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छिन्न-भिन्न होती आदिवासियत

“आदिवासियत” शब्द का मतलब आदिवासी जीवनशैली, संस्कृति, परंपराओं, और जीवन मूल्यों से है जिसे आदिवासी समुदय अपने आत्मीयता में संरक्षित रखते हैं। यह उन समुदायों की पहचान और धरोहर को संदर्भित करता है जो प्राचीन काल से अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक और सामाजिक संरचनाओं के साथ जुड़े हुए हैं। 
यूनेस्को (UNESCO) के अनुसार  आदिवासियत को निम्नलिखित बिन्दुओं से परिभाषित कर सकते हैं:
1.    सांस्कृतिक धरोहर: आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक धरोहर में उनके रिवाज, त्योहार, पारंपरिक नृत्य, संगीत, और कला शामिल हैं। यह धरोहर उनके धार्मिक विश्वासों, मिथकों, और पारंपरिक ज्ञान में भी परिलक्षित होती है।
2.    भाषा और साहित्य: आदिवासी भाषाएँ और साहित्य उनकी सांस्कृतिक पहचान के महत्वपूर्ण घटक हैं। यह भाषाएँ और बोली अलग-अलग समुदायों में विविधता लिए हुए हैं। भाषा उनकी विशेष पहचान और समृद्धता का स्रोत होती है।
3.    पारंपरिक ज्ञान और प्रथाएँ: आदिवासियों के पास पर्यावरण, चिकित्सा, कृषि, और वनोपज के क्षेत्र में समृद्ध पारंपरिक ज्ञान होता है, जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी संजोया जाता है। यह ज्ञान उनकी आजीविका और जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा है।
4.    सामाजिक संरचना: आदिवासी समाज में सामाजिक संरचनाएँ आमतौर पर सामूहिकता, समानता और सहभागिता पर आधारित होती हैं। इनके समाज में समुदाय की भलाई को प्राथमिकता दी जाती है। आदिवासी समुदाय अक्सर अपनी आत्मनिर्भरता में विश्वास रखते हैं और समुदायी उत्पादन, जैसे कि खेती, शिकार और पशुपालन पर निर्भर करते हैं।
5.    पर्यावरणीय जुड़ाव: आदिवासी लोग आमतौर पर प्रकृति के साथ गहरे संबंध रखते हैं और उनके जीवन में पर्यावरण का महत्वपूर्ण स्थान होता है। प्रकृति से उनका एक अटूट रिश्ता और समन्वय रहता है। वह प्रकृति का मालिक नहीं पर सहभागी होता है। इसके साथ उसका सम्बन्ध सह-अस्तित्व और सहजीविता का होता है। उनकी गोत्र, प्रथाएँ और मान्यताएँ पर्यावरण की रक्षा और संतुलन को ध्यान में रखकर बनाई गई होती हैं। 
6.    रूढ़िवादी व्यवस्था: आदिवासी समाज रूढ़िवादी व्यवस्था का समर्थन करती है जो कि सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों के बजाय संरक्षणवाद का समर्थन करती है।
इसी आदिवासियत से ही आदिवासी समाज एक दूसरे के क़रीब जुड़ा रहता है और हजारों वरसों से इस पृथ्वी पर अपना वज़ूद बचा कर अस्तित्व में है तथा जल, जंगल और ज़मीन को संरक्षित रखने का प्रयास कर रहा है। इसे अक्षुण रखने के लिये ही हमारे वीर पूर्वजों ने जैसे बिरसा भगवान, वीर बुधु भगत, सिद्धु कान्हों, फूलो झानो, जतरा टाना भगत इत्यादियों के अगुवाई में हजारों आदिवासियों ने ब्रिटिश हुकुमत से लोहा लिया और अपने प्राण की आहुति दे दी।    
आज के सन्दर्भ में आदिवासियत; कुँड़ुख़ आदिवासियों में:
ऐसे तो कुँड़ुख़ या तो ऊराँव समाज में आज भी समानता है एवं अन्य समाज की तरह ऊँच नीच या तो अमीरी ग़रीबी का भेदभाव नहीं होता है। आदिकाल में कुँड़ुख़ समाज का, अन्य समाज से दूर पहाड़ पर्वत व नदी नालों के बीच छोटे छोटे गाँवों एवं कस्बों में सामुदायिक जीवन प्रणाली होता था और वो मुख्यतः खेती बारी, पशुपालन या शिकार के द्वारा जीवन यापन करता था। अतः, समतावादी व्यवस्था, उनके लिये बाध्यता रही होगी, और ये उनके सामाजिक जीवन का एक अभिन्न अंग हो गया होगा। समाज एवं गाँव में सभों का जन्म कर्म, लालन पालन, भरण पोषण, नाचना गाना इत्यादि एक ही परिवेश में होता होगा, अतः उनमें ज़िन्दगी के जीवन दर्शन को समझने में एक रूपता थी चूँकि उनके जीवन शैली में बाहरी लोगों का प्रभाव बहुत् कम या नहीं के बराबर होता होगा। अतः वह बाहरी संस्कृतियों से दूर रहने के कारण अपनी आदिवासियत को अक्षुण रख पाया और अपने अस्तित्व को भी सजों के रख पाया।
परन्तु, आज के इस बदले हुए परिवेश में, खास करके अंग्रेजों के आगमन के तत्पश्चात्, शाशन व्यवस्था परिवर्तन, राजतंत्र से गणतंत्र, उनके सामाजिक जीवन में बाहरी लोगों के संपर्क में आने से, उनके भाषा-संस्कृति और पहिरावे पर निरंतर अतिक्रमण एवं तिरस्कार से वे हीन भावना से ग्रसित हो गये और उनके सामुदायिक जीवन प्रणाली में भी बाहरी भाषा-संस्कृति का धीरे धीरे आत्मसात् शुरू हुआ। फिर आधुनिक स्कूली शिक्षा के प्रारम्भ होने के तत्पश्चात् तथा ग्लोबलाइज़ेशन के कारण चारों ओर से आदिवासियों के भाषा, संस्कृति, धर्म, रोजगार, राजनीति इत्यादि पर अतिक्रमण होने के कारण, उनके जीवन मूल्य और जीवन दर्शन में बहुत ही ज्यादे भिन्नता देखने को मिल रहा है। अतः कुँड़ुख़ समाज भी इस आधुनिकता और ग्लोबलीकरण के अतिक्रमण से अछुता नहीं है, और अन्य आदिवासी समाज की तरह ही उनकी आदिवासियत भी क्षीण हो रही है। उनकी छिन्न भिन्न होती आदिवासियत, निम्न मुख्य कारणों से हो रहा है :
1.    संक्रमण और समुदायिक असंतुलन: ग्लोबलीकरण के कारण आदिवासी समुदायों में बाहरी संस्कृतियों और उन्हें मुख्य धारा में जोड़ने के प्रयास के प्रभाव का भी सामना करना पड़ रहा है। इससे समुदायिक संतुलन पर प्रभाव पड़ रहा है और आदिवासी भावनाओं और संस्कृति को खतरे में डाल रहा है।
2.    भौतिक परिवर्तन और अभिव्याक्ति के स्थानों की हानि: वन्य जीवन की हानि, जलवायु परिवर्तन और भौतिक परिवर्तन स्थानीय आदिवासी समुदायों को उनके ऐतिहासिक और धार्मिक स्थलों की क्षति वा लुप्त हो रही है, जिससे उनकी आदिवासियत सहेजने की क्षमता प्रभावित हो रही है।
3.    शिक्षा और सम्प्रदायिक ज्ञान की कमी: आधुनिकीकरण के समय में, बच्चों को उनकी अपनी भासा में शिक्षा दीक्षा से वंचित रखने से आदिवासी समुदायों की पारंपरिक ज्ञान प्राप्ति में कठिनाई हो रही है। इससे आदिवासी संस्कृति और विरासत का संरक्षण करने की क्षमता कमजोर हो रही है। पुरानी शिक्षा नीति जैसे धूमकुड़िया, पड़हा व्यवस्था इत्यादि के समाप्त होने के कारण, उन्हें उनका पारंपरिक ज्ञान नहीं मिल पा रहा है जिससे उन्हें अपने आदिवासी जीवन दर्शन एवं जीवन मूल्यों का आत्मसात नहीं हो पा रहा है।
4.    राजनीतिक और सामाजिक प्रतिबंध: कई बार सरकारी नीतियाँ और सामाजिक प्रतिबंध आदिवासी समुदायों के संस्कृति और जीवनशैली को प्रभावित कर रही हैं। इससे उनके आदिवासी भावनाओं की समृद्धता और सहेजने की क्षमता पर असर पड़ रहा है। 
5.    संसाधनों की अव्यवस्था: आदिवासी समुदायों के लिए स्वाभाविक संसाधनों की अव्यवस्था और उनके पहुँच की कठिनाई से संरक्षण नहीं हो पा रहा है।
6.    धर्म परिवर्तन : आदिवासियों के धर्म परिवर्तन आर्थिक और सामाजिक दबाव, शिक्षा एवं विकास, सांस्कृतिक परिवर्तन तथा आधुनिकीकरण इत्यादि के प्रभाव से हो रहा है जिससे उनकी जीवन शैली, जीवन दर्शन और जीवन मूल्यों को उसी धर्म के अनुसार ही  आत्मसात् कर रहे हैं अतः हमारी संस्कृति में बदलाव देखने को मिल रहा है। इन प्रमुख कारणों के अलावा, विभिन्न स्थानीय, राजनीतिक और सामाजिक प्रक्रियाओं के अंतर्गत भी धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया हो रही है। आजादी के पहले तक, ब्रिटिश शासन काल में, जनगणना के कॉलम में भी आदिवासियों का एक विशिष्ट और पृथक धर्म कॉलम होता था जिससे वो अपनी अलग पहचान दर्ज करा सकता था और गौरावनिवीत महसूस करता था। परंतु आजादी के उपरांत, तब की शासन ब्यवस्था, इसे अलग कॉलम देना ग़ैरजरूरी समझा।
7.    पेशा परिवर्तन : बढ़ती आबादी, सरकार की नीति और परंपरागत खेती बारी और पशुपालन इत्यादि में कष्टदायक जीवन व अलाभकारी होने के कारण लोग शिक्षित होने के तदुपरांत अच्छे जीवन व्यतीत करने के लिए नौकरी पेशा या अन्य व्यवसाय अपना रहे हैं जिससे उनके परंपरागत सामुदायिक जीवन शैली में परिवर्तन हो रहा है। आजकल तो आदिवासी युवक युवतियाँ, गाँव से खेती बाड़ी का काम को त्यागकर शहर में कुल्ली कबाड़ी, रेजा और आया काम करने में भी गर्व महसूस कर रहे हैं। और इस कारण एसई भी उनकी आदिवासियत क्षीण हों रही है।
8.    सोशल मीडिया : आजकल, मोबाईल फोन ज़िन्दगी का एक अभिन्न अंग हो गया है, पर इसकी जरूरतों के साथ ही इसमें आसानी से उपलब्ध अन्य समुदायों की संस्कृति बच्चों को उनकी ओर प्रलोभन और अकर्सित करते हैं और उसे वे आत्मसात् कर रहे हैं।
9.    अंतरजातीय विवाह: आज कल उच्च शिक्षा और नौकरी पेशा इत्यादि के लिये गाँव से निकल कर शहर में जीवन यापन कर रहे हैं, जहाँ वे अन्य जातियों के संपर्क में आते हैं और शादी के सूत्र में बंध जाते हैं जिससे वो अपनी भाषा और संस्कृति को बरकरार नहीं रख पाते हैं।
                                                                                   
10.    डेमोग्राफिक बदलाव: प्रशासन ने हमें और राज्यों की तरह, आदिवासी समाज को एक अलग राज्य नहीं दिया जिससे, बाहरी लोग भी रोजगार और जीविका के लिए आदिवासी क्षेत्र में आकर बसने लगे तथा वे लोग भी अपने साथ अपनी भाषा और संस्कृति को साथ में लेकर आये और हमारी आदिवासी भाषा संस्कृति उनका सामना नहीं कर पायी और बौनी साबित हुई। खास करके जहां जहां औद्योगिकरण ज़्यादा हुआ वहाँ सबसे ज्यादे बाहरी लोग आकर बस गये और इन जगहों पर सबसे अधिक आदिवासियत खत्म हुई। अतः हम बाहरी भाषा संस्कृति के प्रभाव में आकर उसे अपनाने लगे और इससे भी हमारी भाषा संस्कृति क्षीण हो रही है।
11.    हीन भावना से ग्रस्त: बाहरी लोगों ने हमें हमेशा से जंगली, अविकसित, असभ्य और हमारी पहिरावा, बोली और बर्ताव का मजाक बनाया, तिरस्कृत किया जिससे हम हीन भावना से ग्रसित होते चले गये और हमने बाहरी भाषा संस्कृति को ज्यादा तरजीह देना उचित समझा। अतः अपनी नासमझ के कारण अपनी ही भाषा संस्कृति को हमने परित्याग करना शुरू कर दिया।
12.    कुँड़ुख़ समाज में अवधारणा: गाँव में ऊराँव समाज की जीवन पद्धति में समानता रहता है चूँकि उनका आर्थिक स्तिथि और पेशा एक बराबर होता है। परंतु वही गाँव से लोग जब दूर शहर में नौकरी पेशा या रोजगार में चले जाते हैं तथा शहर में ही अन्य समाज के लोगों के साथ जीवन यापन करते हैं तो उनके रोजमर्रा की जीवन पद्धति में काफ़ी बदलाव होता है तथा उनकी आर्थिक स्तिथि भी पहले से अच्छी हो जाती है और अपना जीवन स्तर अपने शहरी पड़ोसियों के बराबर ही बनाये रखने की भी बाध्यता महसूस होती है। अतः इस नये परिवेश में, वो गाँव वालों से अपने शहरी जीवन स्तर के अनुसार ही एक आदर सम्मान की आशा करता है। साथ में उनके गाँव घर के लोग भी उनकी आर्थिक स्तिथि और जीवन स्तर को देखकर कुछ आर्थिक मदद की अपेक्षा करते हैं ताकि उनका जीवन स्तर भी उन्हीं के बराबर रहे। इससे उनका गाँव घर जाने का सिलसिला कम होने लगता है और इस तरह से उनके बच्चे अपनी भाषा संस्कृति से वंचित हो जाते हैं।
13.    स्वशासित ब्योस्था : सरकारी कोर्ट कछाइरी के आ जाने से भी धीरे धीरे अपना पंच और पड़हा ब्योस्था को छोडकर फैसले के लिये कोर्ट की ओर रुख करने लगे हैं।
उपरोक्त कोई भी कारणों से या कई सारे कारणों के परिणाम स्वरूप और या कुछ अन्य कारणों से भी आजकल आदिवासी सामूदायों में भाषा, पहिरावा, अचार विचार, जीवन मूल्य, धार्मिक आस्था और जीवन दर्शन या यों कहें उनकी संस्कृति में भिन्नता देखने को मिल रहा है। अतः, यद्यपि हम सब हैं तो एक ही समाज से, पर उपरोक्त कारणों से यहाँ तक कि आदिवासी शब्द में भी शायद स्पष्टतापूर्वक एकरूपता की कमी है, या ये बोलें हमारी आदिवासियत ही धीरे धीरे क्षीण होती जा रही है।
छिन्न भिन्न होती आदिवासियत के दुष्परिणाम:
आदिवासियत का छिन्न-भिन्न होना आदिवासी समुदायों के लिए कई गंभीर दुष्परिणाम ला रहा है। ये परिणाम सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय दृष्टिकोण से हानिकारक हो रहे हैं। कुछ प्रमुख दुष्परिणाम के उल्लेख निम्नलिखित हैं:
1. सांस्कृतिक क्षति:
•    पारंपरिक ज्ञान और भाषा का ह्रास: आदिवासी समुदायों की भाषाएँ और पारंपरिक ज्ञान खत्म हो रहे हैं, जो पीढ़ियों से चली आ रही है।
•    रिवाज और परंपराओं का विनाश: त्योहार, नृत्य, संगीत और अन्य सांस्कृतिक गतिविधियाँ धीरे-धीरे समाप्त हो रही हैं, जिससे सांस्कृतिक पहचान खो रही है।
2. सामाजिक अस्थिरता:
•    सामाजिक संरचना का विघटन: समुदायों के बीच पारंपरिक सामाजिक बंधनों और प्रणालियों का कमजोर होना भी शामिल है, जिससे सामाजिक अस्थिरता बढ़ रही है।
•    सामाजिक बहिष्कार: मुख्यधारा की संस्कृति में घुलने-मिलने के प्रयास में, कई बार आदिवासी लोग अपनी जड़ों से कट रहे हैं और सामाजिक बहिष्कार का सामना कर रहे हैं।
3. आर्थिक समस्याएं:
•    आजीविका का नुकसान: पारंपरिक खेती, शिकार और वनोपज पर आधारित आजीविका के साधनों का नुकसान, जिससे आर्थिक कठिनाइयाँ बढ़ रही हैं।
•    भूमि और संसाधनों का अधिग्रहण: औद्योगिकीकरण और विकास परियोजनाओं के कारण आदिवासियों की भूमि और प्राकृतिक संसाधनों का अधिग्रहण, जिससे उनका जीवनयापन मुश्किल होता जा रहा है।
4. पर्यावरणीय प्रभाव:
•    वन्य जीवन और पारिस्थितिकी का विनाश: आदिवासी क्षेत्रों में वनों की कटाई और खनन जैसी गतिविधियाँ, जिससे पर्यावरणीय असंतुलन और जैव विविधता का नुकसान हो रहा है।
•    जलवायु परिवर्तन: पारंपरिक पर्यावरणीय ज्ञान का ह्रास, जिससे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने की क्षमता कम हो रही है।
5. मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य:
•    मानसिक तनाव: सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान के क्षरण के कारण आदिवासी समुदायों में मानसिक तनाव और अवसाद की समस्याएँ बढ़ रही हैं।
•    स्वास्थ्य सेवाओं की कमी: पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों का ह्रास और आधुनिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच की कमी, जिससे स्वास्थ्य समस्याएँ बढ़ रही हैं।
6. राजनीतिक और अधिकारों का हनन:
•    राजनीतिक प्रतिनिधित्व की कमी: आदिवासी समुदायों की आवाज और प्रतिनिधित्व कम हो जाता है, जिससे उनकी समस्याएँ और अधिक उपेक्षित हो रही हैं।
•    मानवाधिकारों का उल्लंघन: भूमि और संसाधनों के अधिग्रहण में मानवाधिकारों का उल्लंघन, जिसमें हिंसा और विस्थापन हो रहे हैं। अतः आदिवासी समाज का बेदखल हो रहा है जिससे कि शहरी क्षेत्रों में डेमोग्राफिक परिवर्तन हो रहा है।
इन दुष्परिणामों को रोकने के लिए आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक और सामाजिक संरचनाओं की सुरक्षा और संवर्धन, आर्थिक सहायता और विकास, और उनके अधिकारों की रक्षा करने की आवश्यकता है। सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों में समावेशिता और पारदर्शिता सुनिश्चित करने से इन समुदायों के सशक्तिकरण में सहायता मिल सकती है।
आदिवासियत सहेजने की जरूरत एवं उपाय:
आदिवासियत को सहेजने की आवश्यकता कई कारणों से महत्वपूर्ण है, जैसे कि i) यह वैश्विक सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है, ii) यह सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है और iii) पारंपरिक ज्ञान और प्रथाएँ पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास में सहायक हो सकती हैं। यहाँ कुछ उपाय और कदम दिया जा रहा है जिनसे आदिवासियत को संरक्षित किया जा सकता है:
1. सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा:
भाषा संरक्षण:
•    आदिवासी भाषाओं की शिक्षा और प्रचार-प्रसार को बढ़ावा देना। स्कूलों में मातृभाषा में शिक्षा की व्यवस्था करना।
•    भाषाई दस्तावेज़ीकरण और अनुवाद परियोजनाओं को समर्थन देना।
परंपराओं और त्योहारों का संरक्षण:
•    स्थानीय त्योहारों, नृत्य, संगीत और अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों को प्रोत्साहन देना।
•    सांस्कृतिक केंद्रों और संग्रहालयों की स्थापना करना, जहाँ आदिवासी कला और इतिहास को प्रदर्शित किया जा सके।
2. आदिवासियों के धर्म की पहचान एवं संरक्षण: 
आजादी के पहले की तरह ही, जनगणना के कॉलम में आदिवासियों का एक विशिष्ट और पृथक कॉलम होना चाहिये जिससे कि उसकी अपनी अस्मिता हो और वो अपने धर्म और विश्वास को गर्व से अक्षुण रख सके।
3. आर्थिक सशक्तिकरण:
आजिविका के साधनों का विकास:
•    पारंपरिक कृषि, वनोपज और हस्तशिल्प को बढ़ावा देना।
•    आदिवासी उत्पादों के लिए बाजार उपलब्ध कराना और व्यापार को समर्थन देना।
शिक्षा और कौशल विकास:
•    शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण के माध्यम से आदिवासी युवाओं को सशक्त बनाना।
•    स्थानीय ज्ञान और संसाधनों का उपयोग करके उद्यमशीलता को प्रोत्साहित करना।
4. सामाजिक और पर्यावरणीय संरक्षण:
पर्यावरण संरक्षण:
•    वनों और जल संसाधनों की रक्षा करना, जो आदिवासी जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
•    पर्यावरणीय जागरूकता अभियान चलाना और सामुदायिक सहभागिता को प्रोत्साहित करना।
सामाजिक संरचना की मजबूती:
•    आदिवासी नेतृत्व और पंचायत प्रणाली को समर्थन देना।
•    महिलाओं और बच्चों के अधिकारों की रक्षा और सशक्तिकरण पर ध्यान दे।
5. कानूनी और राजनीतिक संरक्षण:
कानूनी अधिकारों की रक्षा:
•    आदिवासी भूमि और संसाधनों पर उनके अधिकारों की रक्षा के लिए मजबूत कानूनों का प्रवर्तन।
•    आदिवासियों को कानूनी सहायता प्रदान करना और उनके अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ाना।
राजनीतिक प्रतिनिधित्व:
•    आदिवासी समुदायों को राजनीतिक प्रक्रियाओं में शामिल करना और उनके प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करना।
•    स्थानीय, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर नीति निर्धारण में आदिवासियों की भागीदारी को प्रोत्साहित करना।

1.    शिक्षा और जागरूकता:
शिक्षा के माध्यम से जागरूकता:
•    आदिवासी इतिहास, संस्कृति और उनके योगदान के बारे में शिक्षा देना।
•    मुख्यधारा के समाज में आदिवासियों के प्रति संवेदनशीलता और समझ बढ़ाना।
इन उपायों के माध्यम से आदिवासियत को सामुदायिक भागीदारी, सरकारी समर्थन और अंतरराष्ट्रीय सहयोग से सहेजा जा सकता है, जिससे न केवल आदिवासी समुदायों का विकास होगा, बल्कि हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत भी संरक्षित रहेगी। पर अबतक उरांव समाज खुद सजग होकर इसे सहेजने की कोशिश नहीं करता है तबतक ये क्षिन्न भिन्न होती रहेगी।
आज के इस सामाजिक परिवेश में, ब्रिटिश हुकूमत के आगमन के पहले, राजतंत्र के समय में जो वेश भूषा, पहिरावा और संस्कृति थी उसको संरक्षित रखने में बहुत सारी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है और शायद इसे हुबहू संरक्षण रखना संभव न हो, परंतु उनकी आदिवासियत को उनके जीवन दर्शन और जीवन मूल्यों को अवश्य ही संजो के रखा जा सकता है जिसे मशहूर आदिवासी कवित्री जसींता केरकेट्टा के आदिवासियत की व्याख्या *मेरा आदिवासी होना* की परिकल्पना से कर सकते हैं:
मेरा आदिवासी होना।।
न साड़ी, न खोपा, न गोदना, न गहना
कुछ भी नहीं पहनती फिर कैसी आदिवासी हो तुम; अकसर लोग पूछते हैं मुझसे,
पर मैं उनसे कहना चाहती हूं 
धरती के करीब रहना ही आदिवासी होना है,
प्रकृति के साथ चलना ही आदिवासी होना है,
नदी की तरह बहना और सहज रहना ही आदिवासी होना है।
भीतर और बाहर, हर बन्धन के खिलाफ लड़ना ही आदिवासी होना है।
और अपने सुन्दर होने के सारे चिन्हों के साथ ज्यादा मनुष्य होना ही आदिवासी होना है।
पर किसी के मन में सिर्फ रह गया है कोई गहना और गोदना; और कोई नहीं समझ पाता हो क्या होता है आदिवासी होना।
तो मैं चाहती हूं बदले समय में नये सिरे से
प्रतीकों में फंस गए हर भ्रम को तोड़ देना।
इसी आदिवासियत के साथ बचा रह सकता है धरती पर 
किसी का आदिवासी होना।

- भुनेश्वर बख़ला
आयनावरम, चेन्नई
 

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