढ़ने के लिए उत्साहित किया. उस समय गोस्सनर कॉलेज के छात्र अधिकांशतः कई विश्वविद्यालय के कार्यक्रमों में मांदर, ढोल, नगाड़ा बजाते नाचते गाते झारखंडी रंग में रंगेदेखे जा सकते थे. आज झारखंड के कई शिक्षण संस्थानों में यह सांस्कृतिक कार्यक्रमों का हिस्सा बन चुका है.


डॉ मिंज का बचपन बेहद गरीबी में बीता था लेकिन वे बिना ट्यूशन के ही पहला स्थान पाते थे.संत कोलंबस कॉलेज से पढाई के लिए छात्रवृति मिलने पर वे पढ़ाई पूरी कर सके. रांची  मेंजिला स्कूल के नजदीक जमींदार हॉस्टेल में रहकर उन्होंने बीए पढ़ाई पूरी की. फलतः उन्हें बिहार सरकार के सांख्यिकी  विभाग से नौकरी का प्रस्ताव मिला. लेकिन अभिभावकों की सलाह पर उन्होंने चर्च के लिए काम करने का मन बनाया. चर्च के एक कार्यक्रम में उनकी मुलाकात 1954 में टकरमा में, परकलता खेस्स से हुई. शीघ्र ही यह जान-पहचान प्यार में बदल गया. घरवालों ने शादी के लिए कोंहा-पाही (बड़ा मेहमान) आयोजित कर दिया. लेकिन, शादी होने के पहले परकलता को जर्मनी में, तीन साल के अध्ययन के लिए छात्रवृति मिली और वह जर्मनी चली गई. शादी के हसीन सपने देखते युवा निर्मल ठगा सा महसूस कर ही रहे थे कि उन्हें भी कुछ ही दिनों बाद अमेरिका में पढ़ने के लिए छात्रवृति मिली और वे पानी जहाज से लंदन होते शिकागो पहुंचे और तीन साल बाद  “मास्टर इनथेयोलॉजी” की डिग्री लेकर भारत लौटते हुए कुछ समय के लिए मंगेतर -  परकलता से मिलने जर्मनी गए. अंततः, एक लंबे इंतजार के बाद उनकी शादी अप्रेल 1959 में ही हो सकी.


अपने शुरूआती दिनों में जब उन्हें चर्च के काम से कुछ दिनों के लिए केरल जाना पड़ा तो उन्हें यह देखकर बेहद दुख हुआ कि वहाँ जाति केआधार पर लोगों के बैठने की व्यवस्था है. शायद इस घटना ने उन्हें इसके लिए प्रेरित किया कि वे सभी धर्मावलंबियों का सम्मान करें जो समाज की बेहतरी के लिए काम करते हैं. इसलिए उन्हें झारखंड के सांस्कृतिक, भाषिक आंदोलन के लिए ए.के. किस्कू, माइकेलबोगार्ट, रामदयालमुंडा, बी.पी.केसरी, संजयबसुमल्लिक, अलेक्सएक्का, पी.एन.एससुरीन, कुमार सुरेश सिंह,बंदीउराँव, विनोद किस्पोट्टा, रामेश्वर उरांव, बहुरा एक्का,पीयुष लकड़ा, फ्रांसिस एक्का, जस्टिन एक्का, करमा उराँव,नारायणउराँवसैन्दा, हरि उराँव, अशोक बाखलाआदिकेअलावा हनुमान प्रसाद सरावगी एवंआत्माराम बुधिया जैसे लोगों के साथ भी बात-चीत एवं काम करने में झिझक नहीं रही.
विकास मैत्री, वाई एम सी ए, झारखंड जनाधिकारं मंच, आई. सी. आई. टी. पी. आदि अनेक संगठन जो सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिकविकास के लिए काम करते हैं, उनसे वे जुड़े रहे. सेवानिवृत होने के बाद वे डिबडीह स्थित अपने निवास में कुँड़ुख भाषा के विकास के लिए कार्यरत हैं.कविता कहानी, उपन्यास आदि लिखने के साथ ही उन्होंने फर्डीनन्ड हान लिखित अंग्रेजी कुंड़ुख ग्रामर का कुँड़ुख तोलोंग सिकी(तोलोंग वर्णमाला) में लिखा और अनुवाद किया. “नारायण उराँवसैन्दा” बताते हैं कि –“मिंज साहब तोलोंग सिकी (कुँड़ुख भाषा की लिपि) सीखनेवाले सबसे अधिक उम्र के व्यक्ति हैं.” प्रसिद्ध हिन्दी विद्वान एवं झारखंड आंदोलन के बौद्धिक रणनीतिकार वीर भारत तलवार उनके बारे कहते हैं कि –“पद्मश्री रामदयाल मुण्डा से भी पहले उन्होंने अमेरिकी विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा पूरी की और वहीं से पीएच. डी की. बावजूद उनमें घमंड जरा भी नहीं था और अपने आदिवासी भाई-बहनों के साथ वे बहुत प्रेम और आत्मीयता से मिलते थे”. आगे उन्होंने कहा–“वे उन आदिवासी बुद्धिजीवियों में नहीं हैं जो गैर-आदिवासियों के प्रभाव और दबाव में आ जाते हैं. हालांकि वे धर्माचार्य भी रहे हैं लेकिन उनका यह पक्ष गैर-ईसाइयों और मुझ जैसे नास्तिक और धर्मनिरपेक्ष व्यक्तियों के साथ मिलकर काम करने में कभी आड़े नहीं आया”. 


पिछले साल कुँड़ुख भाषा के विकासमें योगदान के लिएसाहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा भाषा सम्मान प्रदान किया गया तो रांची दूरदर्शन द्वारा आयोजित वार्ता में डॉ मिंज के साथ बात करने का सुअवसर मिला. कार्यक्रम में उन्होंने एक गीत गाना चाहा. आश्चर्यजनक रूप से उन्होंने मेरा पसंदीदा कुँड़ुख गीत गाया - “परता ओलनन राजियर एरनर.....(पहाड़ पर लगी आग को देखती है दुनिया सारी, ह्दय के अंदर लगी आग को कौन देखता है ......!) ” सचऐसेदुस्साहसी शिक्षाविद के भीतर लगी आग को कौन देखता है?... जोथर्ड डिवीजनर छात्रों को आगे बढ़ने का अवसर देता है !...समाज ने उन्हें -   झारखंड रत्न...! साहित्य आकादमी काभाषा सम्मान... आदि अनेक सम्मान प्रदान किए. लेकिन अभी नब्बे वर्ष की आयु में भी सामाजिक, सांस्कृतिक और अपनी मातृभाषा कुँड़ुख के विकास हेतु उनकी सक्रियता देखकर लगता है वे इससे भी बड़े नागरिक सम्मान के आधिकारी हैं ! यह सब न भी सोचें तब भी हम यह देखें कि-सबसे नीचे दबे औरपीछे छूटे लोगों को सभी उपेक्षित करते हैं. लेकिन, डॉ.निर्मल मिंज की सराहना करनी चाहिए कि उनके प्राचार्यत्व काल में तीसरी श्रेणी में मेट्रिक उत्तीर्ण छात्रों को दाखिले में प्राथमिकता देने के निर्णय लिया.फलतः, न जाने कितने छात्रों में नया आत्मविश्वास और जोश भर दिया, जिससे उनका भविष्य संवर गया,कितने परिवारों की जिंदगी बदल गई !

महादेव टोप्‍पो
आलेख: महादेव टोप्पो

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