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तोलोंग सिकि (लिपि) का आधार

तोलोंग सिकि एक वर्णात्मक लिपि है। इसमें‚ उच्चारण के अनुसार लिखा एवं पढ़ा जाता है। इसमें हलन्त का प्रयोग नहीं होता है। इस लिपि को कुँड़ुख़ भाषियों ने कुँड़ुख़ भाषा की लिपि की सामाजिक स्वीकृति प्रदान की है तथा झारखण्ड सरकार द्वारा कुँड़ुख़ भाषा की लिपि की वैधानिक मान्यता देकर विद्यालयों में पठन-पाठन का अवसर प्रदान किया गया है। कुँड़ुख़ भाषा को योगात्मक भाषा कहा गया है। बोलचाल में‚ योगात्मक तरीके से खण्ड-ब-खण्ड उच्चारित किया जाता है। इस लिपि के अधिकतर वर्ण वर्तमान घड़ी के विपरीत दिशा (Anti clockwise direction) में व्यवस्थित है। इस लिपि का आधार पूर्वजों द्वारा स्थापित प्रकृतिवादी सिद्धांत है। हवा का बवण्डर (बईर’बण्डो)‚ समुद्र का चक्रवात‚ अधिकांश लताओं का चढ़ना आदि प्राकृतिक चीजें‚ घड़ी की विपरीत दिशा में सम्पन्न होती है। प्रकृति के इन रहस्यों को‚ आदिवासियों ने अपने जीवन में उतारा और जन्म से लेकर मृत्यु तक के अनुष्ठान‚ घड़ी की विपरीत दिशा में सम्पन्न करने लगे। रूढ़ीवादी–परम्पीरागत कुँड़ुख़ समाज में नामकरण संस्कामर‚ विवाह संस्का–र‚ म़त्युँ संस्कामर‚ डण्डा कट्टना पूजा अनुष्ठान‚ चाःला टोंका का पूजा अनुष्ठान‚ देबी अयंग अड्डा का पूजा अनुष्ठान‚ असारी पूजा/हरियनी पूजा अनुष्ठाषन आदि वर्तमान घड़ी के विपरीत दिशा में सम्पान्नन किये जाते हैं। इसी तरह हल चलाना‚ जता चलाना‚ छिरका रोटी पकाना‚ अभिवादन करना‚ नृत्य करना‚ अपने घर–परिवार में सभी तरह के नेगचार आदि क्रियाएँ घड़ी की विपरीत दिशा में निहित है। यह भी तथ्य है कि संसार में‚ अधिक से अधिक प्राकृतिक घटनाएँ घड़ी की विपरीत दिशा में ही सम्पन्न होती है। संभवतः ब्रह्मांड में सूर्य के चारों ओर‚ पृथ्वी की परिक्रमा‚ घड़ी की विपरीत दिशा में ही होती है‚ जिससे प्रकृति के सभी क्रिया-कलाप इससे प्रभावित होती है। इन प्राकृतिक क्रिया-कलापों एवं सामाजिक सह सांस्कृतिक अवदानों को आदिवासी पोशाक तोलोङ की कलाकृति से जोड़कर‚ भाषा विज्ञान के सिद्धांत पर व्यवस्थित है।

Narayan Oraon
डॉ॰ नारायण उराँव ’सैन्दा’
संस्थापक‚ तोलोंग सिकि
सिसई‚ गुमला (झारखण्ड)

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