पेसा कानून की नियमावली, पेसा कानून,1996 के मूल प्रावधानों के ही आलोक में बनाना है पर लोगो में कुछ भरम की स्थिति है । एक छोटा सा प्रयास है इसको दूर करने का ।जैसे, अस्पष्टता और भ्रम के निम्न बिंदु हैं।
1. पी पेसा या पेसा?
पी-पेसा या पेसा कहने से पेसा कानून,1996 की मूल बाते बदल नहीं जाती।. पी-पेसा से अगर कोई और बातों का बोध हो रहा है तो इसके हिमायती लोग स्पष्ट रूप से समाज ,सरकार और कोर्ट में रखें। अगर कोई अलग बोध नहीं हो रहा है तो भ्रम न फैलाए।
कानून स्पष्ट है , अनुसूचित क्षेत्रों में धारा 4 के आलोक में अपवादों और उपान्तरों के तहत पंचायत का विस्तार करना (पार्ट 9 संविधान) ।
2. क्या राज्य सरकार को पंचायत अधिनियम या पेसा पर कानून बनाने का अधिकार है? क्या यह डायरेक्ट पेसा या पांचवीं अनुसूचित के तहत नहीं बनाया जा सकता?
राज्य सरकार को ही पेसा कानून 1996 के आलोक में ही नियमावली बनाने का अधिकार है, जैसा की अन्य 8 राज्यों ने किया है। क्योंकि, यह संविधान के सातवीं अनुसूची के अंतर्गत राज्य सरकार का विषय है। और तो और,कोई भी अधिनियम का एक नियमावली बनाने के लिए इनेबलिंग प्रोविजन/प्रावधान होता है, जैसे की वन अधिकार अधिनियम - 2006 के अंतर्गत दिए गए नियमावली बनाने के प्रावधान के अंतर्गत 2012 का नियमावली बना है।
पर, पेसा 1996 के केस में अपने अधिनियम में नियमावली बनाने के लिए कोई भी एनबलिंग(enabling) प्रावधान /या धारा नहीं देता है।
ऐसी स्थिति में राज्य अपने पंचायत कानून से इनेबलिंग प्रोवेशन (यहां पर झारखंड पंचायती राज्य अधिनियम 2001 (धारा 131(1) का इस्तेमाल कर पेसा नियमावली बना सकती है।
पांचवीं अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत का विस्तार है, इसलिए यह डायरेक्ट pesa और ना ही अनुसूची पांच के तहत नियमावली बनाया जा सकता है क्योंकि वहां नियमलवली बनाने का स्पष्ट प्रावधान नहीं है। अब तक ऐसा कोई भी अनुसूचित क्षेत्रों का राज्य ऐसा नहीं किया है।
3. पेसा और JPRA- 01 एक है?
पहला केंद्रीय कानून है तो दूसरी राज्य कानून है । पहला विशिष्ट है और पंचायत के विशेष क्षेत्रों में वह लागू होगा । लेकिन,
सरकार को यह ध्यान देना है की जो भी नियमावली बने वह पेसा कानून 1996 के सारे बातों को अक्षरशः लागू अपने नियमावली ड्राफ्ट में करें। पर अफसोस है वर्तमान पंचायत राज अधिनियम 2001 में उन्हें समाहित नहीं किया गया है। अब जब अलग नियमावली बन रही है तो उन सारी चीजों को उसी प्रकार समाहित करे जैसे इसके जनक भूरिया ड्राफ्टिंग कमिटी ने 1995 में दिया था।
कुछ प्रतिक्रिया के आलोक में वर्तमान नियमावली में सरकार ने सुधार किया जैसे -
"अधिनियम" का तात्पर्य में अब - "पेसा" किया गया है जो की सही है, यह मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की पेसा नियमावली के अनुरूप है। वहीं, बाकी अन्य राज्यों ने अपने राज्य के पंचायती राज का ही उल्लेख किया है,जो विमर्श का बिंदु हो सकता है पर वहां नियमावली लागू है।
दूसरी तरफ, "धारा " से अभिप्राय ,पर झारखंड पंचायती राज 2001 की धारा के जगह या "पेसा की धारा" हो सकता है , जो की विचाराधीन है।
इस तरह और अन्य चीजों पर सुधार की गुंजाइश है । सरकार सभी क्षेत्रों से आम और खास लोगों से फिर एक मंतव्य ले सकती है।
4. पेसा 1996 पर खासकर दो जजमेंट पर सरकार और लोगों का व्याख्या भ्रम उत्पन्न कर रहा है।
कैसे?
एक तरफ सरकार का कहना है की राकेश कुमार (UOI v. Rakesh kr. 2010,SC ) के जजमेंट में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने 2010 के अपने फैसले में Pesa 4(g) और झारखंड पंचायती राज अधिनियम 2001 में आरक्षण सम्बन्धित धाराओं को संवैधानिक करार करने के साथ ही पूरे JPRA को पेसा संगत बताया है। इसलिए उनका पक्ष है की JPRA की सभी धाराएं समूल PESA - 1996 के भी संगत और संवैधानिक हो गई है।
वहीं, PNS Surin केस (2010 ) में माननीय झारखंड HC ने माना की पेसा की धारा 4 (o) में वर्णित पांचवीं अनुसूचित क्षेत्रों में जिला स्तर की पंचायतों को छठी अनुसूची के पैटर्न पर JPRA के धारा .73 etc.के तहत अधिकार दे कर उसे PESA से संगत कर दिया गया है। साथ ही इस केस पर SLP (स्पेशल लीव पिटिशन), माननीय सुप्रीम कोर्ट से 2017 में निरस्त किया है। इस केस की सुनवाई के दौरान और जजमेंट में राकेश कुमार के केस का हवाला देते हुए कहा की चूंकि संपूर्ण JPRA संवैधानिक करार कर दी गई थी इसलिए यह धारा 4 (o) का मामला भी पूर्ण हो गया है।
इन्हीं को लेकर सरकारी पक्ष का मानना है की "ऑटोनॉमी और पैटर्न " भी अन्य चीजों के साथ JPRA में दे दी गईं है। अतः सब ठीक है और उठाए गए बिंदु निराधार है, तब जब उच्च स्तर से कानूनी राय भी मिल गया है।
पर समीक्षा उपरांत यह दिखाई देता है की -
यहां वास्तविक विषय पर ध्यान नहीं गया है जिससे की भ्रम या अस्पष्टता की स्थिति है और मत बंटे हुए हैं।
यहां जिस केस का हवाला दिया जा रहा है उनको समझे और कुछ मेरिट पर बहस ना होने से विरोधाभास जजमेंट दिखता है खासकर भूरिया कमिटी के सुझाव /सिफारिश और प्रारूप के आलोक में ।
जैसे,
पहला मामला - राकेश कुमार बनाम झारखंड सरकार ,जहां अनुसूचित क्षेत्रों के पंचायत के त्रि- स्तरीय व्यवस्था पर एकल पद( मुखिया,प्रमुख और जिला परिषद अध्यक्ष) पर 100 परसेंट आरक्षण देने का था। जहां पर माननीय हाई कोर्ट झारखंड ने इसे असंवैधानिक कह निरस्त किया था, वहीं पर सुप्रीम कोर्ट में अपील में जाने पर , भूरिया कमिटी की सिफारिशों और सही जानकारी/बहस के आलोक में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड हाई कोर्ट के फैसले को पलट कर Pesa 4(g) और झारखंड पंचायती राज अधिनियम 2001 में वर्णित आरक्षण से सम्बन्धित धाराओं को ही संवैधानिक संवैधानिक करार किया है( UOI v. Rakesh kr. 2010,SC )जो जजमेंट का पारा 60 में वर्णित है। यह इस जजमेंट का मूल मुद्दा है ।
कोर्ट ने साथ ही एक सामान्य अवलोकन में JPRA को संवैधानिक कहा पर उनमें pesa के अन्य प्रावधानों का कोई विवाद नहीं लाया गया था। जो जजमेंट का मेरिट है वह आरक्षण से सम्बन्धित था ना की और अन्य धाराओं से।
यह पर ध्यान देने की बात है की माननीय SC ने झारखंड HC के निर्णय को भूरिया कमिटी के रिपोर्ट में दिए गए सुझाव और तर्क के आधार पर Pesa 4(g) को संवैधानिक कहा।
दूसरी तरफ जब PNS Surin केस (2010 ) में PESA की धारा 4 (o) के तहत मामला झारखंड HC में था तब इसके पक्ष में भूरिया कमिटी का जिक्र नहीं किया गया और ना ही कोर्ट के संज्ञान में लाया गया। नतीजा जजमेंट में HC ने राकेश कुमार का हवाला देते हुए इसे खारिज कर दिया और SLP को SC ने 2017 में निरस्त कर दिया । यह हार का कारण बना।
इसी के आलोक में सरकार धारा 4 (o) की मांगो को इन केसेज के निर्णय के आलोक में नकार रही है।
परन्तु, अगर आप भूरिया कमिटी की सिफारिशों 1995 पर गौर करेंगे तो उन्होंने
1. छठी अनुसूची को पांचवीं अनुसूचित क्षेत्रों खासकर जिला स्तर के प्रशाशन के लिए उपयुक्त माना है, और एक प्रारूप भी दिया है। वह इसलिए की उनके अनुभवों और अध्ययन में अनुसूचित क्षेत्रों में नौकरशाही तंत्र आदिवासी दिलों को अभी तक नहीं छू पाया था।("The bureaucratic apparatus has hardly touched the tribal chord") " therefore we hark on the sixth schedule pattern".रेफर रिपोर्ट के कुछ अंश संलग्न।
2. उनके अनुसार,"स्वायत्तता "का मतलब, "स्वप्रबंधन" से है जो की नॉन मैनिपुलेबल (non - manipulable) है। साथ ही "पैटर्न" का मतलब इस स्वप्रबंधन को बढ़ावा देने के लिए जिला स्तर पर प्रशासनिक ढांच का पुनर्निर्माण और प्रशासनिक सीमाओं का निर्माण कुछ ही वर्षों में करने की सिफारिश की थी। उन्होंने इसके लिए एक प्रारूप भी दिया था जो आप उनके रिपोर्ट में देख सकते है।
अफसोस ये सभी बातें न ही HC और SC में रखी गई। जहां राकेश में भूरिया का जिक्र हुआ वहां फैसला आदिवासियों के हक में आया पर सुरीन में जहां नहीं हुआ,वहां आदिवासी लोगों के अहित में आया। इस तरह, सिफारिश ठंडे बस्ते में बंद हो गई। मेरिट पर फैसला न मिलने से भ्रम उत्पन्न होने लगा। लोग और संस्थाएं अपने तरीके से चीजों को लिख ,बोल रहे है। भ्रम का बाजार अभी गर्म है।
कोशिश हो सरकार भूरिया की सिफारिशों का अध्ययन कर और वर्तमान पेसा के आलोक में नियमावली बनाए।
जहां तक कोर्ट केस का मामला है वह अभी जो निर्णय खासकर सुरीन केस पर पुनर्विचार हो और इसे मेरिट के आधार पर भविष्य के लिए न्याय मांगा जा सकता है। भविष्य में सकारात्मक निर्णय आने से 4(o) के आलोक में सरकार इसके ऊपर "स्वायत्तता और पैटर्न " पर निर्णय लेकर सही भावना से कानून को झारखंड में लागू करें जो "स्वप्रबंधन,स्वायत्तता,और सही प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण" को स्थापित करें। सरकार अपनी जिम्मेदारी ने न भागे और अन्य राज्य सरकारों के नियमावली,कोर्ट में मेरिट हीन अधूरे बहस पर आए निर्णयों की ओंठ में और नियमावली बनाने में सालों की हुई देरी और नाकामियों को ना छुपाए।
सुझाव :
सरकार-
यथासंभव इस कानून के नियमावली से संबंधित भ्रम पर स्पष्टीकरण लाकर उन्हें दूर करें।
और जनता सही जानकारी लेने की कोशिश करें और भ्रम और अहंकार की राजनीति से दूर रहे।
बुद्धिजीवी वर्ग- संविधान और कानून सम्मत जानकारी दे। जहां भ्रम हो वहां बैठक कर साझा निर्णय करने योग्य बाते को रखे और आपसी खींच तान से बचें। समाज को सही दिशा देना हम सबों की मौलिक जिम्मेदारी है ।भटकाव और अलगाव से बचे और बचाए।
तभी सही मायने में "अबुआ दिसुम रे अबुआ राइज" की संकल्पना पूरी हो सके।
राम चंद्र उरांव
सहायक प्रोफेसर
(फेेसबुक से साभार) दस्तावेज नीचे पीडीएफ में देखें..