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कुँडुख़ भाषा एवं तोलोंग सिकि, लिपि के प्रचार-प्रसार की उलझने और चुनौतियाँ

विदित है कि कुँडुख़़ भाषा की लिपि, तोलोंग सिकि के विकास में देश का आदिवासी आन्दोलन तथा झारखण्ड अलग प्रांत आन्दोलन का छात्र आन्दोलन की भूमिका उल्लेखनीय रही है। इसके वाबजूद कुँडुख़ तोलोंग सिकि के प्रचार-प्रसार में काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। वैसे पेशे से चिकित्सक डा० नारायण उराव के लगन एवं सूझबूझ से कुँडुख़ भाषा की लिपि के रूप में तोलोंग सिकि, लिपि को सामाजिक मान्यता मिल पायी और सामाजिक चिंतकों तथा बुद्धिजीवियों के मार्गदर्शन से झारखण्ड सरकार द्वारा वर्ष 2003 में कुँडुख़ भाषा की लिपि के रूप में स्वीकार कर लिया गया। ये सभी बातें होते हुए कुँडुख़ भाषा एवं लिपि के अग्रेतर विकास के क्रम में वर्ष 2009 में, गुमला जिला, डुमरी प्रखण्ड के अन्तर्गत ‘‘कुँडुख़़ कत्थ खोंड़हा लूरएड़पा, लूरडिप्पा, भागीटोली’’ के एक कुंड़ुख़-अंग्रेजी माध्यम विद्यालय को तोलोंग सिकि, लिपि में परीक्षा लिखने की सरकारी अनुमति मिली। इसके बाद सिसई-भरनो क्षेत्र के ग्रामीण भी कुँडुख़़ भाषा एवं तोलोंग सिकि, लिपि में पड़ाई-लिखाई करते हुए तोलोंग सिकि में परीक्षा लिखने  की अनुमति की मांग करने लगे। वैसे  मैं  सिसई थाना क्षेत्र में कार्तिक उरांव आदिवासी बाल विकास विद्यालय सिसई गुमला में प्रधानाचार्य के पद पर कार्यरत था, तथा जून 2021 में सेवानिवृत होकर कुंड़ुख भाषा तोलोंग सिकि के प्रचार प्रसार में जुड़ा हुआ हूं।
    इन्हीं दिनों वर्ष 2010 में एक दिन डा० नारायण उराँव अपने पैतृक गांव सैन्दा आये हुए थे। उन्होंने अचानक श्री गजेन्द्र जी से कहा - चलिये, आज सैन्दा गांव का आर.सी.यू.पी.स्कूल, सैन्दा के हेडमिस्ट्रेस से मिला जाए। वे दोनों सैन्दा गांव के हेडमिस्ट्रेस से मिले और कुंडुख़ भाषा एवं तोलोंग सिकि की पढ़ाई-लिखाई के बारे में बोले। दोनों की बातें समझने के बाद हेडमिस्ट्रेस श्रीमती बिमला लकड़ा ने कहा - भाषा-संस्कृति बचाने का यह बेहतर तरीका होगा, पर यह विद्यालय, ईसाई अल्पसंख्यक स्कूल है, इसलिए यदि आपलोग हमारे पारिस के फादर से इस विषय में पढ़ाई-लिखाई कराये जाने की अनुमति दिला दें तो हमारे स्कूल में भी कुँडुख़ भाषा एवं तोलोंग सिकि की पढ़ाई-लिखाई आरंभ हो जाएगी। हेडमिस्ट्रेस श्रीमती बिमला लकड़ा का प्रश्न प्रसांगिक था। उन्होंने अपनी बाध्यता को दोनों सामाजिक चिंतकों के बीच रखीं। भाषा-लिपि का विकास, विषयक परिचर्चा में उन्होंने (श्रीमती बिमला लकड़ा) जानकारी दिया कि - आर.सी.प्राईमरी स्कूल सैन्दा 1936 में स्थापित हुआ है तथा उस स्कूल के साथ अन्य चार स्कूल, समल, सोगड़ा, जलका, दिगदोन में (वर्तमान में सभी सिसई थाना क्षेत्र में) प्राईमरी स्कूल खुला है। 
    इस जानकारी के बाद अखिल भारतीय तोलोंग सिकि प्रवारिणी सभा, राँची के अध्यक्ष फा० अगुस्तिन केरकेट्टा एवं महासचिव डा० नारायण उराँव तथा पड़हा कोटवार श्री गजेन्द्र उराँव तीनों साथ मिलकर, सिसई थाना क्षेत्र के रोशनपुर पारिस के फादर से मिले और कुँडुख़़ भाषा एवं तोलोंग सिकि की पढ़ाई-लिखाई के संबंध में परिचर्चा किये। इस परिचर्चा में रोशनपुर पारिस के फादर उत्साहित दिखे, परन्तु उन्होंने भी एक प्रश्न किया कि हमारे पारिस में इस तरह के कार्य आरंभ करने से पहले हमें गुमला के बिशप का अनुमति दिलवा दीजिए। यह कथन सुनकर वे तीनों गुमला कैथोलिक गिरजा के बिशप से मिलने पहूंचे। बातचीत सराहनीय रही, पर उन्होंने भी यह प्रश्न किया कि इसके लिए कार्डिनल स्वामी से अनुमति लेना पड़ेगा, उसके बाद ही कुँडुख़ भाषा एवं तोलोंग सिकि की पढ़ाई-लिखाई आरंभ हो सकेगी। इन विन्दुओं पर बातचीत के बाद वे तीनों ने तय किया कि - सभी मिलकर एक प्रतिनिधि मण्डल के साथ कार्डिनल तेलेस्फोर पी. टोप्पो से बिशप हाउस, रांची में अभ्यावेदन के साथ मुलाकात करेंगे। 
    कुँडुख़ भाषा एवं तोलोंग सिकि के पठन-पाठन के संबंध में प्रतिनिधि मण्डल के  साथ कार्डिनल तेलेस्फोर पी. टोप्पो से भेंट करने का उदेश्य सिर्फ इतना था कि यदि रोमन काथलिक चर्च के उच्च धर्माधिकारी कुँडुख़़ भाषा एवं तोलोंग सिकि की पढ़ाई-लिखाई के लिए अल्पसंख्यक विद्यालयों में अनुमति दे दें तो कुँडुख़ भाषी क्षेत्र में भाषा एवं संस्कृति का संरक्षण तथा संवर्द्धन की दिशा में कार्य की प्रगति दिखने लगेगी। इसी सोच के साथ एक प्रतिनिधि मण्डल बिशप डा० निर्मल मिंज की अगुवाई में डा० नारायण उराँव, डा० श्रीमती शांति खलखो, श्री अब्राहम मिंज, श्री पियूष अमुत बेक एवं फादर अगुस्तिन केरकेट्टा के साथ दिनांक 02 मार्च 2011 को कार्डिनल तेलेस्फोर पी. टोप्पो के साथ मुलाकात किये। इस मुलाकात में प्रतिनिधि मण्डल के साथ क्या-क्या बातें हुई, इसकी जानकारी तो नहीं हो पायी, परन्तु प्रतिनिधि मण्डल के साथ मुलाकात के 01 महीने बाद फादर अगुस्तिन केरकेट्टा के माध्यम से कार्डिनल तेलेस्फोर पी.टोप्पो महोदय का मंतब्य प्रकाश में आया। फादर अगुस्तिन केरकेट्टा द्वारा डा० नारायण उराँव को सर्वप्रथम सूचित किया गया। वहाँ की बातें क्या हुईं या निर्णय क्या रहा, इसकी पूर्ण जानकारी मुझे नहीं मिल पाया, पर फादर अगुस्तिन केरकेट्टा द्वारा डा० नारायण उराँव को बिशप हाउस की ओर से अभ्यावेदन के प्रत्युत्तर के बाद डा० नारायण विचलित रहने लगे। उन्हें कुछ नई चीज की तलाश थी। वे शहर से निकलकर गांव में कुछ ढूँढ़ने लगे। इसी क्रम में दिनांक 22 मई 2011 को 16 गांवों की पारम्परिक बिसुसेन्दरा के नाम से शिबनाथपुर, सिसई, गुमला में सम्पन्न महा सम्मेलन में श्री गजेन्द्र उराँव के साथ एक समाज सेवी के तौर पर मुलाकात हुई। डा० नारायण उराँव ने गांव वालों के साथ कुँडुख़ भाषा एवं तोलोंग सिकि की पढ़ाई-लिखाई के संबंध में परिचर्चा कर, योजना तैयार करने हेतु प्रोत्साहित किये। इस बैठक में कुछ नवजवान उत्साहित हुए और इस विषय पर कार्य करने को आगे आये और धीरे-धीरे कार्य आगे बढ़ने लगा। वर्तमान में सिसई-भरनो क्षेत्र में लगभग 15 छोटे-बड़े स्कूल तथा भाषा शिक्षण केन्द्र स्थापित हैं। 
    कुछ दिनों बाद बिशप हाउस की ओर से उद्धृत मंतब्य दिनांक 12.07.2014 दिन शनिवार को डा० हरि उराँव के आवास पर सम्पन्न, बैठक में उजागर हुआ। यह बैठक, कुँड़ुख़ भाषा विकास समन्वय समिति की बैठक थी। बैठक का आयोजन, कुँड़ुख़ भाषा व्याकरण का मानकीकरण से संबंधित कार्यशाला आयोजित किये जाने हेतु विमर्श करना था। इस बैठक में डा० हरि उराँव, डा० निर्मल मिंज, डा0 नारायण उराँव, फा.अगुस्तिन केरकेट्टा एवं श्री महेश भगत उपस्थित थे। इस कार्य योजना में कुँड़ुख़ भाषा विकास में समाजिक प्रयासों पर चर्चा हुई तथा विश्वविद्यालय स्तर में किये जा रहे प्रयासों पर बातचीत हुई। बैठक में इस बात पर भी चर्चा हुई कि ईसाई अल्पसंख्यक विद्यालयों में भाषा की पढ़ाई पर क्या प्रगति है ? इस प्रश्न के उत्तर में फा.अगुस्तिन केरकेट्टा ने कहा कि इसके लिए कार्डिनल स्वामी से एक प्रतिनिधि मंडल दिनांक 02 मार्च .2011 को मिला, किन्तु इस विषय में उनका निर्णय अस्पष्ट रहा। माननीय काडिनल स्वामी द्वारा फा.अगुस्तिन केरकेट्टा से कहा गया - एवन्द’ईम बओत, पहें कुँडुख़ गे गा नाम तीरकत,अवंगे नमन UNIVERSAL नलख ननना मनो। उक्त बैठक में हुए कार्डिनल स्वामी के विचार से फा० अगुस्तिन केरकेट्टा,असहमत थे और उन्होंने कहा कि वे (अगुस्तिन केरकेट्टा) तोलोंग सिकि विकास योजना में सम्मिलित है। 
    कुँड़ुख़ व्याकरण हेतु मानकीकरण के पहले चरण में पारिभाषिक शब्दावली पर सहमति बने, इसके लिए इस विषय पर कई छोटी-बड़ी कार्यशालाएँ आयोजित हुईं और ग्रामीण क्षेत्रों में कई कुँड़ुख़ भाषायी स्कूल तथा धुमकुड़िया संचालित किये जा रहे हैं। पर अबतक ईसाई मिशनरी संस्थाओं की ओर से इस विषय में कोई उत्साहवर्द्धक संदेश नहीं मिला पाया है। इसी बीच एक लम्बे समय तक कोरोना महामारी के बाद दिनांक 26 अक्टुबर 2021 को फा० कामिल बुल्के पथ (पुरूलिया रोड) राँची में स्थित ग्रामगुरू के सभागार में एक बैठक हुई, जहाँ राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 एवं झारखण्ड सरकार का नीति के बारे में परिचर्चा हुई। यह बैठक, झारखण्ड क्रिश्चियन माइनोरिटी एजूकेशन एशोसिएशन के अध्यक्ष बिशप भिन्सेन्ट बरवा की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। इस बैठक में डा0 नारायण उराँव एवं फा०अगुस्तिन केरकेट्टा सहित सिस्टर सेलिन बाड़ा, फादर एरेनियुस मिंज, श्री शाडिल्य जी तथा सी.बी.सी.आई. नई दिल्ली से फादर डा० निकोलस बरला उपस्थित थे। इस बैठक के अंत में सभा अध्यक्ष माननीय बिशप बरवा द्वारा कहा गया कि - ‘‘झारखण्ड सरकार द्वारा, नई शिक्षा नीति 2020 लागू किये जाने से आदिवासी भाषा-संस्कृति के बचाव की दृष्टि से सराहणीय कदम है। इस दिशा में सरकार के योजना को देख समझकर आगे का कार्य किया जाएगा।’’ 
    इस तरह झारखण्ड राज्य स्थापित हुए 22 वर्ष पूरे हो चुके। पर अबतक झारखण्ड अलग प्रांत आन्दोलन का मूलभूत विषय अधूरा ही है। इस ओर, न समाज जागृत हो पाया और न ही राज्य सरकार द्वारा कुछ विशेष कार्य किया जा सका है। झारखण्ड अलग प्रांत आन्दोलन में भाषा एवं सृस्कृति का संरक्षण तथा संवर्द्धन भी एक विशिष्ट मुद्दा हुआ करता था। वैसे झारखण्ड क्षेत्र में शिक्षा का प्रचार-प्रसार में ईसाई मिशनरी का उल्लेखणीय योगदान रहा है, पर भाषा-संकृति के बचाव हेतु स्कूलों में आदिवासी भाषा विषय की पढ़ाई-लिखाई में अपेक्षित योगदान नहीं मिल पाया है। क्या, मिशनरी स्कूलों के लिए आदिवासी भाषाओं की पढ़ाई-लिखाई योजना, बेकार है? अथवा वर्तमान वैश्वीकरण के दौर में सिर्फ UNIVERSAL कार्य ही मान्य है, जैसा कि माननीय कार्डिनल स्वामी महोदय के विचार, आदिवासी समाज के सामने आया। बोलने के लिए तो विगत कई सभाओं में मिशनरियों द्वारा अपने संदेशों में झारखण्ड की कलीसिया को आदिवासी कलीसिया के रूप में महिमा मण्डन किया जाता है, पर भाषा-संस्कृति के बचाव के मुद्दे पर UNIVERSAL बातें सामने आ जाती हैं। क्या, उराँव, मुण्डा, खड़िया, हो, संताल इत्यादि भाषा-संस्कृति का संरक्षण एवं संवर्द्धण हेतु भाषा की पढ़ाई-लिखाई की बातें करना कलीसिया के UNIVERSAL कार्य से बाहर है। ऐसा इसलिए समझा जा रहा है कि संस्कृति तभी बचेगी, जब भाषा बचेगी और वर्तमान भूमण्डलीकरण के दौर में भाषा तभी बचेगी, जब उस भाषा की पढ़ाई-लिखाई स्कूलों में होगी।

रिपोर्ट एवं विचार :-

Dhuma Oraon

धुमा उराँव, पूर्व प्रधानाचार्य

कार्तिक उराँव आदिवासी बाल विकास विद्यालय,
कार्तिक नगर, सिसर्इ, गुमला, झारखण्ड।
दिनांक - 11 जून 2023

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