यूँ कलाकार और कला की कोई सीमा नहीं। लेकिन जब कोई कलाकार लगभग लुप्त हो गई किसी कला को पुनर्जीवित कर देता कलाकार समाज और कला जगत के लिए विशिष्ट हो जाता है। ऐसी ही एक कलाकार है सुमन्ती देव भगत, जो भोपाल में रहती हैं। सुमन्ती ने अपनी वेश-भूषा तक को उराँव संस्कृति के अनुकूल इस तरह ढाल लिया है कि आप दूर से देखकर बता सकते हैं कि वह कोई उराँव युवती ही हो सकती है। पढ़िया की मोटी सफेद, लाल पाड़ की साड़ी पहने, उराँव विधि से खोपा बनाए और उस पर बगुले के पंखों बनी टइंया को खोसे हुए। गले पर चमकता खंभिया और कानों पर लम्बे वीडियो। ऐसी कुँड़ुख बेश-भूषा में अब तो शायद ही कोई दिखता है। इतना तक कि गाँवों में भी नहीं।
पुरखे दीवाली के बाद या सरहुल आने के पहले उराँव लोग सफेद पोतनी मिट्टी से, फिर गोबर में जले पुआल की काली राख मिलाकर दीवालों को रंगा करते थे। लेकिम अब सफेद पोतनी मिट्टी को अभाव हो गया है। साथ ही कई लोग पक्के सीमेन्ट का घर बना चुके हैं। स्कूल जाती किशोरियों, युवतियों को अब यह सब सीखने और लीपने का समय भी नहीं रह गया है। अतः। धीरे धीरे दीवालों को लीपने की कलात्मक लिपाई का काम भी समाप्त होता चला गया और यह कल अब विलुप्ति के कगार पर खड़ा हो गया है। लेकिन, प्रशंसा करनी होगी सुमन्ती उराँव की जिसने लुप्त होती इस कला को न केवल बचाने का काम किया बल्कि अपनी मिहनत और कल्पनाशीलता से इस कला को, कला-जगत में आकर्षण का नया केन्द्र बनाकर, प्रतिष्ठित कर दिया। आज सुमन्ती की पहचान उराँव कला के लिए न केवल मध्य प्रदेश बल्कि झारखंड, छत्तीसगढ़, बंगाल, उड़ीसा, जम्मू-कशमीर, केरल, दिल्ली राज्यों के छोटे-बड़े शहरों में अपनी कला का प्रदर्शन कर चुकी हैं।
मिट्टी के प्राकृतिक रंगों से लीपने की शैली से बनाए चित्र सादगी भरे कला के उच्चतम उदाहरण भी है। वह चार से पाँच रंगों की मिट्टी के रंगों से रंग तैयार करती है और कागज या कैनवस पर लीपते हुए कलाकृतियाँ बनाती है। उंगलियों के निशानों से बनी लकीरें के बीच कभी कुछ चित्र भी होता है जो पेड़, पशु, झंडा आदि होता है। इनमें से अधिकांश चित्रउराँव समुदाय की मौखिक परंपरा से प्रेरित होती हैं और चित्र के माध्यम से उरांव जीवन की विविध घटनाओं, अनुष्ठानों को अपनी कलाकृतियों में दर्शातीं हैं।
सुमन्ती का जन्म 05 अक्तूबर 1980 को जशपुर में हुआ। वे बचपन से ही घर में माँ द्वारा लीपने की प्रक्रिया को ध्यान से देखा करती थी। हाथ से दीवालों पर लीपकर उभरती अर्द्धवृताकार आकृतियाँ को देखना उसे बहुत प्रिय था। खाली हाथों में बस गीली लेकर, दीवालों को सुन्दर अर्द्धव़ृताकार आकृतियों से भर देने में उसे बहुत आनंद आने लगा। यही आनंद आज उसे कलाकारके रुप में और “उराँव पेंटिंग” को कला जगत में नई पहचान दे रहा है। मिट्टी लेकर धीरे-धीरे उसने भी यह सीख लिया। उन्हें सबसे पहले अपनी कला प्रदर्शन करने का अवसर 2012 में भुवनेश्वर के ट्राईब्ल आर्ट फेयर में मिला जो कि इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय द्वारा आयोजित था। उनकी कलाकृति की वहाँ बहुत सराहना की गई। उनकी कलाकृति भी बिकी। विदेशी ग्राहकों ने भारतीय ग्राहकों से ज्यादा पेंटिंग खरीदीं। फलतः, उनका हौसला बढ़ता गया और इस पर अधिक काम करने लगीं। आज वह छोटे से लेकर बड़े कैनवस पर पहले हाथ से लिपाई करतीं हैं और चित्र या अन्य आकृतियाँ बनातीं हैं। कभी वह उंगली से कैनवस के चारों ओर घेरा जैसा बनाती और उसके बीच कोई आकृति। वह चित्रों के माध्यम से आदिवासी जीवन की विविध घटनाओ और कभी-कभी कर्मकांडों, त्यौहारों, लोक कथाओं को भी चित्रित करती हैं। उन्होंने कई शहरों में कला बनाने का भी, प्रदर्शन किया है। मिट्टी को घोलकर रंग तैयारकर उंगलियों से पेंटिंग बनाना लोगों को काफी आकर्षक लगता है क्योंकि वह उराँव परिधान पहने यह सब करती है। जो कला में प्राकृतिक रंगों और जीवन को देखना चाहते हैं उन कलाप्रेमियों को सुमन्ती की कलाकृतियाँ बेहद भातीं हैं।
उनकी कलाकृतियों का प्रदर्शन आज देश भर के महत्वपूर्ण आयोजनों में चर्चा का विषय है। हो सकता है उनकी कलाकृतियों के खरीददार कम हों लेकिन उसकी परिधान के प्रशंसक काफी हैं। यह कुँड़ुख बाला, अपनी कलाकृतियों, परिधान और कला बनाने में हर जगह कुँड़ुख आदिवासी जीवन की छाप छोड़ती दिखती है। सरकार या कोई संस्थान रांची में, उन्हें आमंत्रित कर इस कला को प्रोत्साहित करे तो कुंड़ुख-कला को झारखंड में भी नई पहचान मिल सकती है और कुछ नये कलाकार भी इस ओर आकर्षित हो सकते हैं। प्राकृतिक रंगों से, बनाई जाती इस “उराँव कला” को बचाने और लोकप्रिय बनाने में मदद मिल सकती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सुमन्ती के इस प्रयास को झारखंड और निकटवर्ती राज्यों में भी ज्यादा से ज्यादा लोग समझेंगे, देखेंगे, सराहेंगे और उसे सम्मान, प्यार व समुचित प्रोत्साहन देंगे।
-महादेव टोप्पो