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कुँड़ुख़ भाषा अरा तोलोंग सिकि (लिपि)

1 कुँड़ुख भाषा - कुँड़ुख भाषा एक उतरी द्रविड़ भाषा परिवार की भाषा है। लिंगविस्टक सर्वे ऑफ इंडिया 2011 के रिपोर्ट के अनुसार भारत देश में कुँड़ुख़ भाषा बोलने वाले लोगों की संख्या 19‚88‚350 है। पर कुँड़ुख भाषी उराँव लोग अपनी जनसंख्या के बारे में बतलाते हैं कि पुरे विश्व में कुँड़ुख भाषी उराँव लोग 50 लाख के लगभग हैं। झारखण्ड में इस भाषा की पढ़ाई विश्वविद्यालयों में हो रही है। भारत में उरांव लोग झारखण्ड‚ बिहार‚ छत्तीसगढ़‚ ओड़िसा‚ प0 बंगाल‚ असम‚ त्रिपुरा‚ अरूणांचल प्रदेश‚ उत्तर प्रदेश‚ मध्य प्रदेश‚ हिमाचल प्रदेश‚ महाराष्ट्र तथा विदेशों में से नेपाल‚ बंगलादेश आदि क्षेत्र में है। 
2. तोलोङ सिकि (लिपि) -
    तोलोङ सिकि एक लिपि है। यह लिपि भारतीय आदिवासी आन्दोलन एवं झारखण्ड का छात्र आन्दोलन की देन है। झारखण्ड अलग प्रांत आन्दोलन के क्रम में यह लिपि‚ आदिवासी भाषाओं की लिपि के रूप में विकसित हुई है। पर अबतक इस लिपि को कुँड़ुख़ भाषियों ने, कुँड़ुख़ भाषा की लिपि की सामाजिक स्वीकृति प्रदान की है तथा झारखण्ड सरकार द्वारा कुँड़ुख़ भाषा की लिपि की वैधानिक मान्यता देकर‚ विद्यालयों में पठन-पाठन का अवसर प्रदान किया गया है। तोलोङ सिकि एक वर्णात्मक लिपि है‚ इसलिए कुँड़ुख़ भाषा जो एक योगात्मक भाषा है‚ को लिखने में उसके योगात्मक उच्चारण के अनुसार लिखा एवं पढ़ा जाता है। इसमें हलन्त का प्रयोग नहीं होता है। बोलचाल में‚ कुँड़ुख़ को योगात्मक तरीके से खण्ड-ब-खण्ड उच्चरित किया जाता है। इस लिपि के अधिकतर वर्ण वर्तमान घड़ी के विपरीत दिशा (Anti clockwise direction) में व्यवस्थित है। इस लिपि को कुँड़ुख (उराँव)‚ समाज ने कुँड़ुख़ भाषा की लिपि के रूप में स्वीकार किया है तथा झारखण्ड सरकार‚ कार्मिक‚ प्रशासनिक सुधार एवं राजभाषा विभाग के पत्रांक 129 दिनांक 18.09.2003 द्वारा कुँड़ुख (उराँव)‚ भाषा की लिपि के रूप में अंगीकार करते हुए संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किये जाने हेतु अनुशंसित किया गया है। साथ ही झारखण्ड अधिविद्य परिषदं‚ राँची के विज्ञप्ति संख्या 17/2009‚ JAC/20.02.2009 द्वारा 2009 सत्र में सर्वप्रथम‚ कुँड़ुख़ कत्थ खोंड़हा लूरएड़पा‚ लूरडिप्पा‚ भगीटोली‚ गुमला‚ के छात्रों को मैट्रिक परीक्षा में कुँड़ुख़ भाषा विषय परीक्षा लिखने की अनुमति दी गयी। उसके बाद‚ झारखण्ड अधिविद्य परिषद‚ राँची के अधिसूचना  संख्या - JAC/गुमला/16095/12–0607/16 दिनांक 12.02.2016 द्वारा वर्ष 2016 से मैट्रिक में कुँड़ुख़ भाषा पत्र की परीक्षा तोलोङ सिकि (लिपि) में परीक्षा लिखने की अनुमति प्राप्त हुई तथा राँची विश्वविद्यालय‚ राँची के अधिसूचना संख्या - B/1236/16 दिनांक 26.09.2016 द्वारा जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के विभागाध्यक्ष के देखरेख में एक विशेष सेल का गठन हुआ है‚ जो संताली भाषा की लिपि - ओल चिकि‚ हो भाषा की लिपि - वराङ चिति तथा कुँड़ुख़ (उराँव) भाषा की लिपि - तोलोङ सिकि में पाठ्यक्रमों की रूपरेखा तैयार करेगी। इस लिपि से पश्चिम बंगाल में भी वर्ष 2018 से सरकार द्वारा कुँड़ुख़ साहित्य प्रकाशित किया जा रहा है। 

तोलोंग सिकि
 

3. झारखण्ड अलग प्रांत आंदोलन और छात्रों की मनोभावना – 
    मैंने अपनी पढ़ाई दरभंगा मेडिकल कॉलेज‚ लहेरियासराय (बिहार) से वर्ष 1989 में पूरी की। अपने मेडिकल छात्र जीवन में हमनें 2 साईन डाई‚ 1 बाढ़ एवं 1 भूकंप की त्रासदी झेली और हमारी पढ़ाई का सत्र 2 साल पिछड़ गया। साईन डाई का कारण था फारवर्ड-बैकवर्ड का झगड़ा। यह मेरे लिए एक संवेदनशील मुद्दा था। वैसे उस समय काल में दक्षिण बिहार में चल रहे झारखण्ड अलग प्रांत का आंदोलन के चलते अकसरहां हमारे साथी हमें जंगली‚ झरखण्डी आदि बोलकर व्यंग किया करते थे। कई बार ‘जंगली’ जैसे शब्द से जलील होते हुए सामने वाले सहपाठी से हमें उलझना भी पड़ा। इस तरह के कई अवसर आये जो हमें इतिहास एवं संस्कृत साहित्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया। मैं जानना चाहा कि हमारी पहचान क्या हैॽ और लोग हम आदिवासियों के बारे में क्या सोचते हैंॽ इसी तरह अलग प्रांत आन्दोलन के दौर में हमें आदिवासी के बदले ‘वनवासी’ कहा जाने लगा। लोगों के इस तरह के व्यवहार से हमें बहुत तकलीफ होती थी। जंगल में तो उच्च जाति के लोग भी रहते हैं पर उन्हें ‘वनवासी’ क्यों नहीं कहा जाता हैॽ इस बात पर हमारे सहपाठियों के साथ तर्क-वितर्क हुआ करता था। कुछ बड़े घरानों के साथी कहा करते थे - हम भी तो आदिकाल से भारत देश के निवासी हैं‚ तो फिर सिर्फ जनजातियों को ही ‘आदिवासी’ क्यों कहा जाता हैंॽ इससे हमें भी तकलीफ होती है। वैसे इस तरह की अवधारना राजनैतिक रूप ले चुकी थी‚ इसलिए उन प्रश्नों का उत्तर भी राजनैतिक रूप से ही मिलना था।
    इन तमाम प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते मैंने एक किताब लिख डाली। उस किताब का नाम है - ‘‘सरना समाज और उसका अस्तित्व’’ जो 1989 में दरभंगा (बिहार) में छपी और अपने समाज के प्रबुद्ध लोगों तक पहुँची। इसी दौरान आंदोलनकारी छात्र नेताओं ने कहा - अगर कल को झारखण्ड राज्य मिलता है‚ तो पूरी व्यवस्था वही रहेगी जो बिहार में है। अर्थात मंत्री से लेकर संतरी तक‚ व्यूरोक्रेट से लेकर टेकनोक्रेट तक सभी व्यवस्था पूर्वत होगी। तब आदिवासी समाज को क्या मिलेगा‚ जो इस आन्दोलन में शामिल हैंॽ क्योंकि पढ़े-लिखे लोग तो कहीं भी नौकरी या व्यापार कर लेंगे‚ पर गांव के लोगों को या अनपढ़ लोगों को क्या मिलेगाॽ इस प्रश्न के उत्तर में आंदोलनकारी छात्र नेताओं का ही कहना था कि - आदिवासी समाज के पास उनकी अपनी भाषा है‚ संस्कृति है‚ अपना रीति रिवाज है। यदि हम इन धरोहरों को नहीं बचा पाये तो आन्दोलन बेकार है। संस्कृति को बचाने के लिए भाषा को बचाना होगा और भाषा को बचाने के लिये इन भाषाओं की पढ़ाई-लिखाई स्कूल एवं कालेजों में करानी होगी और इसे रोजगार से जोड़ना होगा‚ तभी भाषा-संस्कृति बचेगी। समाज एवं साहित्य में लगाव रखने वाले लोगों को भाषा के लिए एक नई लिपि विकसित करनी चाहिए। हमारा आन्दोलन एवं हम आन्दोलनकारी आदिवासी भाषा की लिपि विकास योजना में सभी‚ साथ है।
    एक तरह नई लिपि के विकास की परिकल्पना में नवजात पंख लगने लगे। इसी बीच अस्पताल में कार्य करते हुए मेरी नजर गर्भ–निरोधक गोली माला डी की पर्ची एवं 100 रूपये के नोट पर पड़ी। उसमें सभी सिडियूल लैंगवेज में एक ही बात को अलग-अलग तरीके से लिखा हुआ था। इसे देखकर मेरी परिकल्पना बलवती हो उठी और मेरी कल्पना की उड़ान को डैना मिल गया और मेरा अभियान बढ़ता गया और आगे बढ़ता ही गया। इस तरह वर्ष 1989 में नई लिपि का कार्य आरंभ हो गया।

4. लिपि विकास का आरंभ और अलग प्रांत आन्दोलन एवं आन्दोनकारी - 
    वर्ष 1989 में छपी मेरी छोटी सी पुस्तक ‘‘सरना समाज और उसका अस्तित्व’’ झारखण्ड के आन्दोलनकारियों तक पहुँची। इस पुस्तिका में उद्धृत तथ्यों पर गौर करते हुए आन्दोलनकारी छात्र नेता एवं ऑल झारखण्ड स्टूडेन्टस यूनियन (आजसू) के तत्कालीन अध्यक्ष श्री विनोद कुमार भगत ने कहा - आप डॉक्टर बनकर समाज और देश की सेवा कीजिएगा‚ साथ ही अपने परिवार का भी सेवा कीजिएगा। पर आदिवासी समाज की सेवा कौन करेगाॽ हम आन्दोलनकारी‚ आन्दोलन में हैं‚ समाज के सामने कई ज्वलंत प्रश्न है‚ जिसका उत्तर हम आन्दोलनकारियों के पास नहीं है। आदिवासी समाज को भाषा-संस्कृति के बचाव के लिए एक आधुनिक गुणों वाली लिपि की आवश्यकता है। समाज के लोगों को इसपर कार्य करना पड़ेगा। इस बातचीत के बाद मैं अपने साथियों के साथ लिपि विकास योजना में लग गया। नई लिपि विकासित करने हेतु निम्नांकित तरीके की योजना पर कार्य किया गया -
(क) सर्वप्रथम मूल ध्वनियों का संकलन किया गया।
(ख) लिपि चिन्ह हेतु अल्ग–अलग संकेतों का संकलन किया गया। फिर ....
(ग) वर्णमाला का निर्धारण किया गया।                       
यहाँ तक आने में अनेक बाधाएँ आयीं। जैसे – 
1. कलम के घुमाव की दिशा क्या होॽ
2. लिपि चिन्होंा का चुनाव किस प्रकार होॽ 
3. वर्ण या अक्षर‚ sitting हो या suspending ॽ 
4. लिपि Alphabetic (वर्णात्मक) हो या Syllablic (अक्षरात्मक)ॽ
5. अक्षर का नाम और ध्वनि मान‚ देवनागरी की तरह एक हो या अंगरेजी तथा 
   उर्दू की तरह अलग-अलगॽ 
6. संयुक्ता क्षर के लिए अलग से लिपि चिन्हक रखे जाएं या नहींॽ 
7. लिपि चिन्हों् की संख्यार कितनी होॽ आदि – – – आदि। 
    अंत में सामाजिक निर्णय के आधार पर - आदिवासी परम्प रा‚ संस्कृति एवं ध्व नि विज्ञान के सिद्धांतों के आधार पर वर्णमाला को अनुक्रमित किया गया। 
5. तोलोंग सिकि का आधार -
    इस लिपि का आधार पूर्वजों द्वारा संरक्षित‚ प्रकृतिवादी सिद्धांत है। हवा का बवण्डर (बईरबण्डो)‚ समुद्र का चक्रवात‚ अधिकांश लताओं का चढ़ना आदि प्राकृतिक चीजें‚ घड़ी की विपरीत दिशा में सम्पन्न होती है। प्रकृति के इन रहस्यों को‚ आदिवासी पूर्वजों ने अपने जीवन में उतारा और जन्म से लेकर मृत्यु तक के अनुष्ठान‚ घड़ी की विपरीत दिशा में सम्पन्न करने लगे। हल चलाना‚ जता चलाना‚ छिरका रोटी पकाना‚ अभिवादन करना‚ नृत्य करना‚ चाःला अयंग थान का पूजा पद्धति‚ देबी अयंग थान का पूजा विधि‚ डण्डा कट्टना अनुष्ठान आदि क्रियाएँ घड़ी की विपरीत दिशा में सम्पगन्नक होती है। खगोलीय तथ्य है कि संसार में‚ अधिक से अधिक प्राकृतिक घटनाएँ घड़ी की विपरीत दिशा में ही सम्पन्न होती है। ब्रह्मांड में पृथ्वी द्वारा सूर्य के चारों ओर घड़ी की विपरीत दिशा में परिक्रमा किये जाने से प्रकृति के सभी क्रिया-कलाप इससे प्रभावित होती हैं। इन प्राकृतिक क्रिया-कलापों एवं सामाजिक सह सांस्कृतिक अवदानों को आदिवासी पोशाक तोलोङ की कलाकृति से जोड़कर‚ भाषाविज्ञान के सिद्धांत पर यह लिपि स्थापित है।
6. लिपि का आरंभिक स्वरूप में समाज को लोकार्पण - 
    लगभग 3 साल की मेहनत के बाद एक वर्णमाला तैयार हुआ‚ जिसे राँची कॉलेज‚ राँची के सभागार में हुए करम पूर्व संध्या समारोह 1993 में प्रदर्शनी हेतु रखा गया। उसके बाद वर्ष 18 से 24 फरवरी 1994 में हुए हिजला मेला‚ दुमका में प्रदर्शनी के लिए रखा गया। फिर 1996 में सेन्टरल इंस्टिच्यूट ऑफ इंडियन लैंगवेज‚ मैसूर के प्रोफेसर डॉ0 फ्रांसिस एक्का से पटना में मुलाकात कर उनसे दिशा निर्देश प्राप्त किया गया। डॉ0 एक्का से मार्ग दर्शन मिलने के बाद एक पुस्तक लिखी गई‚ जिसका नाम है - ‘‘ग्राफिक्स ऑफ तोलोंग सिकि’’। इस पुस्तक का लोकापर्ण‚ 05 मई 1997 में हुआ। यहाँ मुख्य अतिथि‚ प्रभात खबर के मुख्य संपादक श्री हरिवंश जी थे तथा मुख्य वक्ता पूर्व कुलपति डॉ0 रामदयाल मुण्डा जी थे। श्री हरिवंश जी‚ जो वर्तमान में राज्यसभा के उपसभापति हैं ने कहा - सूचना प्राद्यौगिकी का आकलन है कि पूर्व में 16000 भाषाएँ बोली जाती थीं जो घटकर 6000 रह गई हैं। भाषा संरक्षण के लिए किया जाने वाला आज का दिन इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। मुख्य वक्ता डॉ0 मुण्डा ने कहा - भारत देश को फूल का गुलदस्ता कहा जाता है जिसमें सभी तरह के फूल होते हैं‚ उन फूलों में से हमलोगों का गुलैची और गेंदा फूल कहाँ है‚ उसको खोजने का कार्य किया जा रहा है। अतएव नई लिपि समाज एवं संस्कृति आधारित हो और भाषा विज्ञान सम्मत हो। उन्होंने भाषा विज्ञान के तथ्यों को विस्तार पूर्वक बतलाया। उसके बाद कार्य में गति बढ़ने लगा और अवरोध घटता गया। फिर जनवरी 1998 में भाषाविद डॉ0 एक्का‚ राँची आये हुए थे। हमलोग‚ डॉ0 रामदयाल मुण्डा‚ डॉ0 निर्मल मिंज‚ फादर प्रताप टोप्पो आदि को साथ लेकर डॉ0 एक्का से मिले। दो दिन विचार-विमर्श के बाद निर्णय हुआ - आदिवासी समाज को एक नई लिपि की आवश्यकता है। नई लिपि सामाजिक एवं सांस्कृतिक आधार वाली हो तथा तकनीकि संगत (कम्पटिबल) हो। इसके बाद लिपि विकास में शिक्षाविद भी जुड़ने लगे और 15 मई 1999 को पूर्व कुलपति डॉ0 रामदयाल मुण्डा एवं पूर्व कुलपति डॉ0 इन्दु धान द्वारा संयुक्त रूप से तोलोंग लिकि लिपि को समाज के व्यवहार के लिए लोकार्पित किया गया। उसके बाद लोग‚ समाज द्वारा संचालित विद्यालयों में पढ़ाई-लिखाई करने लगे।  
7. तोलोंग सिकि (लिपि) का कम्प्यूटर फॉन्ट केलितोलोंग का विकास - 
    इस कार्य में समाज के कई लोग आगे आये। वर्ष 2002 में कम्प्यूटर फॉन्ट विकसित किया जाना सचमुच बड़ी उपलब्धि है। इस कड़ी में झारखण्ड निवासी‚ पेशे से पत्रकार श्री किसलय जी ने अपने लगन और जुनून से एक असंभव से कार्य को संभव किया और नवम्बर 2002 में प्रथम संस्करण निःशुल्क लोकार्पित किया गया। इसका परिष्कृमत संस्करण 2017 में लोकार्पित हुआ। यह फॉन्ट का कीबोर्ड प्लानिंग डॉ. नारायण उरांव एवं किसलय जी ने मिलकर तय किया। फिर इसे यूजर्स के व्यवहार एवं समझ पर रिभाइज किया गया। लिपि चिन्हों के साथ यूजर्स के सलाह पर भी ध्यान दिया गया। इस फॉन्टह का नाम kellytolong है और यह फॉन्ट kurukhtimes.com एवं tolongsiki.com पर निशुल्क उपलब्ध है। इस संबंध में किसलय जी की जुबानी‚ कुंड़ुख़ पत्रिका बक्कहुही‚ अंक 6‚ जनवरी-मार्च 2018 पढ़ें। 
8. लिपि विकास को विद्यालय से जोड़ना अर्थात पढ़ाई-लिखाई में शामिल करना - 
    यह सबसे कठिन घड़ी थी। पर समाज के लोगों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और कारवाँ बढ़ता गया। कई लोग ग्रामीण स्तर पर छोटे-छोटे स्कूल चलाने लगे हैं। इनमें से एक नाम है - डॉ0 जेफ्रेनियुस बखला उर्फ डॉ0 एतवा उराँव‚ जिन्होंने कुँड़ुख़-अंगरेजी मिडियम स्कूल आरंभ किया और वर्ष 2009 में वहाँ के छात्र‚ कुँड़ुख़ भाषा विषय की परीक्षा तोलोंग सिकि लिपि में ही लिखे। इसी तरह सिसई (गुमला) थाना क्षेत्र में 5 – 7 गाँव के लोग मिलकर एक हाई स्कूल चला रहे हैं। यहाँ वे हिन्दी‚ अंगरेजी और कुँड़ुख़ भाषा पढ़ाया जाता है। अब इन क्षेत्रों में एक होड़ लगी हुई है कि वे अपने बच्चों को भाषायी स्कूल भेजा करेंगे। परम्पारिक पाठशाला धुमकुड़िया का पुनर्गठन किया जा रहा है। यहाँ बच्चे भाषा‚ संस्कृति के साथ लिखना-पढ़ना भी सीखते हैं। वैसे झारखण्ड के राँची विश्वविद्यालय‚ राँची में बी.ए.‚ एम.ए. एवं पीएच.डी. आदिवासी भाषा विषय में किये जा रहे हैं‚ पर तोलोंग सिकि के विकास के संदर्भ में जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग अबतक खामोश है। वैसे इस लिपि के विकास में जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के पूर्व विभागाध्यतक्ष डॉ. रादयाल मुण्डाद जी का योगदान अतुलनीय है। वर्तमान में जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग की चुप्पी  चिंतणीय है। हो सकता है वहां के यू.जी.सी. के मार्ग दर्शन का इंतजार किया जा रहा हो। कुँड़ुख़ समाज को विश्वविद्यालय एवं जनजातीय भाषा विभाग के निर्णय का इंतजार है। इधर केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकार ने नई शिक्षा नीति 2020‚ आने वाले 2022 से आरंभ करने जा रही है जिसके तहत 1 से 5 तक मातृभाषा के माध्यम से प्राथमिक शिक्षा दिया जाना है। सरकार का यह निर्णय आदिवासी समाज के लिए स्वागत योग्य है।
9. लिपि की झारखण्ड  सरकार से मान्यता - 
    यह भी एक कठिन चुनौती थी‚ पर सरकार में बैठे लोगों का साथ मिला। वर्ष 2003 में झारखण्डख के मुख्यमंत्री श्री बाबूलाल मराण्डी जी थे। उन दिनों राज्यह सरकार की ओर से आदिवासी समाज के मांग पर संताली भाषा की लिपि ओल सिकि‚ हो भाषाकी लिपि वरांग चिति तथा कुंड़ुख़ (उराँव) भाषा की लिपि तोलोंग सिकि के रूप में स्वीकृति मिली। इसी के आधार पर वर्ष 2009 में कुँड़ुख़-अंगरेजी मिडियम स्कूल लुरडिप्पा‚ डुमरी‚ गुमला के विद्यार्थियों को कुड़ुख़ भाषा की मैट्रिक परीक्षा तोलोंग संताली भाषा की लिपि ओल चिकि‚ हो भाषा की लिपि वरांग चिति तथा कुँड़ुख़ तोलोंग सिकि में लिखने की अनुमति मिली। उसके बाद सामाजिक मांग पर सामान्य रूप से सभी स्कूलों में 2016 से परीक्षा लिखने की अनुमति मिली। इस चुनौती में तत्कालीन झारखण्ड विधान सभा के अध्यक्ष डॉ0 दिनेश उराँव का सराहणीय योगदान रहा। कुँड़ुख़ (उराँव) भाषा को अप्रैल 2018 में पश्चिम बंगाल सरकार ने 8 वीं सरकारी भाषा घोषित किये जाने का अधिसूचना जारी किया है।
10.  तोलोंग सिकि से संबंधित पाठकों के लिए प्रकाशित पुस्तकें -
क) कइलगा (कक्षा 1 के लिए)  - प्रकाशक : सत्य भारती‚ रांची। 
ख) कुँड़ुख़ कत्थअईन अरा पिंजसोर – प्रकाशक : सत्य भारती‚ रांची।
ग) कुँड़ुख़ हहस अरा सिकिजुमा – प्रकाशक : सत्य भारती‚ रांची।
घ) पुना चन्ददो (कक्षा 1 के लिए) - झारखण्ड सरकार‚ कल्याण विभाग।  
ङ) पुना तुङुल (कक्षा 1 के लिए) – प्रकाशक : झारखण्ड झरोखा‚ रांची।
च) पुना बीनको (भाग 2 / कक्षा 2 के लिए) – प्रकाशक : झारखण्ड झरोखा‚ रांची।
छ) पुना बीनको (भाग 3 / कक्षा 3 के लिए) – प्रकाशक : झारखण्ड झरोखा‚ रांची।
ज) पुना बीनको (भाग 4 / कक्षा 4 के लिए) – प्रकाशक : झारखण्ड झरोखा‚ रांची। 
झ) पुना बीनको (भाग 5 / कक्षा 5 के लिए) - प्रकाशक: झारखण्ड झरोखा‚ रांची।
ञ) ईन्नलता कुँड़ुख़ कत्थअईन – प्रकाशक : झारखण्ड झरोखा‚ रांची।
ट) फग्गु चन्ददो (कक्षा 9‚ देवनागरी में) – प्रकाशक : झारखण्ड झरोखा‚ रांची।
ठ) ख़द्दी चन्ददो (कक्षा 10‚ देवनागरी में) – प्रकाशक : झारखण्ड झरोखा‚ रांची।
ड) ख़द्दी चन्ददो (कक्षा 10‚ तोलोंग सिकि में) - प्रकाशक: सत्य भारती‚ रांची। 
ढ) चींचो डण्डी अरा ख़ीरी (तोलोंग सिकि में) - प्रकाशक : नव झारखण्ड प्रकाशन। रांची।
ण) तोलोंग सिकि का उद्भव एवं विकास –प्रकाशक : नव झारखण्ड प्रकाशन‚रांची। 
11. कुँड़ुख़ भाषा एवं तोलोंग सिकि की पढ़ाई इन विद्यालयों में हो रही है –
क) कुँड़ुख़ कत्थ खोंड़हा लूरएड़पा‚ लूरडिप्पा‚ भगीटोली‚ डुमरी‚ गुमला।
ख) जतरा टाना भगत विद्या मंदिर‚ बिशुनपुर‚ घाघरा‚ गुमला।
ग) कार्तिक उरांव आदिवासी बाल विकास विद्यालय‚ रातू‚ रांची।
घ) कार्तिक उरांव आदिवासी कुंड़ुख़ विद्यालय‚ मंगलो‚ सिसई‚ गुमला।
ङ) कार्तिक उरांव आदिवासी कुंड़ुख़ विद्यालय‚ छारदा‚ सिसई‚ गुमला।
च) कार्तिक उरांव आदिवासी कुंड़ुख़ विद्यालय‚ निजमा‚ गुमला।
छ) बुधूबीर लूरकुड़िया‚ मेरले‚ किसको‚ लोहरदगा।
ज) बीर बुधूभगत कुड़ुख़ लूरकुड़िया‚ सैन्दा‚ सिसई‚ गुमला।
झ) प्रस्तावित कुड़ुख़ लूरकुड़िया‚ शिवनाथपुर‚ सिसई‚ गुमला।
ञ) सात पड़हा कुड़ुख़ लूरकुड़िया‚ पलमी‚ भंडरा‚ लोहरदगा।
ट) कार्तिक उराँव लूरकुड़िया‚ जोंजरो नामनगर‚ कुड़ु‚ लोहरदगा
ठ) जय सरना लूरकुड़िया‚ देवाकी‚ घाघरा‚ गुमला।
ड) अयंग शिक्षा निकेतन‚ गुड़गुड़जाड़ी‚ माण्डर‚ राँची।
ढ) जोहार विद्या विद्यालय‚ झटनी टोली‚ सिसई‚ गुमला।    
ण) लिटिबीर कुँड़ुख़ एकेडमी‚ पुटो-तिलसिरी‚ घाघरा‚ गुमला। 
त) बी.के.इंडिज्नस एकेडमी‚ ओप्पा‚ कुड़ु‚ चान्हो‚ लोहरदगा।    
12. वर्तमान समय की नई लिपि को लोकप्रिय बनाने हेतु आवश्यचक उपाय :– 
(क) कुड़ुख़ भाषी क्षेत्रों में 1–12 तक त्रि‍भाषा फॉरमुला पर कुँड़ुख़ भाषा एवं तोलोङ सिकि‚ स्कूल पाठ्क्रम में शामिल किया जाना चाहिए। साथ ही शिक्षकों की बहाली एवं प्रशिक्षण हो तथा पाठ्य पुस्तक छपवाया कर वितरण हो। राज्य सरकार इन कार्यों में मदद करे।
(ख) विश्वविद्यालय स्तर पर कुँड़ुख़ भाषा की पढ़ाई के पाठ्क्रम में तोलोङ सिकि लिपि भी शामिल हो तथा अग्रेतर शोध प्रबंध हो।
(ग) मासिक पत्रिका का प्रकाशन हो तथा छोटी-छोटी डॉक्यूमेंटरी फिल्में बने। राज्य सरकार इसमें मदद करे।
(घ) जल्द ही यूनिकोड विकसित हो‚ जिससे उपयोक्ता अपनी भाषा को अपने मोबाइल में व्यवहार कर सकें। सरकार इन कार्यों को प्रोत्साहित करे 

(³) वेब वर्जन पर कार्य हो। इस कार्य में सरकार मदद करे। अबतक सामाजिक प्रयास से kurukhtimes.com नामक वेब पत्रि‍का 1 वर्ष से चलाया जा रहा है तथा tolongsiki.com नामक वेबसाइट उपयोक्ता ओं के लिए उपलब्धस है। 

डॉ नारायण उरांव

डॉ0 नारायण उराँव ‘सैन्दा’

–   लेखक एम.जी.एम.एम.सी.एच.जमशेदपुर, पूर्वी सिहभूम (झारखण्ड) में पदस्‍थापित हैं।
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