2010 में आई यूनेस्को की ‘इंटरेक्टिव एटलस’ की रिपोर्ट बताती है कि अपनी भाषाओं को भूलने में भारत अव्वल नंबर पर है। भाषा विशेषज्ञों का मानना है कि आदिवासी भाषाएँ ज्ञान के भण्डार को अपने में समेटे हुए हैं जिसका इतिहास करीबन चार हजार साल पुराना है। यूनेस्को की महानिदेशक इरीना वोकोवा कहती है कि ‘‘मातृभाषाएँ जिनमें कोई भी अपना पहला शब्द बोलता है, वही उनके इतिहास एवं संस्कृति की मूल बुनियाद होती है…और यह बात सिद्ध भी हो चुकी है। स्कूल के शुरुआती दिनों में वही बच्चे बेहतर ढंग से सीख पाते हैं जिन्हें उनकी मातृभाषाओं में पढ़ाया जाता है” संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि आदिवासी भाषाओं में महत्वपूर्ण परंपरागत ज्ञान संरक्षित हैं। सिंधु घाटी सभ्यता के कई स्थलों सहित अन्य ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई में ऐसे अनेक अभिलेख मिले हैं, जिन्हें अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है.. विद्वानों द्वारा उन्हें आदिवासी भाषाओं से मिलाकर समझने का प्रयास किया जा रहा है, ऐसे में इन भाषाओं के लुप्त होने से बेहद महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी के लुप्त होने का भी खतरा पैदा हो गया है…..विशेषज्ञों के अनुसार जनजातीय भाषाओं का मौखिक साहित्य लिखित साहित्य से काफी समृद्ध है। संयुक्त राष्ट्र संघ की सांस्कृतिक परिषद की रिपोर्ट के अनुसार इस सदी में दुनिया क सात हजार भाषाओं में से 63 सौ भाषाएं मर जाएंगी। इस गंभीर स्थिति को देखते हुए झारखंड की आदिवासी भाषाओं को बचाना आवश्यक हो गया है…. झारखंड में सादरी (नागपुरी), कुरमाली, खोरठा और पंचपरगनिया चार प्रमुख क्षेत्रीय भाषाएं हैं। इसमे नागपुरी संपर्क भाषा के रूप में जानी जाती है।
"हमारी बोली हमारी पहचान, इसका करें सभी सम्मान।
विलुप्त न हो इसका मान। इसके प्रचार प्रसार में सभी का हो बहुमूल्य योगदान।"
सवाल यह उठता है कि भाषा कब मरती या खतरे में पड़ जाती है? दरअसल, वह तब मरती है जब उसे बोलने वाली आबादी मर जाती है या किसी दूसरी भाषा को अपना लेती है। नतीजतन, उस आबादी की अगली पीढ़ियां मातृभाषा भूल जाती है। सामाजिक और आार्थिक कारण भी इसकी एक बड़ी वजह है। व्यापार और पलायन, ताकतवर्ग द्वारा किसी एक भाषा को तवज्जो देने से भी छोटी और स्थानीय भाषाएं उपेक्षित रह जाती हैं। लिपि का न होना भी भाषा के खत्म होने के बड़े कारक के तौर देखा जाता है। वहीं कुछ लोग मानते है कि लिपि न होना भाषा के मरने का कारण नहीं है। मुख्य कारण है भाषा का उपयोग न करना। अगर लोगों के मन में अपनी भाषा के प्रति सम्मान और अस्मिता का भाव है तो वह कम लोगों द्वारा बोली जाने के बाद भी जिंदा रहती है।
दुनियाभर के भाषाविज्ञानी मानते हैं कि भाषाएं अकेले नहीं मरतीं। उनके साथ पूरी की पूरी संस्कृति और उससे जुड़ा ज्ञान भी लुप्त हो जाता है। अन्विता अब्बी कहती हैं भाषा के मरने से बहुभाषिता ही नहीं मरती बल्कि पूरा समाज मर जाता है, समाज की संस्कृति मरती है, भाषा से जुड़े लोगों की सोच, हजारों वर्षों से संजोया ज्ञान, उनका दर्शन और मान्यताएं, उनका विश्वास और सबसे अहम पर्यावरण को समझने और बचाने का ज्ञान और सूझबूझ हमेशा के खत्म हो जाती है।” इम्तियाज हुसैन बताते हैं कि आदिवासी समाज की भाषा सांस्कृतिक और पारिस्थितिक विविधताओं का भंडारघर है और उनकी भाषा खत्म होने से ज्ञान का यह खजाना भी खत्म होता जा रहा है।
मातृभाषा दिवस के दिन यह चुनौती हम सब के समक्ष है कि हम अपनी भाषा को बचाने के लिए क्या कर सकते है। आदिवासी परिवार में अपनी भाषा का प्रयोग अधिक से अधिक करना एवं बच्चों को इसके महत्व के विषय में बतलाना आवश्यक है। भाषा विलुप्ति का भुक्तभोगी स्वयं मैं भी हूँ। जहाँ मैं आज टूटे फूटे तरीके से भाषा को समझने का प्रयास करता हूँ। मेरी तरह कई और परिवार उदाहरण है जहाँ माता पिता आपस में अपने बच्चों के समक्ष अपनी भाषा में बात नहीं करते जिनकी वजह से बच्चों को अपनी भाषा का ज्ञान नहीं मिल पाता एवं उनके परिवार से भाषा विलुप्त होती चली जाती है।
भाषा विलुप्ति के कुछ अन्य प्रमुख कारण निम्न हो सकते है
√बाह्य भाषा का अतिक्रमण
√पलायन
√माता पिता या परिवार में अपनी भाषा का कम या बिल्कुल नहीं बोला जाना
√अपनी भाषा को अन्य भाषा की तुलना में हीनता की दृष्टि से देखना
√लिपि का न होना
√संकोच करना कि दूसरे लोग क्या सोचेंगे
√भाषा संरक्षण का अभाव
√अन्य कारण
एक अनुमान के अनुसार लगभग 100 वर्ष के बाद 15 लाख लोगों द्वारा बोली जानेवाली कुड़ुख भाषा का यदि संरक्षण नहीं किया गया तो यह भाषा भी विलुप्त हो जाएगी। इसलिए समय रहते हमें अपनी भाषा के विकास एवं संवर्धन के लिए सावधान हो जाना चाहिए एवं इस दिशा में सभी को अपना अपना योगदान देना चाहिये। आज यह संकल्प लें कि हम अपनी भाषा को बचाएंगे और इसे आनेवाली पीढ़ी के लिए संजोए रखेंगे तब ही हमारा अस्तित्व बचा रह पाएगा।
@ डॉ संजय बाड़ा , साभार : सोसल मीडिया।