समाचार पत्रों-पत्रिकाओं में समय-समय पर खबर छपती है - एक परिवार, पैसे की कमी के चलते अपने कांधे पर ढोकर अपने परिजन का अंतिम संस्कार को ले गया अथवा एक व्यक्ति के अंतिम संस्कार के लिए कोर्इ मद्दगार नहीं मिला तो बच्चे और महिलाएँ, पड़ोस के एक ठेले में लेकर गये आदि, आदि।
इस तरह के समाचार से अलग-थलग अदिवासी कहे जाने वाले उराँव लोगो की परम्परा अनुकरण योग्य है। वैसे, यह तो सत्य है कि जो जन्म लिया है उसकी मृत्यु भी निश्चित है। इसलिए मानव समाज भी इसके लिए तैयार है और क्षमता, समय और श्रोत के अनुसार सामाजिक नियम बना बैठा है। इस संदर्भ में, भारत देश के पहाड़ी भ्ाूभाग के निवास करने वाली कुँड़ुख भाशी उराँव समूह परम्पारिक रूप से मृत व्यक्तियों को दफनाया करती है, पर दफनाने के पूर्व सांकेतिक रूप से अग्नि को सुपूर्द करती है। वर्तमान में कर्इ स्थानों पर इन समूह के लोगों में भी मृत षरीर को जलाते हुए भी देखा जाता है, किन्तु दोनों ही स्थिति में षव के सिर को की दक्षिण दिशा की ओर ही रखा जाता है। ऐसा किया जाना आदिवासी समाज की अपनी परम्परा है। इसी तरह, हिन्दु समाज, चुमबकीय सूर्इ की दिशा में, सिर को उत्तर की ओर रखकर श्राद्ध कर्म किया जाता हैं। वहीं र्इसार्इ लोग, मृत शरीर को पूरब-पश्चिम रखते हुए सिर को पश्चिम दिशा की ओर रखते है।
परम्परा सभी समाज में अपनी-अपनी है, पर कुँड़ुख (उराँव) कहे जाने वाले आदिवासी समाज की परम्परा आज भी ग्रामीण क्षेत्र में अति विशिश्ट है, जो आज के भौतिक वादी समाज में जानने योग्य है। जब गाँव-समाज में किसी की मृत्यु होती है, तब यह सूचना जंगल के आग की तरह, एक दूसरे से अपने-आप फैलते जाती है। उक्त घटना परिवार के लोगों के द्वारा बतलाये बिना भी एक से दूसरा तथा दूसरे से तीसरा फैलता जाता है और लोग अपना रोजमर्रा का कार्य छोड़कर मृतक व्यक्ति के घर की तरफ चले आते हैं। महिलाएँ सूप में धान लेकर आती हैं और मृतक के आंगन में जमा करती हैं। यह धन ‘‘बीजिरपो धान’’ कहलाता है। सम्भवत ‘‘बीजिरना’’ शब्द से ‘‘बीजिरपो’’ बना हो, जिसका अर्थ गिरना या खो जाना होता है। शायद समाज का एक व्यक्ति का खो जाना या समाज की गिनती से गिर कर समाप्त हो जाना इस ‘‘बीजिरपो’’ शब्द का अर्थ समझा जाता है। जहाँ, जिस परिवार के पास कफन खरीदने की भी क्षमता न हो, वहाँ इस ‘‘बीजिरपो’’ धान को बेचकर कफन खरीदा जाता है और उसे, अंतिम संस्कार किया जाता है। फिर, अंतिम संस्कार के लिए गाँव के अन्य सभी परिवार के लोग मिट्टी देने अथवा अंतिम विदार्इ देने पहुँचते है। दफनाने या जलाने की क्रिया सम्पन्न होने के बाद नदी या तलाब में स्थान कर सभी मृतक के घर के आंगन में जमा होते हैं और अपने-अपने गोत्र के अनुसार अग्नि में तेल और हल्दी का अपर्ण एवं स्पर्श करते है। यहाँ का अनुश्ठान पिता एवं पति के गोत्र के अनुसार सम्पन्न किया जाता है। समान गोत्र वाले को अग्नि की एक ही अंगिठी (आंगोर) में हल्दी एव ंतेल का अर्पण करना तथा स्पर्श करना होता है। इस क्रिया के बाद परिवार के लोगों को छोड़कर दूसरे सभी अपने घर चले जाते है। उसके बाद शाम में कोंहा बेंज्जा अर्थात मृतक की आत्मा को, पूर्वजों के समूह में शामिल किये जाने के लिए अनुष्ठान होता है। इसके पूर्व, उपस्थित कुटूम्ब के आवभगत के लिए परिवार की ओर से एक काँसा का थाली या गिलास या लोटा दान किया जाता है जिसे बेचकर ‘‘बीजिरपो’’ धनराशि की के साथ जोड़कर समाज में बैठे कुटूम्बों को आवभगत किया जाता है। गाँव सीमा क्षेत्र में श्राद्ध कर्म के साथ ‘‘गाँव बैठाना’’ अनुष्ठान भी किया जाता है जिसे गाँव के पहान-पुजार-करठा एवं अन्य लोग मिलकर सम्पन्न किया करते हैं।
- डॉ नारायण उराँव ‘‘सैन्दा’’