:: बिशप डॉ. निर्मल मिंज :: रांची दिनांक – 04॰04॰1997: अधिकांश आदिवासी अपनी सांस्कृतिक पहचान से दो तरह से वंचित हैं। वे अपनी स्कूली शिक्षा एक अलग परिवेश वाले समाज की भाषा एवं लिपि में शुरू करते हैं। इस प्रकार उन्होंने अपने व्यक्तिगत और सामुदायिक जीवन से दो सीढ़ी नीचे कदम रखा है। पहले उनकी मातृभाषा की मान्यता नहीं है और उनकी अपनी कोई लिपि नहीं है। एक स्वतंत्र आदिवासी व्यक्ति और समुदाय होने के लिए उनके पास अपने साहित्य और संस्कृति को विकसित करने के लिए अपनी लिपि और भाषा होनी चाहिए। उनकी अपनी भाषा एवं लिपि के माध्यम से शिक्षा, एक आदिवासी को अपने आत्म सम्मान एवं गरीमा के साथ एक वास्तविक स्वतंत्र व्यक्ति और समुदाय बना देगी।
लिपि को उनके सामाजिक और सांस्कृतिक प्रतीकों से बाहर निकलना चाहिए। इसे भाषा को लिखने और पढ़ने में सुविधा होनी चाहिए क्योंकि वे ध्वन्यात्मक रूप से बोली जाती हैं। व्यक्तिगत आदिवासी समुदायों द्वारा लिपियों का आविष्कार करने के कई प्रयास किए गए हैं, लेकिन आदिवासी भाषा और साहित्य के लेखन और प्रचार-प्रसार में उनका कड़ाई से परीक्षण नहीं किया गया है। डॉ. नारायण उरांव ‘सैन्दा’ द्वारा आविष्कार की गई 'तोलोंग लिपि' एक बहुत ही सामयिक उद्देश्य की पूर्ति करती है। तोलोंग एक पारंपरिक आदिवासी परिधान है जिसमें शरीर के चारों ओर डिजाइन और लपेटने की कला है। सौभाग्य से एक ही शब्द 'तोलोंग' झारखंड की सभी आदिवासी भाषाओं में उस परिधान के प्रतीक के लिए प्रयोग किया जाता है। यह आदिवासी सामाजिक-सांस्कृतिक वस्तुओं का अभिन्न अंग है।
मैं बहुत दृढ़ता से अनुशंसा करता हूं कि आम तौर पर आदिवासी और विशेष रूप से झारखंड के लोगों द्वारा 'तोलोंग स्क्रिप्ट' को अपनाया जाए। अपने बच्चों के लिए शिक्षा के माध्यम के रूप में तोलोंग लिपि और आदिवासी मातृभाषा को अपनाने से वे ऊपर की दोहरी बेड़ियों से मुक्त हो जाएंगे और उन्हें खुद को पेश करने के लिए सशक्त बनाएंगे, भारत में एक स्वतंत्र व्यक्ति और लोगों के रूप में। मैं कामना करता हूं कि 'तोलोंग सिकि' सभी आदिवासियों द्वारा स्वीकृति में सफल हो।
(यह अंगरेजी का मूल लेख का हिन्दीा अनुवाद है। साभार – तोलोंग सिकि का उदभव और विकास, नव झारखण्ड प्रकाशन, 2003 ई॰)
आलेख संपादन –
डॉ बिन्दु पहान
सिनियर लेक्चरर (अर्थशास्र)
ए॰बी॰एम॰ कालेज जमशेदपुर