झारखण्ड अलग प्रांत आन्दोलन के दौरान हम छात्र नेताओं के जेहन में हमेाा ही एक प्रन उठता था - क्या, नये राज्य में हम अपनी भाशा-संस्कृति को सुरक्षित रख पाएंगे ? इसके लिए क्या-क्या कदम उठाने होंगे ? इसी क्रम में विचार आया - संस्कृति को बचाने के लिए भाशा़ को बचाना जरूरी है और भाशा को बचाने के लिए उस भाशा का िाक्षा पद्धति में दृाामिल होना जरूरी है, तभी भाशा बचेगी। साथ ही वर्तमान भ्ाूमण्डलीकरण के दौर में उस भाशा की अपनी लिपि भी हो। इसी क्रम में पेो से चिकित्सक डॉ0 नारायण उराँव ने आदिवासी भाशा की लिपि के रूप में तोलोंग सिकि, नामक लिपि केे रूप में समाज के सामने एक समाचार पत्र के माध्यम से छपकर सितम्बर 1993 में आया।
लिपि के अग्रेतर विकास के पचात् आदिवासी समाज के दो पूर्व कुलपति डॉ0 रामदयाल मुण्डा तथा डॉ0 (श्रीमति) इन्दु धान द्वारा संयुक्त रूप से 15 जून 1999 को जनमानस के व्यवहार के लिए लोकार्पित किया गया। उसके बाद सामाजिक स्तर पर कर्इ छोटे-बड़े विद्यालयों में कुँड़ुख़ भाशा एवं तोलोंग सिकि की पढ़ार्इ-लिखार्इ होने लगी। झारखण्ड राज्य बनने के बाद वर्श 2003 में झारखण्ड सरकार द्वारा तोलोंग सिकि, लिपि को कुँड़ुख़ (उराँव) भाशा की लिपि की मान्यता मिली। फिर वर्श 2009 में एक विद्यालय के छात्रों के लिए तथा वर्श 2016 में इच्छुक सर्वजन के लिए मैट्रिक परीक्षा में कुँड़ुख़ भाशा विशय की परीक्षा इस लिपि में लिखे जाने की अनुमति मिली। इसे जीवंत रखने की आवयकता है। लिपि के संबंध में डॉ0 नारायण बतलाते हैं - लिपि का आधार पूर्वजों द्वारा स्थापित प्रकृतिवादी सिद्धान्त है। हवा का बवंडर, समुद्र का चक्रवात, लताओं का चढ़ना, ब्राह्मंाड में सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की परिक्रमा आदि घड़ी की विपरीत दिाा में होती है। प्रकृति की इन रहस्यों को पूर्वजों ने अपने जीवन में उतारा और जन्म से लेकर मृत्यु तक के अनुश्ठान, घड़ी के विपरीत दिाा में सम्पन्न करने लगे, जैसे हल चलाना, जता चलाना, नृत्य करना, अभिवादन करना, चा:ला टोंका में पूजा करना, डंडा कट्टना आदि सामाजिक सह सांस्कृतिक अवदानों को आदिवासी पोााक तोलोंग की कलाकृति से जोड़कर यह लिपि स्थापित हुर्इ है।
लिपि विकास के इस दौर में वर्श 2012 में प्रथम अंतर्राश्ट्रीय कुँड़ुख़ भाशा सम्मेलन, राँची में कुड़ुख़ बन्ना, नामक लिपि एवं तोलोंग सिकि के बीच तुलनात्मक व्याख्या हुर्इ। बन्ना लिपि के प्रस्तुतकर्ता एक ही बात पर जोर दे रहे थे, यह सुन्दर है और तेजी से लिखा जा सकता है। पर तोलोंग सिकि के प्रस्तुतकर्ता ने कहा कि यह लिपि, आदिवासी समाज एवं संस्कृति पर आधारित है। विोशकर यह डण्डा कट्टना अनुश्ठान एवं दैनिक जीवन के दिनचर्या में होने वाले कार्यो तथा घटनाओं पर आधारित है। इन बातों को जानने के बाद मैं निर्णय ले पाया कि कुँड़ुख़ भाशा की लिपि के लिए तोलोंग सिकि ही व्यवहारिक एवं ग्राहय योग्य है और मैं उस दिन से तोलोंग सिकि के विकास में अपनी सहभागिता निभा रहा हूँ और लोगों को भी प्रोत्साहित कर रहा हूँ।
झारखण्ड सरकार आदिवासी भाशा संस्कृति, लिपि का विकास एवं संरक्षण के लिए कोर्इ उचित पहल करे। प्राथमिक स्कूलों में मातृभाशा की पढ़ार्इ होनी चाहिए जो आरंभिक दौर में है तथा भाशा िाक्षकों की बहाली हो। स्कूलों में अध्ययन एवं अध्यापन होने तथा रोजगार के अवसर बनने से सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं बौद्धिक चेतना जगेगी और भशा विकास तथा संरक्षण स्वस्फूर्त होने लगेगा। आदिवासियों का जीवन र्दान, उनकी लोककथा, कहानी और गीतों में ही है, इसके चलते किसी ग्रंथ की आवयकता न होते हुए भी सजीव है। इसे जीवंत रखने की आवयकता है।
- डॉ प्रवीण उराँव एवं प्रो श्रीमती मन्ती उराँव