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कुँड़ुख़ तोलोंग सिकि (लिपि) पर उठते सवाल : एक परिचर्चा

जैसा कि हम सभी को जानते हैं कि – कुँड़ुख़ भाषा की लिपि, तोलोंग सिकि है। झारखण्ड सरकार द्वारा इस लिपि को वर्ष 2003 में कुंड़ुख़ भाषा की लिपि स्वीकार करते हुए केन्द्र सरकार को अनुसंशित किया गया है। साथ ही प. बंगाल में कुँड़ुख़ भाषा को 2018 से 8वीं राजकीय का दर्जा प्राप्तग है। इसके आलोक में कुँड़ुख़ भाषा एवं तोलोंग सिकि में साहित्य, प्रकाशित किये जा रहे हैं। इधर झारखण्ड के कई विद्यालयों में कुँड़ुख़ भाषा एवं तोलोंग सिकि से पढ़ाई-लिखाई हो रही है तथा वर्ष 2009 से मैट्रिक स्तर पर कुंड़ुख़ भाषा विषय की परीक्षा तोलोंग सिकि में लिखी जा रही है। इसके वाबजूद तोलोंग लिपि को अंगीकार किये जाने के विषय पर कुछ लोग सवाल उठाते पाये गये हैं। इस संदर्भ में समाज के लोगों को जानकारी देते हुए कहना है कि दिनांक 23 एवं 24 अक्टुबर 2021 को कुंड़ुख़ लिटरेरी सोसायटी ऑफ इंडिया, नई दिल्ली के राष्ट्रीय सम्मेलन (वेविनार) पर दिनांक 25.10.2021 को रांची से प्रकाशित हिन्दीम दैनिक समाचार पत्र के माध्यम से कुछ सवाल खड़े किये गये हैं। इन खबरों की पड़ताल करते हुए पूर्व बैंक अधिकारी एवं लिटिबीर कुंड़ुख़ एकेडमी, पुटो-तिलसिरी, घाघरा के निदेशक सह संचालक श्री राजेन्द्र भगत के द्वारा तोलोंग सिकि के सर्जक डॉ. नारायण उरांव ‘सैन्दा’ से कई चुनौती भरे सवाल पर परिचर्चा किये‚ जिससे कुंड़ुख़ समाज के लोगों के मन में उठते सवालों का सही–सही जबाब मिल सके। श्री राजेन्द्र भगत एवं डॉ. नारायण उरांव के बीच बातचीत एवं प्रश्नोत्तर इस प्रकार है – 
1. प्रश्न  राजेन्द्र भगत के - डाक्टर साहब, आप पेशे से एक चिकित्सक हैं और आपने कुँड़ुख़ भाषा की लिपि विकसित करने में अपना अद्भूत योगदान दिया है। कुंड़ुख़ समाज आपके इस दुरूह कार्य को सदा याद करेगा। वर्तमान में झारखण्ड सरकार एवं पश्चिम बंगाल सरकार में इसे स्वीकृति प्रदान किया है और सरकारी विभागों से पुस्तकें प्रकाशित किये जा रहे हैं। पर कुछ गिने-चुने लोग इस लिपि को कुँड़ुख़ भाषा की लिपि के रूप में अपनाने में व्येवधान खड़ा कर रहे हैं। दिनांक 25.10.2021 को रांची के एक हिन्दीा दैनिक समाचार पत्र में एक खबर छपी है, जिसमें एक महिला ने कहा है कि कुँड़ुख़ भाषा में बहुत सारे संयुक्ताक्षर हैं, जबकि तोलोंग सिकि में संयुक्ताक्षर नहीं हैं, अतएव इसे अपनाया जाना बड़ी भूल होगी? इस संबंध में आपका क्या कहना है?
उत्तर डॉ. नारायण उराँव के - भगत जी, आपने जिन बातों को पड़ताल करने का  प्रयास किया है, वह प्रश्न समाज के लोंगो को गुमराह करने वाला है। प्रश्न करने वाले लोगों को सबसे पहले यह स्प्ष्टं करना चाहिए कि – कुँड़ुख़ भाषा में कितने संयुक्ताक्षर हैं? उसके बाद यह भी तय करना चाहिए कि - क्या वे मूल ध्वनि और संयुक्ताक्षर ध्वनि‚ दोनों के लिए अलग-अलग लिपि चिन्ह देखना चाहते हैं या कुछ और? यदि वे इन दोनों बातों को स्पष्ट करेंगे तभी उनके प्रश्नों का उत्तैर दिया जा सकेगा।
    वैसे कुंड़ुख़ समाज के लोंगो को यह जानना चाहिए कि तोलोंग सिकि वर्णमाला का निर्धारण में तत्कालीन‚ केन्द्रीय भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर‚ भारत सरकार के डायरेक्टर सह भाषाविद डा. फ्रांसिस एक्का एवं रांची विश्वविद्यालय, रांची के पूर्व कुलपति सह जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग, रांची कि पूर्व विभागाध्यकक्ष‚ भाषाविद डा. रामदयाल मुण्डा के मार्ग दर्शन पर‚ आदिवासी शिक्षाविदों‚ चिंतकों‚ समाज सेवियों एवं झारखण्ड अलग प्रांत के आन्दोलनकारियों के समन्वय-सहयोग से निर्धारित हुआ है। तोलोंग सिकि वर्णमाला का निर्धारण में सामाजिक विज्ञान, भाषा विज्ञान एवं तकनीकी विज्ञान को आधार मानकर किया गया है। अतएव इस विषय पर निरर्थक सवाल खड़ा किया जाना अशोभनीय है। 
2. प्रश्नइ राजेन्द्र भगत के - डाक्टर साहब, दिनांक 25.10.2021 को ही छपे समाचार पत्र में उस महिला ने कहा है कि – कुँड़ुख़ भाषा के लिए तोलोंग सिकि को स्वीकार किया जाना बड़ी भूल होगी। वह महिला इस प्रकार का सवाल खड़ा कर क्या कहना चाहती हैं? इस बात को स्पष्ट कीजिये?
उत्तर डॉ. नारायण उराँव के - भगत जी, उस महिला द्वारा उठाया गया उनका सवाल अधूरा है। पहले तो वे अपने सवाल को स्पष्ट करें अथवा तय करें कि कुंडुख़ भाषा के लिए किस प्रकार की लिपि चाहिए या नहीं चाहिए? यदि तोलोंग सिकि उनके लिए भूल लगता है तो वे बतलायें कि वे किस लिपि में लेखन, पठन-पाठन तथा साहित्य विकास करना चाहती हैं और क्यों? तोलोंग सिकि, किसी एक व्यक्ति के द्वारा किया गया कार्य नहीं है। यह लिपि‚ भारतीय आदिवासी आन्दोलन एवं झारखण्ड का छात्र आन्दोलन की देन है। यदि झारखण्ड आन्दोलन और आदिवासी आन्दोलन भूल था तो इस लिपि को अपनाना भी भूल होगा और यदि झारखण्ड का छात्र आन्दोलन तथा भारतीय आदिवासी आन्दोलन एक इतिहास है तो यह लिपि भी उस इतिहास का हिस्सान एवं धरोहर है। दूसरी बात यह है कि इस लिपि की स्थापना में आदिवासी अध्यात्म, भाषा विज्ञान, आधुनिक तकनीकी विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, आदिवासी सभ्यता का इतिहास आदि तमाम बातें प्रतिविंबित है। उस महिला को तोलोंग सिकि भूल लगता है तो वे स्पतष्टि करें कि वे किस लिपि के समर्थक हैं।
3. प्रश्नत राजेन्द्र भगत के - डाक्टर साहब, दिनांक 30 एवं 31 अक्टुबर 2020 तथा 23 एवं 24 अक्टुबर 2021 को कँड़ुख़ लिटरेरी सोसायटी ऑफ इंडिया, नई दिल्ली, नामक स्वयं सेवी संस्था के राष्ट्रीय सम्मेलन (वेविनार) पर प्रकाशित ख़बर में कहा गया है कि – कँड़ुख भाषा को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल किया जाए। साथ ही यह भी कहा गया है कि कँड़ुख के लिए अभी नयी लिपि की जरूरत नहीं है। इस तरह लिटरेरी सोसायटी जैसे बड़े साहित्यिक संगठन के माध्यम से लोगों को दिग्भ्रमित करने वाले सवाल किये गये हैं। इस संबंध में आपना मंतव्य दें।
उत्तर डॉ. नारायण उराँव के - भगत जी, जिन्होंने भी ऐसा वक्तव्य दिया है वह प्रसंशनीय नहीं है। ऐसा वक्तभव्य। किसी व्यहक्ति के व्यक्तिगत विचार हो सकते हैं पर यह सार्वजनिक विचार नहीं है। इस तरह के राष्ट्रीय स्तारके भाषायी सम्मेलन में‚ संगठन के उच्च पदधारी 8वीं अनुसूची में शामिल किये जाने की बातें तो करते हैं‚ पर इसका आधार क्या होगा, इसपर वे अपनी राय जाहिर नहीं करते हैं। ऐसे में लोग दिग्भ्रमित हो रहे हैं। दूसरी ओर‚ समाचार पत्रों के माध्यम से यह भी कहा गया है कि – पहले भाषा का विकास करें‚ लिपि बाद में आएगा। पर यह तर्क अस्पष्टह है। भाषाविदों का मानना है कि – भाषा के दो रूप हैं‚ जिसमें मौखिक स्वरूप तो पूर्वजों द्वारा एक धरोहर के रूप में समाज को मिला हुआ है, और वह स्वररूप विकसित है। पर भाषा का दूसरा रूप अर्थात उसका लिखित रूप, समाज को पूर्वजों से नहीं मिला। वर्तमान में 8वीं अनुसूची के लिए लिखित रूप अर्थात साहित्य रूप की जरूरत है, जिसके लिए लिपि का होना आवश्यक है। साहित्य सृजन‚ बिना लिपि के कैसे करेंगे? इस पर कँड़ुख़ लिटरेरी सोसायटी ऑफ इंडिया को यह स्पष्ट निर्णय करना चाहिए कि साहित्य सृजन के लिए वे किस लिपि को अपनाना चाहते हैं। किसी अनुसूचित भारतीय भाषा की लिपि को स्वी कार करेंगे या फिर समाज के लोगों द्वारा विकसित अपनी लिपि को। 
समाज के लोगों को यह भी बतलाना जरूरी है कि – बिहार सरकार में दिनांक 19 सितम्बर 1998 को, बिहार शिक्षा परियोजना‚ रांची एवं बिहार जनजातीय कल्याण शोध संस्थान, मोरहाबादी, रांची (दोनों विभाग) के द्वारा एक संयुक्त बैठक जनजातीय कल्याण शोध संस्थान, मोरहाबादी, रांची के सभागार में किया गया‚ जो डॉ. निर्मल मिंज की अध्यक्ष्ता में सम्पन्न हुआ। इस बैठक में सर्व सहमति से निर्णय लेकर कहा गया कि - ‘‘कुँड़ुख़ भाषा की लिपि, तोलोंग सिकि है, और तोलोंग सिकि के पूर्ण विकसित होने तक देवनागरी लिपि के माध्यम से साहित्य सृजन तथा पठन-पाठन का कार्य होता रहे।’’ 
दूसरी ओर, 8वीं अनुसूची में शामिल होने के लिए किसी राज्य सरकार का समर्थन जरूरी होता है, जहाँ से उस सरकार द्वारा उस भाषा को संविधान की अनुसूची में शामिल किये जाने हेतु अनुसंशित किया जाना होता है और वहाँ की राज्य सरकार उस भाषा और उसकी साहित्य विधा अर्थात लिपि के साथ अनुसंशा  करती है। वर्ष 2003 में झारखण्ड सरकार द्वारा संताली भाषा की लिपि – ओल चिकि, हो भाषा की लिपि – वरांग चिति तथा कुंड़ख़ भाषा की लिपि – तोलोंग सिकि है कहकर केन्द्र सरकार को अनुमोदित किया गया है। इसी तरह लिंगविस्टक सर्वे ऑफ इंडिया में कुँड़ुख़ भाषा‚  द्रविड़ भाषा परिवार का सदस्य घोषित है तथा उराँव आदिवासियों की सभ्यता के विकास का अपना स्वतंत्र इतिहास है। इन तथ्योंं को दरकिनार करते हुए कहीं ऐसा न हो कि नयी लिपि की अवश्यकता नहीं है कहने वालों के संख्या बल की राजनीति में कुँड़ुख़ को यूरोपीय या वैदिक सभ्यता-संस्कृति की प्रतिनिधि भाषा-लिपि के समूह के कतार में खड़ा न कर दिया जाय, जो कुँड़ुख़ आदिवासी समाज के लिए दुर्भाग्य और दुर्दिन होगा।
4. प्रश्नज राजेन्द्र भगत के - डाक्टर साहब, जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग, रांची विश्वविद्यालय, रांची के कुछ शिक्षकों द्वारा सोसल मिडिया के माध्यम से यह प्रसार किया जा रहा है कि – तोलोंग सिकि की स्था्पना में आर्य भाषा परिवार की देवनागरी लिपि का अनुकरण किया गया है। इस लिपि के अक्षरों को, रोमन लिपि या उर्दू लिपि की तरह अलग नाम दिया जाना चाहिए था। इस संबंध में आपका क्या विचार है?
उत्तर डॉ. नारायण उराँव के - भगत जी, आपका यह सवाल भाषा विज्ञान, विषय से संबंधित है। इसके संबंध में मैंने पूर्व में कहा है कि तोलोंग सिकि वर्णमाला का निर्धारण सामाजिक विज्ञान, भाषा विज्ञान एवं तकनीकी विज्ञान को आधार मानकर किया गया है। आज पूरी दुनियाँ, विज्ञान के खोज को मान रही है और उसका लाभ ले रही है। मानव जाति इससे अछुता नहीं है। क्या, हम विज्ञान की खोज को नहीं मान रहे?  किसी भी भाषा में उसकी इकाई एवं मूल ध्वनि उस भाषा में उच्चारित होती हैं। किसी भाषा में उच्च रित मूल एवं इकाई ध्वउनि को दूसरे का नकल है कहना बेईमानी होगा। हां‚ उन ध्विनियों को लिखने के लिए चयनित संकेत चिन्हर अलग–अलग हो सकते हैं‚ जो क्षेत्र के अनुसार भिन्नन होता है। तथ्य  है कि संस्कृसत एवं हिन्दी  भाषा की देवनागरी लिपि का अक्षर या लिखने का तरीका वैदिक संभ्यईता–संस्कृगति से संबं‍ध रखता है, परन्तुत प, ब, म, इ, उ, आ .... आदि ध्व्नि उच्चारण तो दूसरी भाषा के लोग भी करते हैं। वहीं पर देवनागरी लिपि में अक्षर का नाम एवं ध्वनि मान‚ एक समान है‚ जिसे भाषा विज्ञान का सिद्धांत भी बेहतर मानता है। भाषा विज्ञान के अनुसार एक छोटे बच्चेा को एक ही संकेत के लिए अक्षर का नाम और ध्वैनि मान अलग–अलग उर्जा लगवाया जाना उचित नहीं है। इन्हींऔ कारणों से वर्णमाला के अक्षरों का नामकरण करते समय भाषा विज्ञानियों ने भाषा विज्ञान के सिद्धांत पर खरा उतरने वाले बातों को अपनाने के लिए निदेर्शित किया‚ जिसके आधार पर तोलोंग सिकि वर्णमाला स्थाोपित हुई है। संभव है कि इन्हीं  विशिष्ट  तथ्योंं के चलते पूरे भारत देश की अधिकतर भाषाओं की लिपियाँ, देवनागरी लिपि की तरह अक्षर का नाम एवं ध्वनि मान एक रखे हुए है, जो भारतीय परिवार की लिपि को इंगित करता है। साथ ही यह बतलाना आवश्यरक है कि तोलोंग सिकि‚ भरतीय आदिवासी आन्दोलन एवं झारखण्ड का छात्र आन्दोलन का उपादेय है जो भाषा विज्ञान के सिद्धांत के आधारित है। इसी तरह दिनांक 24 जनवरी 1998 को होटल महाराजा, रांची में भाषाविद डा. फ्रांसिस एक्का एवं भाषाविद डा. रामदयाल मुण्डा द्वारा डा. निर्माल मिंज, फा. प्रताप टोप्पो, डा. नारायण भगत, डा. नारायण उरांव, श्री मनोरंजन लकड़ा आदि की उपस्थिति में स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी किया गया कि – ‘‘आदिवासी भाषाओं की पहचान के लिए अपनी लि‍पि आवश्यपक है। नयी लिपि, सामाजिक सह सांस्कृतिक आधार वाली हो तथा भाषा विज्ञान एवं तकनीकी विज्ञान सम्मत हो।’’ साथ ही रांची विश्वविद्यालय, रांची के पूर्व कुलपति सह जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग, रांची कि पूर्व विभागाध्यलक्ष‚ पद्मश्री डा. रामदयाल मुण्डा एवं पूर्व कुलपति डा.(श्रीमती) इन्दु् धान द्वारा दिनांक 15 मई 1999 को सुयुक्तं रूप से तोलोंग सिकि को समाज के लोगों के व्यमव्हा र के लिए लोकार्पित किया गया है। 
डाक्टर साहब, बहुत-बहुत धन्यवाद! आप, कुँड़ुख भाषा के गंभीर विषयों पर सहजता से भाषा विज्ञान आधारित प्रश्नों का उत्तर दिये। आशा है कँड़ुख भाषी समाज के लोग इससे लाभंवित होंगे और अपने मस्तिष्क में उठ रहे सवालें के जबाब ढूंढ़ पाएंगे।

Jita
संकलन एवं संपादन -
जिता उराँव
अध्यक्ष, अद्दी अखड़ा, राँची।

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