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धार्मिक उपनिवेशवाद और पारम्परिक उराँव (कुँड़ुख़) समाज

उपनिवेशवाद का अर्थ है - किसी समृद्ध एवं शक्तिशाली राष्ट्र द्वारा अपने विभिन्न हितों को साधने के लिए किसी निर्बल किन्तु प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण राष्ट्र के विभिन्न संसाधनों का शक्ति के बल पर उपभोग करना। यहाँ धार्मिक उपनिवेशवाद का अर्थ है - कमजोर और असंगठित समाज को अपने धार्मिक संगत में मिलाकर उसके सांस्कृतिक विरासत का समूल नाश करते हुए अपने समूह में मिला लेना है। देश की स्वतंत्रता के 75 वें वर्ष पूरे होने वाले हैं पर आज भी आदिवासी समाज वैचारिक रूप से पूर्ण रूपेण आजाद नहीं हो पाया है। वर्तमान में लगभग अपने मौलिक विचार धारा के 50 लाख जनसंख्या वाले तथा कुँड़ुख़ भाषा बोलने वाले उराँव लोगों की स्थिति उतनी उत्साह वर्द्धक नहीं है। देश के आजादी से पहले अंगरेजी हुकुमत के दौर में राज्य का शासन के साथ ईसाई मिशनरियाँ भी भारत आयीं। इन ईसाई मिशनरियों ने यहाँ के मूल आदिवासियों के आस्था-विश्‍वास को जाने-समझे बिना ही उन्हें अधर्मी कहा और उन्हें धर्मी बनाने के मिशन में जुड़ गये। इसी तरह हिन्दूवादी संगठनों ने यहाँ के मूल आदिवासी विचारधारा तथा आस्था-विस्वास को हिन्दू धर्म मानने वाले या सनातनी हिन्दू कहकर नामित करने में लगे हुए हैं। झारखण्ड अलग प्रांत आन्दोलन के समय हिन्दूवादी संगठनों ने इस क्षेत्र को वनाचंल नाम दिया था तथा यहाँ के आदिवासियों को वनवासी कहा करते थे। वैसे वन या इस वन क्षेत्र में तो सभी प्रकार के लोग रहते हैं तो सिर्फ आदिवासियों को ही वनवासी क्यों कहा जा रहा था। इस आशय का साधारण सा तर्क है कि आदिवासी का शाब्दिक अर्थ आदि काल से निवास करने वाले लोग होता है जिसे वे हजम नहीं कर पा रहे थे। जहाँ तक भारतीय सभ्यता के विकास का इतिहास के संबंध की बात है - तो इस संबंध में तथ्य है कि आदिवासी सभ्यता के विकास का इतिहास को साहित्यकारों या इतिहासकार, अपने लेखनी में जगह दिये नहीं दे पाये। जैसे वर्तमान में भी आदिवासी लोग अपने सभी अनुष्ठान एवं कर्मकांड आधुनिक घड़ी की विपरीत दिशा में सम्पन्न करते हैं, जबकि हिन्दूवादी अपने सभी अनुष्ठान एवं कर्मकांड आधुनिक घड़ी की दिशा में सम्पन्न करते हैं तथा आदिवासियों की अपनी भाषा एवं रीतिरिवाज है। क्या, यह आदिवासियों के लिए आधार प्रस्तुत करने हेतु प्रयाप्त नहीं है ?  

          वैसे समाज‘शास्त्रियों का मानना है कि एक आम आदमी की आवश्‍यक आवश्‍यकता – रोटी, कपड़ा, मकान है। इन तीनों आवश्‍यकता की पूर्ती आदिवासी समाज अपने समूह में रहकर भलि-भांति कर लिया करते थे। पर विकसित मानव समाज के लिए उक्त तीन के अतिरिक्त तीन औार आवश्‍यक आवश्‍यकता होती है। वह है – स्वास्थ्य, शिक्षा, अध्यात्म। अंतिम तीन आवश्‍यकता का विकसित रूप, किसी व्यक्ति के रोजगार से सीधा संबंध रखता है। ईसाई मिशनरियों द्वारा प्रस्तूत अंतिम तीन आवश्‍यकता की पूर्ती हेतु अपने लोगों द्वारा विकसित रूप को यहाँ के मूल आदिवासियों के सामने परोसा गया, जिससे लोग उनके पाले में जुड़ते चले गये। ईसाई मिशनरियों के धर्म प्रचार में आधुनिक अस्पताल और आधुनिक स्कूल मददगार साबित हुआ। साथ ही इस क्षेत्र में वर्षों से जमींदारी और महाजनी व्यवस्था के अन्याय से जूझ रहे आदिवासी लोगों के लिए चर्च सहायक बना। लोग जमींदारी और महाजनी व्यवस्था से मुक्ति चाहते थे। इससे पीछा छुड़ाना चाहते थे, पर वे राजशाही और अंगरेजी ठाठ के सामने मुकाबला नहीं कर पा रहे थे। कई परिवार जमीन्दार और महाजन से बचने तथा अपनी खेती-बारी बचाने के लिए मिल रहे सहयोग के चलते चर्च के साथ हो चले। इन्हीं दिनों अनावृष्टि और आकाल तथा महामारी ने लोगों का मनोबल तोड़ दिया। 1967–68 का आकाल के दौरान विदेशी मदद आया, जिसे गांव-घर तक पहूँचाने का जिम्मा स्थानीय चर्च को भी मिला, जो चर्च के लिए मजबूत आधार बना। इसी के साथ आधुनिक शिक्षा और आधुनिक अस्पताल के माध्यम से आदिवासी समाज के लोगों के सामने एक नया जीवन दर्शन दिखने लगा और लोग चर्च की ओर मुड़ते चले गये। चर्च की अवधारणा तथा यूरोपीय व्यवस्था अधिक उन्नत होने के चलते पारंपरिक आदिवासी व्यवस्था को थपेड़ा देते हुए पूरे पहाड़ी क्षेत्र में जंगल की आग की तरह फैल गई। आधुनिक शिक्षा का आदिवासियों के बीच भी स्वागत हुआ और लोग अपनी धारा को छोड़ मुख्य धारा में जुड़ने लगे।

देश की आजादी के बाद सरकारी योजनाएँ भी उन्हीं के अनुरूप बनी। नतीजा हुआ कि घरेलू एवं देशी ज्ञान-विज्ञान आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के समक्ष टिक नहीं पाया और पारम्परिक ज्ञान अधोगति की ओर चला गया। अध्यात्मिक विश्‍वास एवं  अवधारणा भी साहित्यिक रूप से अपरिभाषित थीं, जिससे यूरोपीय विचार धारा तथा ईसाई मिशनरियाँ आदिवासी अध्यात्मिक अवधारणा को अधर्मी और अविकसित मानती रही। समाज शास्त्रियों एवं बड़े समूह के धार्मिक संगठनों के जानकारों ने भी इसे दुत्कारा और कहा – Tribal faith and belief is ill defined.

इन सभी बातों के बाद भी आदिवासी जानकारों का मानना है कि - Although it is not defined till now or ill defined but traditional tribal faith and belief, still practicing in several states. ईसाई मिशनरियाँ जो पूर्व में इस आस्था विश्‍वास के लोगों को अधर्मी कहा और उन्हें धार्मिक मानने से इनकार किया, पर अब 100 वर्ष के बाद वे कहने लगे हैं - Old tribal faith and belief is a complete religion. इस तरह ईसाई मिशनरियों को भी झारखण्ड के आदिवासियों की पारम्परिक आस्था विश्‍वास को एक पूर्ण धर्म के रूप में स्वीकार करने में 100 (एक सौ) वर्ष लग गये। ज्ञातव्य है कि वेटिकन द्वारा 2011 में पारम्परिक आदिवासी आस्था को सरना धर्म के नाम से स्वीकार किया गया है।

इसी तरह हिन्दू उपनिवेशवाद ने अपनी चरम सीमा पार कर रखा है। पर आज के दिन देश की आजादी से पूर्व एवं आजादी के बाद की स्थिति में अंतर है। आजादी से पूर्व अंग्रेजी हुकूमत ने आदिवासी आस्था-विश्‍वास को हिन्दू धर्मी के रूप में कभी भी प्रस्तुत नहीं किया। अंग्रेजी हुकूमत की छत्रछाया में इसाई मिशनरियाँ शिक्षा, स्वास्थ्य और भुखमरी को आधार बनाकर ईसाई पंथ में प्रवेश कराये पर वे आदिवासियों को हिन्दू विश्‍वासी कहकर अपने साहित्‍यों में संबोधित नहीं किया। वे यहाँ के पारम्परिक आदिवासी आस्था विश्वास को भूत पूजक या अधर्मी बोले, पर उन्होंने हिन्दू धर्मावलंबी नहीं कहा, साथ ही उनके कस्टमरी व्यवस्था को मान्यता दी।

The GAZETTE OF INDIA, MAY 3, 1913  (The 2nd May 1913) के No. 550 में कहा गया है Where as tribes known as the Munda, Oraon, Santhal, Hos, Bhumij Kharias, Ghasis, Gonds, Kands, Korwas, Kurmis, Male Saurias and Pans, dwelling in the Province of Bihar and Odisa have customary rules of succession and inheritance incompatible with the Provision of the Indian Succession Act, 1865 (X of 1865), and it is inexpedient to apply the provision of that Act to the member of those tribes. अर्थात मुण्डा, उराँव, संताल, हो, भूमिज, खड़िया, गोंड ---  आदि के लिए पूर्व से ही उनके कस्टमरी को मान्यता दी गई है, जिसे PESA Act 1996 द्वारा वर्तमान में विधि का बल प्राप्त है।

    आजादी के बाद देश का संविधान रचने वालों ने भी आदिवासियों के लिए एक विशेष प्रावधान बनाया। हिन्दू उत्तराधिकार कानून में इन्हें सीधे तौर पर हिन्दू नहीं माना गया है। उसी तरह हिन्दू विवाह कानून, हिन्दू दस्तक कानून आदि में भी सीधे तौर पर आदिवासियों को हिन्दू नहीं माना गया है। देश की आजादी के 49 वर्ष बाद भारतीय संसद द्वारा पेसा एक्ट (PESA  ACT) - 1996 पारित किया गया। जिसमें आदिवासी रूढ़ी-परंपरा, भाषा-संस्कृति को विधि का बल प्राप्‍त है। इससे संबंधित एक मामले में माननीय उच्च न्यायालय, रांची (झारखंड) का दो न्यायाधीशों के खंडपीठ ने First Appeal No. – 124/2018, Bagga Tirkey Verces Pinkey Linda, Nirmal Karmali के आदेश में 17/ 08.05. 2021 को परिवार न्यायालय, जिला रांची को निर्देश देते हुए कहा है - कि आदिवासी (उराँव) लोगों के संबंध में निर्णय लेने के लिए उस समाज के दस्तूर (custome) के आधार पर निर्णय किया जाय। आदेश पारा 29 इस प्रकार है - 29. We, accordingly, set aside the judgment dated 16.03.2018, passed in Original Suit No. 583 of  2017 by the Principal judge, Family Court, Ranchi, and remand the matter to Family Court to frame an appropriate issue in regard to existence of provision of customary divorce in the community  of the parties to these proceedings to get the marriage dissolved. We permit the parties to amend the pleading, if they so desire and also to lead evidence to prove the existence of a provision of customary divorce in their community. The Family Court will consider the matter afresh without being influenced by the observation made by this Court hereinabove expeditiously.  इसी तरह परिवार न्यायालय] राँची (झारखंड) Matrimonial Title Suit No. – 98/2002, N. Kanti Verces R. Mahto, S. Devi में एक महिला आवेदक द्वारा हिन्दू विवाह कानून के अन्तर्गत विवाह विच्छेद (Divorce) हेतु वाद दायर किया गया। इस वाद के आदेश दिनांक 23.01.2008 में कहा गया कि आवेदक आदिवासी हैं और उराँव रीति-रिवाज से विवाह हुआ है। इन्होंने किन्तु रीति-रिवाज से विवाह नहीं किया है तथा शादी में पवित्र अग्नि का परिक्रमा नहीं किया गया आदि .... आदि। अतएव इन पर हिन्दु विवाह कानून नहीं लगता है - कहकर आवेदन खारिज किया गया है। इस प्रकार राजनैतिक रूप से पारम्परिक आदिवासियों को हिन्दु धर्मावलम्बी कहा जा रहा है परन्तु विधिक रूप से आदिवासी हिन्दु कानून के अन्तर्गत नहीं आते हैं।

इधर झारखंड में अप्रैल 2019 से जाति प्रमाण पत्र प्राप्त करने हेतु किए जाने वाले आवेदन के फार्म में यह घोषणा करना पड़ता है कि वह व्यक्ति अमुक धर्म मानता है। जो व्यक्ति हिन्दू  ईसाई इस्लाम बौद्ध जैन सिख इत्यादि धर्म नहीं मानते वैसे आदिवासी आवेदन में अन्य धर्म कॉलम में अपना नाम दर्ज कराते हैं। इस तरह जानकारी के अभाव में या जान बूझकर जो आदिवासी हिन्दू धर्म मानने वाला कहकर फार्म भरता है उसे उसका जाति प्रमाण पत्र में हिन्दू धर्मावलम्बी का प्रमाण पत्र निर्गत हो जाता है। यह वर्तमान कंप्यूटर व्यवस्था में सुधार ¼Correction½ नहीं होता है। उसे खारिज ¼Cancele½ किया जा सकता है और नये फॉरमेट में फिर से भरकर बनवाया जा सकता है पर सुधार ¼Cancele½ नहीं किया जा सकता है।

अतएव एक बार जाति प्रमाण पत्र में हिन्दू धर्म दर्ज हो जाने पर उस व्यक्ति का समस्त विधिक कार्य उस प्रमाण पत्र के अनुसार माना जाएगा। जैसा कि एक हिंदू होने पर –  1. हिन्दू उत्तराधिकार कानून (यह कानून इसाई एवं मुस्लिम पर नहीं लगता है), 2. हिन्दू विवाह कानून, 3. हिन्दु दत्तक कानून आदि]  किसी व्यक्ति पर सामान्य रूप से लग जाता है। इसी तरह  –  4. इंडियन सक्सेसन एक्ट 1920 (यह कानून हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिक्ख, पारसी पर नहीं लगता है) तथा 5. जनजातियों पर हिन्दू उत्तराधिकार कानून एवं इंडियन सक्सेसन एक्ट 1920  दोनों ही, सामान्य रूप से नहीं लगता है।

विधिक तौर पर या संवैधनिक तौर पर परम्परागत आदिवासियों पर हिन्दू कानून नहीं लगता है, परन्तु जो व्यक्ति यह स्वीकार करे ही कि वह हिन्दू धर्म को मानता है और जाति प्रमाण पत्र के लिए एक हिन्दू धर्म मानने वाला के हिसाब से प्रमाण पत्र प्राप्त किया हो उस पर हिन्दू कानून लग सकता है। आदिवासी मामले में हिन्दू विवाह कानून सामान्य तौर पर नहीं लगने के चलते आदिवासियों को प्रथागत विवाह विच्छेद (Customary divorce) का सबूत प्रस्तुत करने के लिए कहा जाता है अर्थात पारम्परिक शादी या पारम्परिक विवाह विच्छेद की प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा।

यहां प्रश्‍न उटता है  –  क्या, ईसाई एवं इस्लाम में कोई विशिष्ट कानून भारत सरकार में है ? इसका उत्‍तर है  –  हाँ, ईसाइयों में ईसाई विवाह कानून है तथा इस्लाम में मुस्लिम कोड बिल ¼Muslim Code Bill½  है। ईसाइयों में इंडियन क्रिश्चियन मैरिज एक्ट ¼Indian Christian Marriage Act½ के तहत विवाह या मैरिज ¼Marriage½ एवं विवाह विच्‍छेद या डिवोर्स ¼Deborce½ का प्रावधान है। इन पर हिन्दू उत्तराधिकार कानून एवं हिन्दू दस्तक कानून नहीं लगता है। परम्परागत आदिवासियों का अलग से कोई Marriage Act  या Succession Act नहीं है। वे अपने पारम्परिक दस्तूर कानून से संचालित होते हैं और इसे PESA  Act 1996 के तहत विधि का बल प्रदान किया गया है।

दूसरा प्रश्‍न है – क्या, परम्परागत आदिवासियों में उत्तराधिकार कानून , विवाह कानून, विवाह विच्छेद कानून एवं दत्तक ग्रहण कानून है़ ? उत्‍तर है  –  कोई विशिष्‍ट कानून नहीं है, परम्परागत आदिवासी समाज में यह कानूनी रूप में नहीं है, पर समाज में रूढ़ी प्रथा के अंतर्गत सभी बातें व्यवहार में है। यह सभी पद्धतियाँ परम्परागत आदिवासी समाज में रूढ़ी प्रथा के साथ चली आ रही है। जिसे कस्टमरी (Cusomary) कानून भी कहा जाता है।

क्या, कस्टमरी (Cusomary) व्यवस्था को भारत सरकार या राज्य सरकार द्वारा मानने का दिशा निर्देश दिया गया है? - इस संबंध में भारत सरकार का विधि मंत्रालय या गृह मंत्रालय तथा झारखंड का विधि विभाग या गृह विभाग का दिशा निर्देश अथवा अधिसूचना अबतक जारी नहीं हुआ है। हाई कोर्ट द्वारा इस दिशा में कार्य किया गया है।

धर्म आधारित जनगनना - 

जनगनना रिर्पोट  2011 के आंकड़े जिसमें उराँव लोग अपने आस्था-विश्‍वास अथवा अपने धार्मिक आस्‍था को निम्‍न प्रकार से दर्ज कराये हैं -

1.झारखण्‍ड-17,16,618 / हिन्दु-12.12%, इसाई- 26.16%, अन्य(सरना/अद्दी) - 61.11%  2.छतीसगढ-7,48,789 / हिन्दु-30%, इसाई-48.17%, अन्य(सरना/अद्दी)     - 04.12%
3.प.बंगाल- 6,43,510 / हिन्दq-74.39%, इसाई- 20.43%,अन्य (सरना/अद्दी) - 04.82%
4. ओडिशा-3,58,112 / हिन्दु-36.33%, इसाई-41.84%, अन्य(सरना/अद्दी) - 21.19% 5. बिहार- 1,44,472 / हिन्दु-94.03%, इसाई - 02.41%,अन्य(सरना/अद्दी) - 02.86%
6. महाराष्‍ट्र- 43,060 / हिन्दु-91.81%, इसाई-06.46%,अन्य (सरना/अद्दी) - 00.12% 7. मध्‍यप्रदेश- 28,431 / हिन्दु-50.25%, इसाई-48.81%, अन्य(सरना/अद्दी) - 00.19%
8. त्रिपुरा- 12,01 /  हिन्दु- 91.52%, इसाई- 07.76%, अन्य (सरना/अद्दी) - 00.42%

इन 08 राज्यों में उरांव लोगों का औसत धार्मिक आँकड़ा इस प्रकार है :-

हिन्दु - 62.216%, इसाई - 25.255%, अन्य (सरना/अद्दी) - 11.853% है।

व्याख्या :-

भारतीय न्यायिक व्यवस्था में भारत की आजादी के पूर्व से ही बिहार-झारखण्ड एवं ओडिसा के मुण्डा, उरांव, संताल, हो, भूमिज, खड़िया, गोंड आदि के लिए समुदाय के लोगों पर हिन्दु उत्तराधिकार कानून नहीं लगने का गजट अधिसूचना जारी कर रखा है। यह अधिसूचना वर्ष 1913 में जारी किया गया है। आजादी के बाद माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी कई बार अपने आदेश में स्वीकार किया है कि आदिवासियों पर, हिन्दु उत्तराधिकार कानून नहीं लगता है। फिर भी कुछ ऐसे न्यायाधीश भी हैं जो आदिवासियों को हिन्दु उत्तराधिकार कानून के पचड़े में उलझाने से हिचकते नहीं हैं, क्योंकि उनके कार्यों की समीक्षा करने वाला शायद उनके उपर कोई नहीं है? गुमला, झारखण्ड के जिला न्यायाधीश द्वारा P.A. No. 28/1999, Civil Court, Gumla, Jharkhand, Bhuneshwar Oraon v/s Randsi Oraon के साथ हिन्दु उत्तराधिकार कानून का जामा पहना कर 1932 के खतियान का 05 अलग-अलग खाता एवं अलग-अलग रैयत की जमीन को संयुक्त सम्पति घोषित कर दिया गया। वर्तमान में यह मामला, राँची उच्च न्यायालय में लम्बित है। इस मामले में जिला न्यायालय गुमला के माननीय Addition Judge द्वारा हिंदू उत्तराधिकार कानून का हवाला देते हुए 1932 के खतियान को गलत ठहराते हुए संयुक्त सम्पत्ति घोषित किया गया है जो रड़सी उराँव (प्रथम पक्ष, सैन्दा, सिसई, गुमला) के पक्ष में आदेश आया। इस पर भुनेश्‍वर उराँव (द्वितीय पक्ष, सैन्दा, सिसई, गुमला) के वंशज वर्तमान में उच्च न्यायालय, राँची में अपील पर है। आदिवासियों पर हिन्दु उत्तराधिकार कानून का लगाम से बचने के लिए आदिवासियों को अपने रूढ़ी परम्परा को मानना चाहिए, जिसे देश का संविधान द्वारा PESA Act-1996 के नाम से जाना जाता है, जिसके अन्तर्गत रूढ़ी परम्परा को विधि का बल प्राप्त है।

इसी तरह झारखण्ड उच्च न्यायालय, राँची के डबल बेंच (Double Bench) ने First Appeal No. – 124/2018, Bagga Tirkey v/s Pinkey Linda, Nirmal Karmali केस में दिनांक 08.04.2021 को अपने फैसले में परिवार न्यायालय राँची को कहा है कि - आदिवासी मामले अथवा उराँव आदिवासी मामले को उनके कस्टम (Custome) के अनुसार निपटारा करें। उच्च न्यायालय द्वारा पारित यह आदेश उराँव आदिवासियों के लिए एक मील का पत्थर है। इस मामले में परिवार न्यायालय ने कहा था कि यह आदिवासी मामला है इसे नहीं देखा जा सकता है।

अब वर्ष-2022 से राष्ट्रीय शिक्षा नीति–2020 से लगने जा रहा है जिसके तहत हिन्दी एवं अंगरेजी के अलावे तीसरी भाषा के रूप में मातृभाषा पढ़ाये जाने का केन्द्र सरकार का निर्देश है। ऐसी स्थिति में समाज और राज्य सरकार के बीच तनातनी चलेगी। क्योंकि, समाज के लोग अपनी मातृभाषा को जनगनणा में दर्ज नहीं कराते हैं, जिससे सरकार को उस किसी भाषा को बोलने वालों की जनसंख्या तथा उनके क्षेत्र का पता नहीं चलेगा। ऐसी स्थिति में सरकार योजना कैसे बनाएगी। जब योजना नहीं बनाएगी तो नियोजन अथवा शिक्षक बहाली तथा छात्रों के लिए मातृभाषा शिक्षा योजना कैसे लगा पाएगी? निम्नलिखित 08 राज्‍यों में जनगनणा 2011 में उरांव लोगों जनसंख्‍या तथा मातृभाषा कुंडुख दर्ज करने वालों का प्रतिशत आंकड़ा इस प्रकार है  -   

1. झारखण्‍ड - 17,16,618 - कुंड़ुखभाषा -  9,52,164 - दर्ज होने का प्रतिशत  -  55.46%
2. छतीसगढ -  7,48,789     - कुंड़ुखभाषा - 5,16,778 -  दर्ज होने का प्रतिशत - 68.01%
3. प.बंगाल  - 6,43,510               - कुंड़ुखभाषा - 1,71,909 -  दर्ज होने का प्रतिशत - 26.71% 
4. ओडिशा   -  3,58,112           - कुंड़ुखभाषा - 1,36,031 -  दर्ज होने का प्रतिशत - 37.98% 
5. बिहार  -  1,44,472 - कुंड़ुखभाषा -  87,995 -  दर्ज होने का प्रतिशत -  60.90%     
6. महाराष्‍ट्र  -  43,060  - कुंड़ुखभाषा - 8,239  -  दर्ज होने का प्रतिशत -  19.13% 
7. मध्‍यप्रदेश -  28,431   - कुंड़ुखभाषा - 4,132 -  दर्ज होने का प्रतिशत -  14.53% 
8. त्रिपुरा    -  12,011  - कुंड़ुखभाषा -  7,145 -  दर्ज होने का प्रतिशत   -  59.48%

झारखण्ड में शिक्षक बहाली के मुद्दे पर ये बातें बार-बार उठती हैं। क्या, उराँव समाज के लोग अपनी गलती सुधारना चाहेंगे?

इसी तरह आजकल लड़के-लड़कियाँ विवाह के पश्‍चात विवाह विच्छेद के लिए न्यायालय का शरण ले रहे हैं, जहाँ कानूनी अड़चने आ रही है। क्योंकि जो विवाह हिन्दू विवाह कानून के तहत या मुस्लिम विवाह कानून या ईसाई विवाह कानून के तहत हुआ हो, उसका विवाह विच्छेद अथवा तलाक प्रक्रिया है और उसके तहत न्यायालय न्याय देता है। पर आदिवासी मामले में 2021 से पूर्व किसी तरह का न्यायिक प्रक्रिया में दिशा निर्देश नहीं रहने के चलते परिवार न्यायालय द्वारा मामले को देखने से इंकार कर देता था। देखें - First Appeal No. – 124/2018, Bagga Tirkey v/s Pinkey Linda, Nirmal Karmali. ऐसे में आदिवासी लोग क्या करें - आदिवासियों को अपना खेत-जमीन, समाज और आदिवासी पहचान बचाना है तो उन्हें अपने पुस्तैनी धरोहर को संरक्षित तथा सुरक्षित रखना पड़ेगा अन्यथा उनका सामाजिक धरोहर एवं पहचान नहीं बचेगा। वर्तमान में आदिवासियों पर हिन्दू उत्तराधिकार कानून का लगाम से बचने के लिए पारम्‍परि‍क आदिवासियों को अपने रूढ़ी परम्परा को मानना चाहिए और पारम्परिक आदिवासियों के विश्‍वास धर्म को एक संवैधानिक नाम न मिलने तक अपने पारम्परिक आदिवासी विश्‍वास धर्म को जनगनणा फार्म के धर्म कॉलम में अन्‍य धर्म (सरना धर्म या आदि धर्म) दर्ज करना होगा तथा भाषा कॉलम में सभी उरांव लोगों को कुंडुख भाषा दर्ज करना ही होगा, तभी हमलोग पारम्परिक आदिवासी आस्‍था-विश्‍वास एवं पुरखौती धरोहर  उरांव (कुंडुख) भाषा संस्‍कृति को बचा पायेंगे।

संकलन एवं आलेख - 
श्री धुमा उराँव (सेवा निवृत शिक्षक) 
पड़हा धुमकुड़ि‍या एजेरना पिण्डा, सिसई, 
गुमला (झारखण्ड).

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